Gaur jayanti Special: महिलाओं को वकालत का हक दिलाने वाले डा.गौर
सागर। भारत की अदालतों में वकालत कर रही महिला वकीलों को जिस एक शख्स का सबसे ज्यादा एहसानमंद होना चाहिए वो हैं डा. सर हरि सिंह गौर। यह दुर्लभ तथ्य है कि डा. गौर ने ही नागपुर लेजिस्लेटिव असेंबली में वकालत प्रोफेशन में लैंगिक भेद खत्म करने के लिए 28 फरवरी 1923 को बिल पेश किया, जमकर बहस की और लीगल प्रैक्टिशनर (वूमन) एक्ट 1923 को भारी बहुमत से पास करवाया।
डा.गौर के पास यह मामला पटना के मशहूर वकील मधुसूदन दास लेकर गये थे। हुआ यह कि ला की डिग्री लेकर आईं सुधांशु बाला हाजरा ने 28/11/1921 को पटना हाईकोर्ट में प्रैक्टिस हेतु एनरोल करने का आवेदन दिया। इस आवेदन को पटना हाईकोर्ट की फुलबेंच ने निरस्त कर दिया।हाजरा और उनके वकील मधुसूदन दास ने चीफ जस्टिस से लेकर सभी सक्षम अथारिटी तक लिखापढ़ी की लेकिन उन्हें निराशा ही मिली। तब दास को देश के महान कानूनविद डा. हरिसिंह गौर की याद आई जो उस समय नागपुर लेजिस्लेटिव असेंबली के सदस्य थे। दास ने डा. गौर के सामने समस्या को रखा। डा. गौर की बेटियां भी बड़ी हो रही थीं। वे तुरंत समझ गये कि वकालत के पेशे में महिलाओं के लिए ज्यूडीशियरी के दरवाजे बंद हैं और उन्हें खुलवाने के लिए कानूनी प्रावधान होना चाहिए। हालांकि तीन माह पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंग्लैंड में लागू हुए 'सेक्स डिसक्वालिफिकेशन एंड रिमूवल एक्ट 1919' को आधार बना कर कारनेलिया सोराबजी को वकील के रूप में मान्यता दे दी थी लेकिन उनके अधिकार सीमित थे। सोराबजी अदालत में सीधे जिरह नहीं कर सकती थीं, वे अदालती मामलों पर अपनी राय बनाकर अदालत में पेश कर सकती थीं। डा. गौर को भी यह तथ्य मालूम था और उन्होंने कारनेलिया सोराबजी के कानूनी काम की सक्षमता को एक उदाहरण के रुप में असेंबली की बहस में इस्तेमाल किया।
डा.गौर
ने
1/2/1922
को
एक
संशोधन
प्रस्ताव
बनाकर
नागपुर
एसेंबली
में
मूव
किया।
इस
पर
बहस
करते
हुए
उन्होंने
कहा
कि,
'वकालत
के
पेशे
में
महिलाओं
के
खिलाफ
जो
गैरबराबरी
का
बर्ताव
हो
रहा
है
उसे
हटा
कर
उन्हें
प्रेक्टिस
करने
की
अनुमति
मिलना
चाहिए।
इसलिए
क्योंकि
यह
न्याय
का
प्रश्न
है,
किसी
के
पक्ष
विपक्ष
का
नहीं।
महिलाओं
ने
राष्ट्र
के
लिए
अतीत
में
गौरवपूर्ण
सेवाएं
विभिन्न
क्षेत्रों
में
दी
हैं
जिन्हें
देखते
हुए
वे
वकालत
के
क्षेत्र
की
भी
अधिकारी
हैं।'
मौलवी
अब्दुल
कासिम
दक्खा
ने
डा.गौर
के
प्रस्ताव
का
इस
तर्क
के
साथ
समर्थन
किया
कि
लाखों
पर्दानशीं
औरतों
को
सिर्फ
इसलिए
अदालती
इंसाफ
नहीं
मिल
पा
रहा
क्योंकि
वे
पुरूष
वकीलों
से
बात
नहीं
कर
सकतीं,
इसलिए
अपने
मामले
अदालत
में
नहीं
लातीं।
यदि
औरतों
को
वकालत
करने
की
छूट
मिले
तो
उनको
इंसाफ
का
रास्ता
साफ
हो।
इस
संशोधन
विधेयक
पर
चली
बहस
के
आधार
पर
एक
पृथक
विधेयक
28/2/1923
को
सदन
में
लाकर
भारी
बहुमत
से
पास
कर
दिया
गया।
इस
कानून
के
आधार
पर
कारनेलिया
सोराब
जी
का
विधिवत
रजिस्ट्रेशन
1924
में
हुआ
और
वे
पहली
महिला
वकील
कहलायीं।
लेकिन
अदालतों
के
महिलाओं
की
कानूनी
योग्यताओं
के
बारे
में
पूर्वाग्रह
और
दुश्वारियों
तब
भी
बहुत
थीं।
इसलिए
5
साल
बाद
ही
कारनेलिया
वकालत
छोड़
कर
घर
बैठ
गयीं।
डा. हरिसिंह गौर ने अपनी बेटी स्वरूप कुमारी को 1931 में को लीगल एजूकेशन के लिए इंग्लैंड के इनर टेंपल में वहीं भेजा जहां से उन्होंने कानून पढ़ा था। कानून की डिग्री लेकर आईं स्वरूप कुमारी को इंग्लैंड के बार ने सम्मान पूर्वक वकालत के लिए आमंत्रित किया। लेकिन प्रारब्ध ने कुछ और तय किया था। वहां विलियम ब्रूम से स्वरूप का प्रेम हुआ। शादी हुई। ब्रूम भारत आकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार और जस्टिस बने। उनकी पत्नी के रूप में डा. गौर की बेटी स्वरूप कुमारी ने भारत में कभी लीगल प्रैक्टिस नहीं की। वे डा. ब्रूम के न्यायिक कार्यों में अपने घर पर ही रहकर मदद करती रहीं और एक साधारण गृहिणी का जीवन जीती रहीं। 1970 में मि. ब्रूम के रिटायरमेंट के बाद एक दिन इलाहाबाद के बाशिंदों ने देखा कि मि. ब्रूम के बंगले का पूरा छोटा बड़ा सामान लान में करीने से रखा है। हरेक सामान पर उसकी कीमत का टैग चिपका हुआ है। सामान के साथ एक एकाउंटेंट सरीखा बैठा था। लोग आते और बिना बहस किए टैग देख कर सामान खरीद कर ले जाते रहे। इंग्लैंड लौटते हुए ब्रूम परिवार सिर्फ निजी यादगार चीजें, रिफरेंस और गहने आदि ही ले गया।
लोगों में जिज्ञासा होती है कि लेखक को यह सब कैसे पता हो रहा है?...तो इसका एक उदाहरण देता हूं। इलाहाबाद में सेंट्रल इंटेलीजेंस के एक रिटायर्ड अधिकारी सुरेंद्र श्रीवास्तव डा.गौर पर मेरे लेखों को तबियत से पढ़ रहे हैं। वे लंबे समय सागर में पदस्थ रहे हैं और मेरे घनिष्ठ रहे हैं। लेखों को पढ़कर श्रीवास्तव जी ने मुझे फोन किया। चर्चा के बाद डा.गौर की बेटी का इतिहास खोजने श्रीवास्तव जी इलाहाबाद हाइकोर्ट के म्यूजियम में अब भी काम कर रहे 93 साल के श्री अहद साहब से मिले जो मि. ब्रूम के पीए रह चुके थे। इन बुजुर्गों ने अपनी याददाश्त के सहारे इलाहाबाद हाइकोर्ट स्थापना के शताब्दी वर्ष पर छपी स्मारिका से एक लेख, तस्वीरें और संस्मरण उपलब्ध कराये जो मुझ तक पहुंचे। ...तो ऐसे ऐसे डा. गौर के प्रेमी इस पूरी दुनिया में फैले हुए हैं जो डा.गौर के लिए वृद्धावस्था में भी घर से निकलकर हाईकोर्ट परिसर में जाकर रिफरेंस तलाश कर सकते हैं। ...और ध्यान रहे कि ये लोग रिसर्च स्कालर नहीं हैं। मुझे भी दोबारा पीएचडी या डीलिट की लालसा नहीं। मैं यह सब इसलिए लिख रहा हूं कि डा. गौर ने ही मुझे इतना सब कर पाने के लिए सक्षम बनाया है। डा.गौर के कर्ज का सिर्फ सूद ही चुका सकूं।
पहला भाग- गौर जयंती विशेष: हरिसिंह होने के मायने
दूसरा भाग- Gaur Jayanti Special: पिता का फैसला और भाई का आधार
तीसरा भाग- Gaur jayanti special: समाज से बहिष्कृत और जाति से परे डा.गौर