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सावरकर, गांधी, राजनाथ सिंह, सत्य, अर्धसत्य या असत्य- फ़ैक्ट चेक

केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सावरकर पर एक किताब के विमोचन कार्यक्रम में कहा कि सावरकर ने अंग्रेज़ों से माफ़ी गांधी के कहने पर मांगी थी. सच क्या है? ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित एक पड़ताल.

By BBC News हिन्दी
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विनायक दामोदर सावरकर ने अंडमान की सेल्यूलर जेल में सज़ा काटते हुए अंग्रेजी हुक़ुमत के सामने जो मर्सी पिटिशन (दया याचिकाएँ) दायर कीं, क्या वो महात्मा गांधी के कहने पर लिखी और भेजी गई थीं?

अगर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के दावे को सच माना जाए तो बिल्कुल ऐसा ही हुआ था. ये दावा राजनाथ सिंह ने 12 अक्टूबर को सावरकर पर लिखी गई एक नई किताब के विमोचन के मौके पर किया था.

राजनाथ सिंह ने 'वीर सावरकर: द मैन हू कुड हैव प्रिवेंटेड पार्टिशन' नाम की किताब के विमोचन के समारोह में कहा, "सावरकर के ख़िलाफ़ झूठ फैलाया गया. कहा गया कि उन्होंने अंग्रेज़ों के सामने बार-बार दया याचिका दी, लेकिन सच्चाई ये है कि दया याचिका उन्होंने ख़ुद को माफ़ किए जाने के लिए नहीं दी थी, उनसे महात्मा गांधी ने कहा था कि दया याचिका दायर कीजिए. महात्मा गांधी के कहने पर उन्होंने दया याचिका दी थी."

इस बयान के बाद भारत में एक बहस छिड़ गई है. जहाँ एक तरफ विपक्षी पार्टियां इस बयान पर सरकार पर निशाना साध रही हैं, वहीं दूसरी ओर इतिहासकार भी इस बयान की सत्यता पर सवाल उठा रहे हैं.

नई किताब में ऐसा कोई ज़िक़्र नहीं

'वीर सावरकर: द मैन हू कुड हैव प्रिवेंटेड पार्टिशन' या 'वीर सावरकर: वह शख्स जो बंटवारे को रोक सकते थे' को उदय माहूरकर और चिरायु पंडित ने लिखा है.

उदय माहुरकर पत्रकार रह चुके हैं और फ़िलहाल भारत सरकार में सूचना आयुक्त के पद पर आसीन हैं.

बीबीसी ने उनसे पूछा कि क्या उनकी नई किताब में इस बात का ज़िक़्र है कि महात्मा गांधी के कहने पर वीर सावरकर ने अंग्रेज़ों के सामने दया याचिका दायर की. माहुरकर ने कहा, "नहीं, मेरी किताब में इसका ज़िक़्र नहीं है."

हमने उनसे जानना चाहा कि क्या वो अपनी किताब के भविष्य के संस्करणों में इस बात को शामिल करेंगे, तो उन्होंने कहा, "मैं इस बारे में तय करूँगा. आप मुझे ट्रैप (फँसाएं) न करें."

हमने माहूरकर से पूछा कि सावरकर पर किताब लिखते वक़्त उनके शोध में क्या राजनाथ सिंह के दावे वाली बात कहीं सामने आई?

इसके जवाब में उन्होंने कहा, "मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ कि मेरा सावरकर पर पूरा अध्ययन है. सावरकर के बारे में अभी भी कई तथ्य हैं जो लोगों को नहीं मालूम. सावरकर जी पर मेरा अध्ययन अभी पूरा नहीं हुआ है. मैं आगे जाकर दूसरी किताब भी लिख सकता हूँ और इस बात को शामिल भी कर सकता हूँ. मैं ये दावा नहीं करता कि मैं सावरकर के बारे में सब कुछ जानता हूँ."

माहूरकर ने इस बात के बारे में अपने साथी शोधकर्ताओं से बात करने के लिए कुछ समय माँगा और कुछ देर बाद बीबीसी से कहा, "वो बात सही है. बाबा राव सावरकर जो उनके भाई थे, वो गांधी जी के पास गए थे और गांधी जी ने उनको सलाह दी थी. किताब के अगले संस्करण में हम इस बात को शामिल करेंगे. गांधी जी से मिलने बाबा राव सावरकर के साथ आरएसएस के कुछ लोग भी गए थे. ये बात बाबा राव के लेखन में निकलती है."

क्या सावरकर विभाजन रोक सकते थे?

इस किताब का नाम काफ़ी दिलचस्प है- 'वीर सावरकर: द मैन हू कुड हैव प्रिवेंटेड पार्टिशन', जबकि सच ये है कि सावरकर उस व्यक्ति के तौर पर जाने जाते हैं जिन्होंने द्विराष्ट्र्वाद के सिद्धांत की बात सबसे पहले की.

मुस्लिम लीग ने 1940 के लाहौर अधिवेशन में मुसलमानों के लिए अलग देश की बात पहली बार कही थी, लेकिन सावरकर ऐसा पहले से कहते आ रहे थे. उन्होंने इससे तीन साल पहले 1937 में अहमदाबाद में साफ़ शब्दों में कहा था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं और दोनों का हक़ इस भूमि पर एक बराबर नहीं है.

इससे और पहले उन्होंने अपनी किताब 'हिंदुत्व: हू इज़ अ हिन्दू' में स्पष्ट तौर पर लिखा है कि राष्ट्र का आधार धर्म है और उन्होंने भारत को 'हिंदुस्थान' कहा. उन्होंने अपनी किताब में लिखा, "हिन्दुस्थान का मतलब हिन्दुओं की भूमि से है. हिन्दुत्व के लिए भौगोलिक एकता बहुत ज़रूरी है. एक हिन्दू प्राथमिक रूप से यहाँ का नागरिक है या अपने पूर्वजों के कारण 'हिन्दुस्थान' का नागरिक है.''

सावरकर ने 'हिन्दुत्व: हू इज़ अ हिन्दू' में लिखा है, ''हमारे मुसलमानों या ईसाइयों के कुछ मामलों में जिन्हें जबरन ग़ैर-हिन्दू धर्म में धर्मांतरित किया गया, उनकी पितृभूमि भी यही है और संस्कृति का बड़ा हिस्सा भी एक जैसा ही है, लेकिन फिर भी उन्हें हिन्दू नहीं माना जा सकता. हालाँकि हिन्दुओं की तरह हिन्दुस्थान उनकी भी पितृभूमि है, लेकिन उनकी पुण्यभूमि नहीं है. उनकी पुण्यभूमि सुदूर अरब है. उनकी मान्यताएं, उनके धर्मगुरु, विचार और नायक इस मिट्टी की उपज नहीं हैं.''

इस तरह सावरकर ने राष्ट्र के नागरिक के तौर पर हिंदुओं और मुसलमान-ईसाइयों को बुनियादी तौर पर एक-दूसरे से अलग बताया और पुण्यभूमि अलग होने के आधार पर राष्ट्र के प्रति उनकी निष्ठा को संदिग्ध माना.

भारत के विभाजन में भयावह हिंदू-मुस्लिम दंगों की बड़ी भूमिका थी. भारत का बँटवारा हिंदू-मुस्लिम एकता से ही रुक सकता था जिसकी कोशिश गांधी कर रहे थे, लेकिन उन्हें बुनियादी तौर पर एक दूसरे से अलग साबित करने में सावरकर ने बड़ी भूमिका निभाई थी.

क्या कहते हैं वीर सावरकर के वंशज?

रंजीत सावरकर वीर सावरकर के छोटे भाई डॉक्टर नारायण राव सावरकर के पोते हैं और मुंबई में 'स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक' से जुड़े हुए हैं. वे इस बात को नहीं मानते कि महात्मा गांधी के कहने पर वीर सावरकर ने दया याचिका दायर की थी.

राजनाथ सिंह के बयान के बारे में वे कहते हैं, "मुझे लगता है इसमें ज़बान फिसलने की बात हो सकती है. महात्मा गांधी ने अपने लेखों में याचिका दायर करने का समर्थन किया था. उन्होंने सावरकर बंधुओं की रिहाई पर दो लेख लिखे थे. गांधी ने कहा था कि हमारे बीच वैचारिक मतभेद हैं, लेकिन अगर सावरकर शांतिपूर्ण वार्ता के रास्ते पर आ रहे हैं तो हम उनका स्वागत करते हैं. उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि सावरकर एक महान देशभक्त हैं और वे अंडमान में रहकर मातृभूमि से प्यार करने की क़ीमत चुका रहे हैं."

रंजीत सावरकर का कहना है कि वीर सावरकर की याचिकाएं सिर्फ़ अपने लिए नहीं बल्कि अन्य सभी राजनीतिक बंदियों के लिए थीं. वे कहते हैं कि उस समय के गृह मंत्री रेजिनॉल्ड क्रैडॉक ने वीर सावरकर की एक याचिका के बारे में लिखा है, "यह दया के लिए एक याचिका है, लेकिन इसमें कोई खेद या पश्चाताप नहीं है."

रंजीत कहते हैं, "सावरकर ने जो किया उसे गांधी का समर्थन था और उसमें उनकी स्वीकृति थी. मुझे लगता है कि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का मतलब यही था."

इतिहास से छेड़छाड़?

विवादित बयान के बारे में गांधी शांति प्रतिष्ठान के चेयरमैन और गांधी के गहन अध्येता कुमार प्रशांत कहते हैं, "ऐसा न तो पहले देखा है न सुना है क्योंकि न ऐसा हुआ, और न कहीं इसके बारे में लिखा गया."

वो कहते हैं, "ये लोग इतिहास के नए-नए पन्ने लिखने की कला में बहुत माहिर हैं. मैं अक्सर कहता हूँ कि जिन लोगों के पास अपने इतिहास नहीं होते, वे लोग हमेशा दूसरों के इतिहास को अपनी मुट्ठी में करने की कोशिश करते हैं. राजनाथ जी ने बहुत हल्की बात कर दी है."

कुमार प्रशांत का कहना है कि गांधी का सावरकर के माफ़ीनामे से कभी कोई रिश्ता नहीं रहा है. वो कहते हैं, "अगर माफ़ीनामे जैसी कोई चीज़ गांधी जी के जीवन में होती तो उन्होंने ख़ुद भी अमल किया होता इस पर. उन्होंने न तो कभी माफ़ीनामा लिखा और न ही किसी दूसरे सत्याग्रही के लिए माफ़ीनामे का रास्ता बताया, इसलिए इस बात में किसी भी तरह की सच्चाई और ईमानदारी नहीं है. ये बहुत छिछली चीज़ें हैं, लेकिन ये दौर ही ऐसा चल रहा है कि इस तरह की बातें हो रही हैं."

नीलांजन मुखोपाध्याय की किताब द आरएसएस-आइकॉन्स ऑफ़ द इंडियन राइट
NILANJAN MUKHOPADHYAY
नीलांजन मुखोपाध्याय की किताब द आरएसएस-आइकॉन्स ऑफ़ द इंडियन राइट

'गांधी की हत्या से जुड़े धब्बे को धोने की कोशिश'

वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े नामों पर 'द आरएसएस: आइकन्स ऑफ़ द इंडियन राइट' नाम की किताब लिखी है.

वो कहते हैं कि सावरकर के ऊपर जो सबसे बड़ा विवाद है, वो महात्मा गांधी की हत्या से जुड़ा है. "उस मामले में सावरकर बरी हो गए, लेकिन उसके बाद बनाए गए कपूर कमीशन की रिपोर्ट में उन्हें पूरी तरह से दोषमुक्त नहीं माना गया और संदेह की सुई गांधी हत्याकांड में सावरकर के शामिल होने की ओर इशारा करती रही. यह सावरकर की विरासत का दाग़ है जिसे आज की सरकार धोने की कोशिश कर रही है."

साल 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के छठवें दिन विनायक दामोदर सावरकर को गांधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के शक़ में मुंबई से गिरफ़्तार कर लिया गया था. हालांकि उन्हें फ़रवरी 1949 में बरी कर दिया गया था.

मुखोपाध्याय कहते हैं, "राजनाथ सिंह का बयान कि गांधी जी के कहने पर सावरकर ने अंग्रेज़ों को माफ़ीनामा लिखा, उन पर लगे एक बड़े धब्बे को मिटाने की कोशिश है. अब एक ही चीज़ बचती है. कल कोई और नेता आएगा और कहेगा कि गोडसे ने भी गांधी जी के कहने पर बंदूक उठाई और उन्हें मार दिया."

उनका कहना है कि "हम इतिहास के मिथ्याकरण के समय में जी रहे हैं. हर दिन एक झूठ को बार-बार बोलकर उसे सत्य बना दिया जाता है."

मुखोपाध्याय के मुताबिक़ ये पूरा विवाद सुर्ख़ियों में इतिहास की बात करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है. वो कहते हैं, "इतिहास की बात सुर्ख़ियों में नहीं हो सकती. इतिहास के बारे में विस्तार से बात करनी होती है. मुझे लगता है कि ये कह देना कि गांधी जी के कहने पर सावरकर ने माफ़ीनामा लिखा, ऐतिहासिक तौर पर ग़लत है."

नीलांजन मुखोपाध्याय
BBC
नीलांजन मुखोपाध्याय

'हिंदुत्व' शब्द के रचयिता

इतिहासकारों के मुताबिक़, सावरकर की राजनीतिक ज़िन्दगी को साफ़ तौर पर दो अलग-अलग चरणों में बांटा जा सकता है.

मुखोपाध्याय कहते हैं, "पहला दौर शुरू होता है बीसवीं सदी के पहले दशक में जब वो एक युवा राष्ट्रवादी थे. विलायत गए और राष्ट्रवादी आंदोलनों में शामिल हुए जिसकी वजह से उनको कालापानी की सज़ा हुई और उन्हें अंडमान के जेल में भेजा गया."

उनके अनुसार, अपने राजनीतिक जीवन के इस दौर में सावरकर ने 1857 के बारे में एक बहुत महत्वपूर्ण किताब लिखी "जिसमें उन्होंने 1857 की क्रांति को हिन्दू-मुसलमान एकता का एक अद्वितीय उदाहरण बताया" और कहा था कि "हिन्दू और मुसलमान इकट्ठे हुए इसलिए अंग्रेज़ी शासन को इतना बड़ा झटका लगा था".

मुखोपाध्याय कहते हैं कि सावरकर के राजनीतिक जीवन के दूसरे दौर में उनका अंडमान जेल में रहकर हृदय परिवर्तन होता है और वो अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगते हैं.

वो कहते हैं, "उन्हें अंडमान जेल से तो छोड़ दिया गया, लेकिन नागपुर और पुणे की जेलों में रखा गया. चूँकि वो क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का हिस्सा थे, इसलिए उनकी लगातार चल रही न्यायिक हिरासत के ख़िलाफ़ काफी राष्ट्रवादी नेताओं ने आवाज़ उठाई थी और उन्हें छोड़े जाने के लिए अर्ज़ी दी थी."

लेकिन मुखोपाध्याय का कहना है कि जिस वजह से सावरकर आज तक विवाद में हैं, वो सेल्यूलर जेल में लिखी गई उनकी हस्तलिपि है जिसका नाम था 'हिंदुत्व: हम कौन हैं'. "इस दस्तावेज़ से प्रेरणा लेकर केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बनाया. हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा सावरकर के पहले से विकसित हो रही थी, लेकिन सावरकर को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने हिंदुत्व को अपनी किताब के ज़रिए कोडिफ़ाई किया. वही किताब हेडगेवार के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बनाने के लिए एक प्रेरक दस्तावेज़ बनी."

मुखोपाध्याय का मानना है कि सावरकर संगठन के नेता के रूप में अनुपयुक्त रहे और इसी वजह से वे कभी आरएसएस में शामिल नहीं हुए, "बल्कि वो आरएसएस के बहुत बड़े आलोचक थे".

वो कहते हैं, "1966 में अपनी मृत्यु तक उनके आरएसएस से बहुत ही ख़राब संबंध थे. सावरकर आरएसएस को एक महत्वहीन संगठन मानते थे. साथ ही वो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रितानी नीतियों के बड़े समर्थक थे. उन्होंने कहा कि हिंदुओं को ख़ुद को मज़बूत बनाने के लिए ब्रितानी फ़ौज में शामिल होना चाहिए. वो अपनी पूरी ज़िन्दगी में किसी अंग्रेज़ी शासन विरोधी आंदोलन में शामिल नहीं हुए. वो भारत छोड़ो आंदोलन तक में शामिल नहीं हुए."

ये अपने आप में एक विडंबना ही है कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनसंघ के सावरकर कभी सदस्य नहीं रहे, उसी संघ परिवार में उनका नाम बहुत इज़्ज़त और सम्मान के साथ लिया जाता है.

साल 2000 में वाजपेयी सरकार ने तत्कालीन राष्ट्पति के आर नारायणन के पास सावरकर को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' देने का प्रस्ताव भेजा था जिसे नारायणन ने अस्वीकार कर दिया था.

ग़ैर-ज़रूरी शोर-शराबा?

इतिहासकार और वीर सावरकर की जीवनी के लेखक विक्रम संपत ने एक ट्वीट के ज़रिए कहा कि इस बयान पर मचा शोर-शराबा ग़ैर-ज़रूरी है और वो अपनी किताब और कई साक्षात्कारों में ये पहले ही कह चुके हैं कि 1920 में गांधी जी ने सावरकर बंधुओं को याचिका दायर करने की सलाह दी थी और अपनी पत्रिका 'यंग इंडिया' में एक लेख के ज़रिए उनकी रिहाई के बारे में बात की थी.

https://twitter.com/vikramsampath/status/1448149160138395649?s=20

यंग इंडिया में गांधी ने जो लेख लिखा था उसका शीर्षक था "सावरकर बंधु" और उसमें कई बातों के साथ उन्होंने यह भी लिखा था कि "वे दोनों स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वे ब्रिटिश राज से स्वतंत्रता नहीं चाहते. इसके विपरीत, उन्हें लगता है कि अंग्रेज़ों के सहयोग से भारत की नियति सबसे अच्छी तरह से बनाई जा सकती है."

शम्सुल इस्लाम दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ा चुके हैं और 'सावरकर-हिन्दुत्व: मिथक और सच' नाम की किताब के लेखक हैं. इसी किताब के अंग्रेज़ी संस्करण का नाम है 'सावरकर अनमास्क्ड'.

वो कहते हैं कि सावरकर ने 1911 में सेल्यूलर जेल जाते ही पहले ही साल दया याचिका दायर की. उसके बाद उन्होंने साल 1913, 1914, 1918, 1920 में दया याचिकाएं दायर कीं.

इस्लाम कहते हैं, "दया याचिका दायर करना कोई गुनाह नहीं होता. ये क़ैदियों का अपनी शिकायत दर्ज कराने का एक अधिकार है. लेकिन सावरकर के माफ़ीनामे घुटने टेकने वाले हैं. बहुत से इंक़लाबी जिन्हें काला पानी में फांसी पर लटका दिया गया, पागल हो गए या जिन्होंने ख़ुदकुशी कर ली, उनमें भी किसी ने माफ़ीनामे नहीं लिखे."

वीर सावरकर
savarkarsmarak.com
वीर सावरकर

इस्लाम के मुताबिक़ माफ़ीनामे सिर्फ़ चार लोगों ने लिखे जिनमें सावरकर, अरबिन्दो घोष के भाई बारिंद्र घोष, ऋषिकेश कांजीलाल और गोपाल शामिल थे.

वो कहते हैं, "ऋषिकेश कांजीलाल और गोपाल की याचिकाओं में कहा गया कि वे राजनीतिक क़ैदी हैं और उनके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए. ये बिल्कुल जायज़ याचिकाएं थीं जिनका तकनीकी नाम दया याचिका है. लेकिन सावरकर और बारिंद्र घोष की याचिकाएं शर्मनाक हैं."

शम्सुल इस्लाम के अनुसार हिन्दू महासभा और आरएसएस के कई लोगों ने सावरकर की जीवनी लिखी है, लेकिन उनमें ये कहीं भी ज़िक़्र नहीं है कि गांधी जी के कहने पर उन्होंने याचिकाएं दायर की थीं.

वो कहते हैं, "सबसे शर्मनाक माफ़ीनामा 14 नवम्बर 1913 का है और गांधी जी भारत की राजनीति में 1915 के अंत में आए. तो ये समझना बहुत ज़रूरी है कि गांधी के कहने की वजह से माफ़ीनामा लिखने की बात बिल्कुल अर्थहीन है."

इस्लाम के मुताबिक गांधी ने 'यंग इंडिया' में सावरकर के माफ़ीनामों पर एक लेख लिखा जिसमें कहा कि "सावरकर जैसे लोगों ने माफ़ीनामे लिख कर नैतिक बल भी खो दिया."

इस्लाम का मानना है कि इस तरह के विवादास्पद बयानों से गांधी का अपमान करने की कोशिश की जा रही है. वो कहते हैं, "ये लोग गांधी जी को घसीट कर नाथूराम गोडसे और सावरकर के बराबर ले आना चाहते हैं."

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English summary
facts of rajnath singh comment on savarkar
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