अगले जन्म में भी ‘एडिटर’ बनना पसंद करते विनोद मेहता
विनोद मेहता का मानना था कि पत्रकारों को राजनेताओं से दोस्ती नहीं करनी चाहिए. उनका कहना था कि आप अपने दोस्तों के बारे में निष्पक्ष होकर नहीं लिख सकते.
अपनी आत्मकथा 'लखनऊ ब्वॉए अ मेमॉएर' में विनोद मेहता ने लिखा था, "लखनऊ में आप झूठे हो सकते थे, जालसाज़, कट्टर, कंजूस, मक्कार, गंदे सब कुछ हो सकते थे, ये सब मंज़ूर था. लेकिन एक चीज़ जो किसी लखनऊ वासी पर नहीं फबती थी , वो था उसका 'बोर' या उबाऊ होना."
वो कहा करते थे, "लखनऊ ने मुझे एक अमूल्य भेंट दी है और वो है किसी इंसान को धर्म, जाति और उसकी ज़ुबान के चश्मे से न देखना. लोग मेरी धर्मनिर्पेक्षता को क्षद्म कह लें लेकिन मैंने हमेशा इसे एक सम्मान के बिल्ले के तौर पर लिया है."
उसी क़िताब में विनोद मेहता लिखते हैं, "60 के दशक में लखनऊ में हम किसी के बारे में राय बनाने से पहले सिर्फ़ ये पूछते थे, ये शख्स बोर है या दिलचस्प? क्या वो एक दो लड़कियों को जानता है या नहीं? क्या उसके घर पर अच्छा खाना मिल सकता है? क्या वो अपने दोस्तों के लिए छोटी मोटी कुर्बानी दे सकता है? क्या उसपर भरोसा किया जा सकता है? किसी भी आदमी की वक़त इन सवालों के सही जवाब से पहचानी जाती थी ना कि उसके पिता के नाम से, या वो किस धर्म का है? या वो शहर के किस इलाक़े में रहता है?"
डेबोनॉएर से की करियर की शुरुआत
विनोद मेहता का जन्म 31 मई, 1941 को रावलपिंडी में हुआ था. विभाजन के समय भारत आने पर उनका परिवार लखनऊ में बस गया था. लखनऊ विश्वविद्यालय से ही उन्होंने बीए की डिग्री ली थी, वो भी तीसरे दर्जे में. उसके बाद वो इंग्लैंड पढ़ने चले गए थे.
भारत लौटने पर उन्होंने अपने करियर की शुरुआत 'प्लेब्वॉए' की तर्ज़ पर बंबई से छपने वाली पत्रिका डेबोनॉएर के संपादक के तौर पर की थी.
उस मासिक पत्रिका के मालिक सुशील सोमानी हुआ करते थे. उन्होंने विनोद मेहता को 2,500 रुपए मासिक पर नौकरी पर रखा था. उन्होंने मेहता को पत्रिका में किसी भी तरह का बदलाव करने की छूट दी थी सिवाए इसके कि पत्रिका के बीच में अर्धनग्न युवती की तस्वीर छापने की परंपरा बदली नहीं जाएगी.
उस ज़माने में वो तस्वीर खिंचवाने के लिए मॉडल को 250 रुपए दिए जाते थे. विनोद मेहता लिखते हैं, "मेरे लखनऊ के दोस्तों को ये ग़लतफ़हमी हो गई कि डेबोनॉएर में छपने वाली हर अर्धनग्न महिला के साथ मेरे यौन संबंध बन चुके हैं. उन्हें पूरा यकीन था कि डेबोनॉएर में छपने की शर्त ही मेरे साथ यौन संबंध बनना है. मेरा एक स्कूल का दोस्त जब मेरे बंबई के फ़्लैट पर आया तो उसे मेरी बाहों में युवा लड़की न पा कर उसे बहुत निराशा हुई. उसने मेरे फ़्लैट हर कमरा देखने के बाद मुझसे पूछा, लड़कियां कहां हैं?"
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नामी लोगों को डेबोनॉएर से जोड़ा
डेबोनॉएर के साथ एक दिक्कत ये भी थी कि कोई उसे गंभीरता से नहीं लेता था. लोग उसके लिए लेख लिखना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते थे. नतीजा ये होता था कि विनोद मेहता अलग-अलग नामों से पत्रिका के सभी लेख लिखा करते थे. फिर धीरे धीरे सभी बड़े लेखक इस पत्रिका से जुड़ने लगे.
मारियो मिरांडा इसके लिए नियमित रूप से कार्टून बनाने लगे. अनिल धारकर ने नियमित कॉलम लिखना शुरू किया. इक़बाल मसूद पत्रिका के फ़िल्म आलोचक बन गए. ख़्वाजा अहमद अब्बास डेबोऩएर के लिए लिखने लगे और नामी क्रिकेट लेखक बॉबी तल्यार ख़ां ने नया कॉलम शुरू किया, 'हाऊ इज़ दैट.'
इस बीच विनोद मेहता ने मीना कुमारी और संजय गांधी पर दो किताबें भी लिखीं. लेकिन विनोद मेहता ने सबसे ज़्यादा नाम कमाया जब वो आउटलुक के संपादक बने. उन्होंने 17 सालों तक इस पद पर काम किया.
इससे पहले वो कुछ दिनों तक संडे ऑबज़र्वर, द इंडियन पोस्ट और पॉयनियर के संपादक भी रहे.
एम जे अकबर ने उनके बारे में एक दिलचस्प बात कही थी, "विनोद ने अपने करियर की शुरुआत संपादक के तौर पर की थी और अंत भी संपादक के तौर पर ही किया. उन्होंने कभी भी 'डिमोशन'नहीं लिया जो कि एक बड़ी बात थी."
एक जनतांत्रिक संपादक
जब वो आउटलुक के संपादक हुआ करते थे, वहां रोज़ होने वाली संपादकीय बैठक बहुत जल्द ख़त्म हो जाती थी.
उनके साथ छह सालों तक काम कर चुकी स्मिता गुप्ता बताती हैं, "अगर आप अपने आइडिया एक अच्छी हेडलाइन के साथ नहीं पिच करते थे तो उनकी दिलचस्पी आप में ख़त्म हो जाती थी. जब आप अपनी कहानी ख़त्म कर लेते थे तो उनको पता होता था कि किस एंगल को ज़्यादा विस्तार देना है. वो हमेशा आपको वो कहने के लिए प्रोत्साहित करते थे जिसे कहने में आप झिझक रहे हों."
वो कहती हैं, "वो बहुत ही लोकतांत्रिक शख़्स थे. आप उनको बिना नाराज़ किए हुए उनसे असहमत हो सकते थे. अगर कभी उन्हें लगता था कि उन्होंने किसी रिपोर्टर के आकलन पर असहमति दिखा कर ग़लती की है तो वो उससे माफ़ी भले ही न मांगे लेकिन वो उसे बड़े असाइनमेंट पर भेज कर अपनी ग़लती सुधारते थे."
मुट्ठी भींच कर पैसा ख़र्च करते थे विनोद
विनोद मेहता को पीले रंग की कमीज़ें पहनने का बहुत शौक था. बहुत से अख़बारों को राडिया टेप के अस्तित्व के बारे में जानकारी थी लेकिन विनोद मेहता अकेले शख़्स थे जिन्होंने उन्हें प्रकाशित करने का जोख़िम उठाया.
इसका नतीजा ये हुआ कि टाटा ने उनकी पत्रिका से सभी विज्ञापन वापस ले लिए और पत्रिका के मालिकों से उनके रिश्ते ख़राब हो गए.
जब विनोद मेहता को लगता था कि कोई कहानी लिखने लायक है तो उनकी आंखों में एक ख़ास किस्म की चमक आ जाया करती थी. तब वो अपने रिपोर्टर को उस कहानी के पीछे न सिर्फ़ दौड़ने की इजाज़त देते थे बल्कि उसके साथ खुद भी भागते थे. कंप्यूटर पर उनका हाथ तंग था. वो अपनी सारी कहानियां हाथ से कागज़ पर लिखा करते थे.
उनको नज़दीक से जानने वाले सुनील सेठी बताते हैं, "विनोद मेहता मुट्ठी भींच कर पैसा ख़र्च करने में यक़ीन करते थे. इसलिए उनके यहां काम करने वालों की तन्ख्वाह कम हुआ करती थी. इस मामले में वो फ़िल्म प्रोड्यूसर इस्माइल मर्चेंट की तरह थे जो बहुत कम पैसे देकर दुनिया के बेहतरीन कलाकारों से अपनी फ़िल्म के लिए काम करवा लिया करते थे. मेरी आज तक समझ में नहीं आया कि कम पैसे देने के बावजूद एक से एक अच्छे पत्रकार उनके लिए काम करने के लिए कैसे तैयार हो जाते थे."
टीवी को प्रिंट से कमतर मानते थे विनोद
हांलाकि विनोद को अक्सर टीवी चैनलों की बहस में देखा जाता था लेकिन उन्होंने इस माध्यम को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया.
एक बार उन्होंने खुद कहा था, "टीवी की बहस में भाग लेने वाले ज़्यादातर लोग मुझसे जूनियर हैं. मैं उनपर चिल्लाकर ये नहीं कहना चाहता कि आप ग़लत हैं. मुझे अपनी आवाज़ ऊंची करना बिल्कुल पसंद नहीं. मैंने कम से कम 500 टीवी शो किए होंगे लेकिन आज भी टीवी पर जाते समय मैं बहुत नर्वस होता हूँ. और फिर 90 मिनट के डिबेट में आपको बोलने के लिए तीन चार मिनट ही मिलते हैं."
उनके साथ दस सालों तक काम कर चुके संदीपन देब कहते हैं, "विनोद हमेशा काम और ज़िम्मेदारी को नीचे तक बांटते थे. वो कहा करते थे, मैं तो सिर्फ़ गोलकीपर हूँ और आप सब डिफ़ेंडर हैं. जब गेंद आपको छकाती हुई आएगी तभी मैं गेद को पकड़ूंगा. इससे पहले गेंद आपकी है."
वो कहते हैं, "उनके साथी उनकी इज़्ज़त इसलिए भी करते थे कि वो अपनी पत्रिका में ऐसी कहानियां और विचार छापते थे जिससे वो निजी तौर पर सहमत नहीं होते थे. वो अपनी संपादकीय भूमिका को एक ऑर्केस्ट्रा के कंडक्टर की तरह समझते थे जिसमें उन्हें सबको बराबर की आवाज़ देनी है."
पत्रकारिता के लिए डिग्री ज़रूरी नहीं
अपनी आत्मकथा में विनोद मेहता ने अपने छह हीरो गिनाए हैं, सचिन तेंदुल्कर, ख़्वाजा अहमद अब्बास, जॉनी वॉकर, अरुंधति रॉय, खुशवंत सिंह और रस्किन बॉन्ड.
जब उनके प्रकाशक ने उनसे कहा कि इस लिस्ट में एक राजनेता का नाम डाल दीजिए, तो विनोद मेहता ने बहुत सोच कर जवाब दिया, कोई भी राजनेता इस लिस्ट में जगह पाने लायक नहीं है.
अपने बारे में विनोद मेहता का कहना था, "मैं बहुत पढ़ा लिखा नहीं हूं. मैंने किसी जनसंचार इंस्टीट्यूट में ट्रेनिंग नहीं ली है. मेरा मानना है कि आप सिर्फ़ कुछ पाठ्यपुस्तकों को रट कर बड़े पत्रकार नहीं बनते, न ही कहीं पत्रकारिता की डिग्री लेकर आपको पत्रकारिता आती है. एक मीडिया गुरू हारोल्ड इवांस हुए हैं जिन्होंने एक अच्छे पत्रकार बनने के दस गुर बताए हैं. ये सब बकवास है. ऐसे कोई गुर हैं ही नहीं. इस पेशे में आपको फ़्रैंक सिनात्रा की तरह सब चीज़ें अपनी तरह से करनी होती हैं."
लखनऊ ब्वॉए में उन्होंने लिखा था, "किसी भी जनतंत्र में पत्रकार एक विधायक की तरह काम करता है. एक विधायक होने के लिए किसी डिग्री की ज़रूरत नहीं. रोलिंग स्टोन पत्रिका के स्टार रिपोर्टर मैट तैय्यही कहा करते थे, अगर आपके पास कोई वास्तविक ज्ञान नहीं है और आप कामचोर हैं लेकिन फिर भी अच्छी तन्ख़्वाह पाना चाहते हैं, तब पत्रकारिता आपके लिए एक बुरा करियर विकल्प नहीं है."
वो लिखते हैं, "हमारे ज़माने के एक बड़े लेखक जोज़ेफ़ कॉनराड मानते हैं, पत्रकार बनने के लिए सिर्फ़ एक गुण ज़रूरी है, चीज़ों को देखने की क्षमता. अगर आप चीज़ों को समझदारी पूर्वक देख सकते हैं तो ये पेशा आपके लिए है."
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अपने कुत्ते का नाम रखा 'एडिटर'
विनोद मेहता का मानना था कि पत्रकारों को राजनेताओं से दोस्ती नहीं करनी चाहिए.
वो कहा करते थे, "आप अपने दोस्तों के बारे में निष्पक्ष होकर कैसे लिख सकते हैं? एक राजनेता का काम सच्चाई से बचना, उन्हें एक ख़ास मोड़ देना और सच को छिपाना है जबकि पत्रकार का काम सच्चाई की तह तक पहुंचना है."
अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉन्सन के प्रेस सलाहकार बिल मोयर्स ने लिखा था "पिछले तीस सालों में मैंने उन लोगों के बारे में सच कहने का काम सीखा है जिनका काम ही सच को छिपाना है."
अख़बारनवीसी की दुनिया में विनोद मेहता का कोई गुरु नहीं था लेकिन वो दो पत्रकारों का बहुत सम्मान करते थे. एक थे मेनस्ट्रीम के संपादक निखिल चक्रवर्ती और दूसरे थे खुशवंत सिंह.
एडिटर शब्द से उन्हें इतना मोह था कि उन्होंने अपने कुत्ते का नाम 'एडिटर' रखा था.
विनोद ने लिखा था, "मेरा कुत्ता मेरा कहना नहीं मानता, ज़िद्दी है, वो समझता है कि उसे सब कुछ पता है. एक एडिटर के सारे गुण उसमें हैं. इसलिए ये नाम उसके लिए सबसे उपयुक्त है."
वो कहा करते थे, "ये कहना कि मैं एडिटर रहना पसंद नहीं करता, शायद दुनिया का सबसे बड़ा झूठ है. अगर भगवान मुझसे पूछे कि अगले जन्म में तुम क्या बनना चाहोगे, तो मैं निं: संकोच कहूंगा, 'एडिटर'."
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