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क़तर: दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक में ग़रीबी कैसी है?

क़तर की कुल आबादी में 90 फीसदी प्रवासी कर्मचारी हैं, जिनमें अधिकांश दक्षिणपूर्वी एशिया से वहां काम करने गए हैं.

By BBC News हिन्दी
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क़तर
AFP via Getty Images
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क़तर में ग़रीबी दिखना और इसे लेकर बात करना बहुत आसान मामला नहीं है. जो लोग इस पर बात भी करते हैं, वो बहुत संभल कर बोलते हैं.

बीबीसी मुंडो से एक टैक्सी ड्राइवर ने नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर कहा, "ये बहुत मुश्किल मुद्दा है और आपको सबसे पहले खुद को बचाना होगा क्योंकि इस पर प्रशासन बहुत सख़्त है."

क़तर दुनिया के सबसे धनी देशों में शामिल है, वहां भी ग़रीबी है और इस बारे में यहां ठीक से बात नहीं होती है. वो इसलिए कि ग़रीबी भी यहां बहुत हद तक छिपी होती है.

विदेशी कामगारों को अलग-थलग और बहुत दुर्गम जगहों पर रखा जाता है, ख़ासकर उन इलाक़ों से बहुत दूर जहां पर्यटक आम तौर पर आते-जाते हैं.

मुख्य रूप से तेल और गैस से मिलने वाली आय के कारण क़तर का सकल घरेलू उत्पाद 180 अरब डॉलर का है. यही कारण है कि दसियों लाख अप्रवासी मज़दूर यहां के रेगिस्तान में बड़े पैमाने पर हो रहे निर्माण परियोजनाओं में काम करने के लिए आकर्षित होते हैं.

क़तर में क़रीब 30 लाख लोग रहते हैं. लेकिन इसमें केवल साढ़े तीन लाख या कुल आबादी का 10 फ़ीसदी ही क़तर के नागरिक हैं. बाकी विदेशी हैं.

क़तर में नागरिकों और पश्चिमी देशों के अप्रवासियों को ऊंची तनख़्वाहें और बेहतर सामाजिक सुरक्षा मुहैया है.

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, क़तर ने ऊपरी तौर पर ग़रीबी को ख़त्म कर दिया है, हालांकि दक्षिणपूर्व एशिया से आए अधिकांश अप्रवासियों के लिए सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है.

पाकिस्तानी ड्राइवर ने बताया, "भारत, नेपाल, बांग्लादेश या पाकिस्तान जैसे देशों से आने वाले अधिकांश लोग पढ़े-लिखे नहीं होते और अंग्रेज़ी भी मुश्किल से ही बोल पाते हैं. हालांकि, उनके अपने देश के मुक़ाबले यहां उनका जीवन स्तर बेहतर होता है. लेकिन अहम मसला न्यूनतम वेतन का है और अपने घर पैसे भेजने के लिए छह लोगों के साथ एक कमरे में रहना पड़ता है."

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Reuters
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ग़ैरबराबरी भरा बर्ताव


एक ऐसे देश में जहां क़तर के नागरिक और विदेशी अप्रवासी एक साल में दसियों हज़ार डॉलर कमाने के साथ अन्य कई लाभ पाते हैं, वहीं अधिकांश अप्रशिक्षित कामगार न्यूनतम वेतन, महज 275 डॉलर प्रतिमाह (क़रीब 22377 रुपये) पर काम करते हैं.

क़तर, विवादित कफ़ाला प्रथा (प्रायोजित भर्ती) को 2020 में ख़त्म करने वाला अरब का पहला और कुवैत के बाद पूरे देश में एक समान न्यूनतम वेतन लागू करने वाला दूसरा देश बना.

जब कफ़ाला लागू था तब अगर कोई कर्मचारी बिना इजाज़त के अपनी नौकरी बदलता था, तो उसे आपराधिक मुक़दमे, गिरफ़्तारी और प्रत्यर्पण का सामना करना पड़ता था. नियोक्ता कभी-कभी उनके पासपोर्ट ज़ब्त कर लेते थे, जिससे मज़बूरी में उन्हें असीमित समय तक देश में रहना पड़ता था.

अधिकांश अप्रवासियों को नियुक्ति की फ़ीस के तौर पर भर्ती करने वाली एजेंसियों को 500 से 3,500 डॉलर (40 हज़ार से 2.84 लाख रुपये) देने पड़ते थे. इसके लिए उन्हें भारी ब्याज़ पर कर्ज़ लेने पड़ते थे, जिससे उनकी स्थिति और जटिल हो जाती थी.

श्रम क़ानूनों में सुधार के तहत ही क़तर ने क़ानून बनाकर उन कर्मचारियों को नौकरी बदलने की इजाज़त दी जो अपना कॉन्ट्रैक्ट पूरा कर चुके हैं और जो कंपनियां कर्मचारियों के पासपोर्ट ज़ब्त करती हैं, उन पर जुर्माने के भी प्रावधान किए गए.

लेकिन इन सुधारों के बावजूद ह्यूमन राइट्स वॉच जैसे संगठनों का आरोप है कि अप्रवासी मज़दूर क़तर में प्रवेश पाने, रिहाइश पाने और नौकरी पाने के लिए अभी भी अपने नियोक्ताओं पर निर्भर हैं. इसका मतलब ये है कि कर्मचारियों की रिहाइश और वर्क परमिट के नवीनीकरण और रद्द करने का अधिकार अभी भी नियोक्ताओं के पास ही हैं.

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AFP via Getty Images
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ह्यूमन राइट्स वॉच की 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार, "अगर नियोक्ता मज़दूरों के आवेदन पर कार्रवाई नहीं करता है तो बिना उनकी ग़लती के भी उनके पास कोई दस्तावेज़ नहीं बचता और नतीजतन इसका ख़ामियाज़ा मज़दूरों को भुगतना पड़ता है न कि नियोक्ताओं को."

संगठन ने पिछले साल कहा था कि मज़दूरों को अभी भी ग़ैरक़ानूनी और सज़ा के तौर पर वेतन कटौती का सामना करना पड़ रहा है. साथ ही उन्हें देर तक कमरतोड़ मेहनत करने के बावजूद बिना वेतन के महीनों गुज़ारना पड़ते हैं.

एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार, "कंपनियां अभी भी कर्मचारियों पर नौकरी न बदलने के लिए दबाव डाल रही हैं."

क़तर सरकार के एक प्रवक्ता ने बीबीसी को बताया कि देश में जो श्रम क़ानूनों में सुधार किए जा रहे हैं उससे अधिकांश विदेशी कामगारों के काम के हालात में सुधार हुआ है.

प्रवक्ता के अनुसार, "सुधारों को प्रभावी तौर पर लागू करने के मामले में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है. जैसे-जैसे सुधारों को लागू किया जाएगा क़ानून का उल्लंघन करने वाली कंपनियों की संख्या कम होती जाएगी."

फ़ीफ़ा विश्व कप
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फ़ीफ़ा विश्व कप

फ़ीफ़ा विश्वकप

फ़ुटबॉल वर्ल्ड कप के लिए क़तर ने सात स्टेडियम, एक नया एयरपोर्ट, मेट्रो, सड़कें और होटल बनाए हैं. फ़ाइनल मैचों के लिए लुसाल स्टेडियम को पिछले पांच साल में बनाया गया.

क़तर की सरकार के मुताबिक़ स्टेडियमों को बनाने के लिए 30,000 विदेशी कामगारों को काम पर रखा गया था. इनमें से अधिकांश बांग्लादेश, भारत, नेपाल और फ़िलीपींस से हैं.

विश्वकप की तैयारी के दौरान मरने वाले कामगारों की संख्या को लेकर काफ़ी विवाद रहा है.

नेपाल
BBC
नेपाल

ब्रिटिश अख़बार गॉर्डियन की एक रिपोर्ट के अनुसार, "क़तर में स्थित तमाम देशों के दूतावासों से मिले आंकड़े बताते हैं कि साल 2010 में जबसे वर्ल्ड कप की मेज़बानी क़तर को सौंपी गई, तबसे भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका के 6,500 कामगारों की मौत हुई."

लेकिन क़तर ने इस संख्या को ख़ारिज करते हुए इसे 'भ्रामक और ग़लत' बताया.

क़तर सरकार का कहना है कि मरने वाले कामगारों में सभी वर्ल्ड कप के प्रोजेक्टों से जुड़े नहीं थे और उनमें अधिकांश की मौतें उम्र संबंधित बीमारियों या प्राकृतिक कारणों से हुई थीं.

क़तर का कहना है कि उसके रिकॉर्ड के अनुसार 2014 से 2020 के बीच 37 कामगारों की मौत हुई जो स्टेडियम निर्माण में लगे हुए थे और उनमें भी तीन ही मौतें काम से संबंधित हैं.

लेकिन इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन (आईएलओ) का कहना है कि क़तर सरकार द्वारा दी गई संख्या असल सच्चाई को बयान नहीं करती. क़तर में दिल का दौरा या सांस न ले पाने से होने वाली मौतें को काम संबंधित दुर्घटना में नहीं जोड़ा जाता जो कि हीट स्ट्रोक और अत्यधिक तापमान में भारी सामान ढोने से भी हो सकते हैं.

आईएलओ के अनुसार अकेले 2021 में 50 कामगारों की मौत हुई और 500 गंभीर रूप से घायल हुए, जबकि 37,600 कामगार मामूली या ठीक होने लायक घायल हुए.

बीबीसी अरबी सेवा ने भी कुछ ऐसे साक्ष्य जुटाए हैं जिनसे पता चलता है कि क़तर की सरकार विदेशी कामगारों की मौतों को कम करके दिखाती है.

स्टेडियम कामगारों के इलाज़ को लेकर अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते क़तर ने अपने सुधार कार्यक्रमों के तहत एक लेबर कैंप का निर्माण किया है जहां इनमें से अधिकांश कामगारों के रहने की व्यवस्था होगी.

लेकिन दसियों लाख डॉलर से बनाया जा रहा यह लेबर कैंप दोहा से बाहर और वर्ल्ड कप टूर्नामेंट के दौरान टेलीविज़न पर दिखने वाली लक्ज़री जगहों से बहुत दूर है और वहां प्रेस को जाने की बिल्कुल भी इजाज़त नहीं है.

(इस रिपोर्ट में क़तर में बीबीसी न्यूज़ वर्ल्ड की ओर से विशेष संवाददाता जोस कार्लोस क्यूटो का इनपुट भी शामिल है.)

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English summary
Qatar: How is poverty in one of the richest countries in the world?
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