अमेरिका की नई तिब्बत नीति से चिढ़ गया है चीन, भारत क्यों चुप है ?
नई दिल्ली- तिब्बत पर अमेरिकी सीनेट ने पिछले ही हफ्ते एक नया विधेयक पारित किया है- दि तिब्बत पॉलिसी एंड सपोर्ट ऐक्ट ( Tibet Policy and Support Act,), जिसके चलते पहले से ही मुश्किल दौर से गुजर रहे अमेरिका (US) और चीन (China) के संबंध और बिगड़ने के आसार पैदा हो गए हैं। क्योंकि, चीन तिब्बत (Tibet) को अपना आंतरिक मामला बताता रहा है और ऐसे में वहां को लेकर अमेरिकी नीति बेहद महत्वपूर्ण बदलाव वह कैसे मंजूर कर सकता है, जिसकी वजह से उसे तिब्बत पर अपनी पकड़ ढीली होने का खतरा महसूस हो। अमेरिकी प्रतिनिधि सभा इस बिल को पिछले जनवरी में ही पास कर चुकी है और अब इसपर सिर्फ अमेरिकी राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने बाकी हैं। नए अमेरिकी कानून में तिब्बत में दलाई लामा (Dalai Lama)की नियुक्त और तिब्बत के नदियों के जल को लेकर भी अमेरिका ने अपनी नीति में बहुत बड़ा बदला किया है, जो चीन को बहुत ही ज्यादा चिढ़ा रहा है।
तिब्बत पर और बिगड़ेगी चीन की अमेरिका से बात!
अमेरिका में तिब्बत को लेकर बना नया कानून दि तिब्बत पॉलिसी एंड सपोर्ट ऐक्ट ( Tibet Policy and Support Act,) या TSPA में अमेरिकी प्रशासन को तिब्बत को लेकर ज्यादा सख्त पाबंदियां लगाने का अधिकार मिलने वाला है, जिसमें चीन के अधिकारियों के अमेरिका यात्रा पर पाबंदियां भी शामिल है। अभी तक अमेरिका में जो भी सरकारें रही हैं वह तिब्बत (Tibet)और दलाई लामा (Dalai Lama)और चीन (China) के मसले पर बहुत ही सावधानी से कदम उठाते रहे हैं। अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट में तिब्बत को लेकर एक अलग विभाग बना हुआ है, जिसमें मानवाधिकारों और धार्मिक आजादी पर वार्षिक रिपोर्ट आती है। लेकिन, यह चीन पर कभी भी दलाई लामा से बातचीत या राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए दबाव नहीं बनाता। लेकिन, नए कानून में स्थिति बदल गई है।
इस साल बेहद खराब हो चुके हैं दोनों देशों के संबंध
अनुमान जताए जा रहे हैं कि साल 2028 तक चीन अमेरिका को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था (Biggest Economy) बनने जा रहा है। ऐसी खबरें उस वक्त में आई हैं जब करीब दो दशकों से तनावपूर्ण रहे अमेरिका-चीन के संबंधों में डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) के कार्यकाल और खासकर 2020 में तो अप्रत्याशित कड़वाहटें पैदा हो गई हैं। इसकी वजहें कोरोना वायरस (Covid 19) महामारी से लेकर, ट्रेड वॉर (Trade War) और चीन के सुपरपावर बनने के मंसूबों पर लगाम लगाने के लिए दुनिया भर के देशों के साथ बढ़ते अमेरिकी तालमेल हैं। ऊपर से इसी महीने अमेरिका ने अपने देश में चाइनीज निवेश पर लगाम कसने के लिए फौरेन कंपनीज एकाउंटिंग ऐक्ट अलग से बना लिए हैं। इसी साल अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हॉन्क कॉन्ग ऑटोनोमी ऐक्ट पर भी हस्ताक्षर कर चुके हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि ट्रंप तिब्बत पर लेकर बनी नीति पर भी हस्ताक्षर के लिए जो बाइडेन का इंतजार नहीं करेंगे।
दलाई लामा के अवतार पर चीन की चालबाजी दरकिनार
तिब्बत पर अमेरिका के नए कानून में सबसे अहम बात ये है कि इसमें चीन की ओर से जबरन ल्हासा पर अपना दलाई लामा थोपने पर विरोध करने का प्रावधान है। टीएसपीए (TSPA) में साफ कहा गया है कि 'तिब्बती बौद्ध धर्म का उत्तराधिकारी या दलाई लामा समेत तिब्बती बौद्ध लामा की पहचान बिना किसी दखलंदाजी (चीन की)' के होना चाहिए। जबकि, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (CPC) की सरकार की ओर से बार-बार स्पष्ट किया जा चुका है कि 'दलाई लामा समेत बुद्ध के सारे अवतार चीन के कानूनों और नियमों के मुताबिक होने चाहिए और धार्मिक अनुष्ठानों और ऐतिहासिक परंपराओं का पालन करना चाहिए....'अमेरिका की नई नीति में 1995 में चीन के द्वारा 6 साल के बच्चे को 11वें पंचेन लामा घोषित करने और मौजूदा दलाई लामा की ओर से दलाई लामा के चुनाव की परंपरा के बारे में दी गई विस्तृत जानकारी का भी हवाला दिया गया है, जिसमें वो साफ कह चुके हैं कि दलाई लामा के नए अवतार की पहचान करने का अधिकार सिर्फ उनके और उनके अधिकारियों के पास है। अमेरिकी कानून में इसका भी प्रावधान किया गया है कि अगर चीन की ओर से दलाई लामा को परंपरा से हटकर थोपने की कोशिश की गई तो उसके लिए जिम्मेदार चीन के वरिष्ठ अधिकारियों को दोषी माना जाएगा और उनके खिलाफ मानवाधिकार कानूनों के तहत पाबंदी लगाई जाएगी।
ल्हासा में अमेरिकी कॉन्सुलेट खोलने की बात
अमेरिका की नई तिब्बत नीति में तिब्बत के पठार के पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर तिब्बत के स्थानीय लोगों की भागीदारी के साथ ही व्यापक अंतरराष्ट्रीय सहयोग पर भी जोर दिया गया है। इसमें चीन पर आरोप लगाया गया है कि वह तिब्बत के जल संसाधनों की दिशा मोड़ रहा है। इसमें तिब्बत से निकलने वाली नदियों को लेकर उसकी तट पर बसे देशों के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने पर भी जोर है। चीन को जिस बात की सबसे ज्यादा मिर्ची लगने की आशंका है वह ये कि 2002 में अमेरिका में तिब्बत को लेकर जो कानून था, उसमें ल्हासा में उसकी ओर से एक ब्रांच ऑफिस खोलने की बात थी। लेकिन, नए कानून में सीधे कॉन्सुलेट खोलने की बात है। यह कानून दलाई लामा के अधीन चल रहे सेंट्रल तिब्तियन एडमिनिस्ट्रेनशन (CTA) को भी मान्यता देता है, जिसके प्रेसिडेंट लॉबसांग सैंगे हैं और वो अमेरिकी पहले से बेहद उत्साहित हैं। उन्होंने कहा है,'TPSA पास करके अमेरिकी कांग्रेस ने यह साफ संदेश दिया है कि अमेरिका के लिए तिब्बत प्राथमिकता है और वह तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा और सीटीए का समर्थन करता रहेगा। तिब्बती लोगों के लिए यह एक ऐतिहासिक क्षण है।'
चीन ने किया है विरोध
चीन पहले ही कह चुका है कि टीपीएसए, 'अंतरराष्ट्रीय कानूनों और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर बने नियमों का घनघोर उल्लंघन है....यह चीन के आंतरिक मामले में दखलंदाजी है और तिब्बत की आजादी चाहने वाले ताकतों में गलत संदेश देता है।' सीनेट से पास होने के बाद चीन का कहना है कि वह इसका विरोध करता है और 'तिब्बत, ताइवान और हॉन्ग कॉन्ग...चीन का आंतरिक मसला है, जिसमें किसी बाहरी दखलंदाजी का इजाजत नहीं है।' चीन ने अमेरिका से सख्त शब्दों में उसके मामलातों में दूर रहने को कहा है।
तो इसलिए चुप है भारत
लेकिन, अगर यह पूछा जाए कि भारत को तो नए अमेरिकी कानून पर खुश होना चाहिए तो ऐसा खुलकर नहीं कहा जा सकता। भारत ने तिब्बत को लेकर चीन के साथ बहुत ही सतर्क नीति अपना रखी और वह तिब्बत कार्ड खुलकर खेलने से अबतक परहेज करता रहा है। अबतक अमेरिका की तरह ही उसने वन चाइना पॉलिसी अपना रखी है। शायद यही वजह है कि अमेरिकी कानून से खुश होते हुए भी भारत इसका खुलकर इजहार करने से बच रहा है। वैसे ऐसा सिर्फ इसी साल देखने को मिला है कि उसने पूर्वी लद्दाख में चीन की सेना के खिलाफ पैंगोंग झील के साउथ बैंक पर खुलकर अपने स्पेशल फोर्स का इस्तेमाल किया है,जो मूल रूप से तिब्बती शरणार्थियों से बनी ही एक बेहद लड़ाका सैन्य टुकड़ी है। इस फोर्स ने चीनी पीपुल्स आर्मी के छक्के छुड़ा दिए थे।