महात्मा गांधी: हत्या से तीन दिन पहले 27 जनवरी को बापू कहाँ थे, क्या कर रहे थे?
कड़ाके की सर्दी में गांधी जहां गए, वहां किसी को उनके आने की भनक तक नहीं लगी थी. 27 जनवरी को भीषण सर्दी में सुबह काकी की दरगाह में पहुंचे. ज़ाहिर है, जब वे महरौली की तरफ़ निकले होंगे तो सफ़दरजंग एयरपोर्ट के आगे सन्नाटा होगा, हां, कुछ गांव अवश्य आबाद होंगे. रिंग रोड के आगे ग्रीन पार्क, हौज़ ख़ास, कौशल्या पार्क जैसे इलाक़े तो 50 के दशक के मध्य में बनने शुरू हुए थे.
दक्षिण दिल्ली के महरौली इलाक़े में रोज़ की तरह आज भी ज़िंदगी फिर से अपनी रफ़्तार से चलने लगी है.
क़ुतुबउद्दीन बख़्तियार काकी की दरगाह के आगे एक छोटा सा बाज़ार भी सज गया है. इधर दरगाह में चढ़ाई जाने वाली चादरों के अलावा तमाम चीज़ें बिक रही हैं.
लेकिन दरगाह के किसी भी मुलाज़िम को इस बात की जानकारी नहीं है कि 27 जनवरी 1948 को बापू यहाँ आए थे.
यह उनके जीवन का एक तरह से कह सकते हैं कि 'अंतिम काम' था.
दिल्ली में उस 27 जनवरी को भी आजकल की तरह से कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी लेकिन वे सुबह आठ बजने से पहले ही क़ुतुबउद्दीन बख़्तियार काकी (1173-1235 ईस्वी) की दरगाह पहुंच गए थे.
गांधी जी के साथ मौलाना आज़ाद और राज कुमारी अमृत कौर थे. ये सब अलबुर्कुर रोड (अब तीस जनवरी मार्ग) पर स्थित बिड़ला हाउस से काकी की दरगाह में गए थे.
वहां उर्स चलने के बावजूद माहौल में उत्साह नहीं था. कारण ये था कि महरौली के मुसलमानों की बड़ी आबादी दंगाइयों के हमलों से डर के कारण शहर के अन्य हिस्सों में चली गई थी. दरगाह से जुड़े अधिकतर मुलाज़िम भी भाग गए थे.
तो वे काकी की दरगाह में क्यों गए थे? दरअसल महात्मा गांधी 7 सितंबर, 1947 को कलकत्ता से दिल्ली आए थे, इधर सांप्रदायिक दंगे भड़के हुए थे.
गांधी नोआखाली और फिर कलकत्ता में दंगों को शांत करवाकर आए थे, तब दिल्ली में सरहद पार से हिन्दू- सिख शरणार्थी आ रहे थे, यहां के बहुत से मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे.
करोलबाग़,पहाड़गंज, दरियागंज, महरौली में मारकाट मची हुई थी.
गांधी दंगाग्रस्त क्षेत्रों का बार-बार दौरा कर रहे थे पर बात नहीं बन रही थी, गांधी जी के सहयोगी प्यारेलाल नैयर ' महात्मा गाँधी पूर्णाहुति' में लिखते हैं कि गांधी जी को 12 जनवरी 1948 को ख़बर मिली कि महरौली में क़ुतुबउदीन बख़्तियार काकी की दरगाह के बाहरी हिस्से को दंगाइयों ने क्षति पहुंचाई थी. ये सुनने के बाद उन्होंने अगले ही दिन से उपवास पर जाने का निर्णय लिया.
आम तौर पर माना जाता है कि बापू ने अपना दिल्ली में अंतिम उपवास इसलिए रखा था ताकि भारत सरकार पर दबाव बनाया जा सके कि वो पाकिस्तान को बँटवारे की शर्तों के अनुरूप 55 करोड़ रुपये अदा कर दे.
हालांकि बापू की पड़पोती सुकन्या भरतराम मानती हैं कि उनका उपवास दंगाइयों पर नैतिक दबाव डालने के लिए था ताकि वे मारकाट रोक दें.
गांधी जी ने 13 जनवरी को प्रात: साढ़े दस बजे अपना उपवास चालू किया. उस वक्त बिड़ला हाउस परिसर के बाहर मीडिया भी 'ब्रेकिंग' ख़बर पाने की कोशिश कर रही थी.
बापू के उपवास शुरू करते ही नेहरु जी और सरदार पटेल ने बिड़ला हाउस में डेरा जमा लिया. लार्ड माउंटबेटन भी उनसे मिलने के लिए बार-बार आने लगे.
बापू से अपना उपवास तोड़ने की अपील करने के लिए सैकड़ों हिन्दू, मुसलमान और सिख भी पहुंच रहे थे.
उनकी निजी चिकित्सक डा. सुशीला नैयर उनके गिरते स्वास्थ्य पर नज़र रख रही थीं, आकाशवाणी बापू की सेहत पर बुलेटिन प्रसारित कर रहा था.
उनके उपवास का असर दिखने लगा, दिल्ली शांत हो गई, तब बापू ने 18 जनवरी को अपना उपवास तोड़ा, इस तरह से 79 साल के बापू ने हिंसा को अपने उपवास से मात दी.
इसलिए गए थे दरगाह
इसके बाद बापू 27 जनवरी को भीषण सर्दी में सुबह काकी की दरगाह में पहुंचे. ज़ाहिर है, जब वे महरौली की तरफ़ निकले होंगे तो सफ़दरजंग एयरपोर्ट के आगे सन्नाटा होगा, हां, कुछ गांव अवश्य आबाद होंगे. रिंग रोड के आगे ग्रीन पार्क, हौज़ ख़ास, कौशल्या पार्क जैसे इलाक़े तो 50 के दशक के मध्य में बनने शुरू हुए थे.
उपवास के बाद वे बेहद कमज़ोर हो गए थे, युवा सुंदरलाल बहुगुणा उस दौरान उनकी प्रार्थना सभाओं में शिरकत करते थे.
वे बताते थे कि उपवास के बाद बापू का वज़न और भी कम लगने लगा था, बापू दरगाह पर मुसलमानों को भरोसा दिलाते थे कि उन्हें भारत में ही रहना है. उन्हें पाकिस्तान जाने का विचार छोड़ना होगा.
उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को भी निर्देश दिया कि दरगाह की तुरंत मरम्मत हो, लेकिन अफ़सोस कि अब दरगाह से जुड़े किसी ख़ादिम को यह जानकारी नहीं है कि बापू का काकी की दरगाह से किस तरह का गहरा रिश्ता रहा है.
सब यही कहते हैं- "हमारे बुज़ुर्गों को पता होगा जब गांधी जी यहां आए होंगे."
कहां है काकी की दरगाह
ख्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी की मज़ार क़ुतुब मीनार के क़रीब ही है. उनके दर पर दिल्ली वाले हाज़िरी देने पहुंचते हैं. वह ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के अध्यात्मिक उत्तराधिकारी और शिष्य थे. कहते हैं कि आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की भी चाहत थी कि उनकी क़ब्र बख़्तियार काकी की मज़ार के पास ही बने, मगर यह हो ना सका.
बहादुर शाह ज़फ़र जो हिंदुस्तान के बादशाह भले रहे हों, उन्हें बख़्तियार काकी के क़रीब तो क्या, मुल्क में दो ग़ज़ ज़मीन नहीं मिली. ज़फ़र को देश निकाला मिला, उनकी मौत बर्मा में हुई और उन्हें वहीं दफ़न कर दिया गया.
गांधी जब पहली बार 1915 में दिल्ली आए थे वे तब क़ुतुब मीनार को देखने गए थे, तब उनके साथ कस्तूरबा गांधी जी और हकीम अजमल ख़ान भी थे, तब वे सूफ़ी संत बख़्तियार काकी की दरगाह पर गए थे, इसके साक्ष्य नहीं मिलते.