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Nepal Government: नेपाल में ‘प्रचंड’ सरकार, जानें कैसे चीन और अमरीका जमा रहे अपना प्रभाव

नेपाल में बड़ा राजनीतिक उलटफेर हुआ है। अब देउबा की जगह प्रचंड वहां सरकार बनायेंगे।

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Nepal Government: भारत के पड़ोसी देश नेपाल को उसका नया प्रधानमंत्री मिल गया। 25 दिसंबर को इस बात की घोषणा हो गई कि नेपाल के नये पीएम, पुष्पकमल दहल 'प्रचंड' होंगे। प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने के पीछे एक बड़ा ट्वीस्ट है। दरअसल, कल तक जहां सबको लग रहा था कि प्रचंड की पार्टी के समर्थन से शेख बहादुर देउबा फिर से प्रधानमंत्री बनेंगे। वहीं प्रचंड बड़ा दांव खेलते हुए पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली से हाथ मिलाकर खुद प्रधानमंत्री बन गये। यह समझौता ढाई-ढाई साल की नीति पर आधारित है। इस प्रकार पहले ढाई साल पुष्षकमल दहल प्रचंड बनेंगे, फिर केपी ओली होंगे प्रधानमंत्री।

तीसरी बार लेंगे प्रधानमंत्री पद की शपथ

पुष्प कमल 'प्रचंड' अपने जीवन में तीसरी बार पीएम बनेंगे। उन्हें 6 दलों के 169 सदस्यों वाले गठबंधन का समर्थन मिला है। इसमें सीपीएन-यूएमएल के 78, माओवादी सेंटर के 32, राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी के 20, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के 14, जनता समाजवादी पार्टी के 12, जनमत पार्टी के 6, नागरिक उन्मुक्ति पार्टी के 4 सांसद और 3 निर्दलीय प्रतिनिधि शामिल हैं। गौर करने वाली बात यह है कि प्रचंड की पार्टी ने यह चुनाव शेर बहादुर देउबा की पार्टी नेपाली कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा था लेकिन प्रधानमंत्री पद पर सहमति न बन पाने की वजह से प्रचंड ने अपने विरोधी ओली का साथ ले लिया।

नेपाल की विदेश नीति

वैसे नेपाल को लंबे समय से भारत के साथ मित्रता का लाभ मिलता रहा है, लेकिन माओवादी और वामपंथी संगठनों के दबाव में आकर नेपाल कभी चीन तो कभी अमरीका एवं यूरोप के प्रभाव में आ जाता है। इसमें विदेशों से मिल रही आर्थिक सहायता की बड़ी भूमिका रहती है।

साल 2022 में नेपाल सरकार ने यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएसएआईडी) से 65.9 करोड़ अमेरीकी डॉलर की अनुदान सहायता स्वीकार की। 65.9 करोड़ अमरीकी डॉलर के अनुदान के अलावा, नेपाल सरकार ने विश्व बैंक समूह के अंतरराष्ट्रीय विकास संघ से 15 करोड़ अमेरीकी डॉलर के रियायती ऋण स्वीकार करने का भी निर्णय लिया है।

इससे पहले अमेरिका ने इसी साल के फरवरी महीने में 50 करोड़ अमेरिकी डॉलर की सहायता नेपाल को दी थी। दरअसल 28 फरवरी को नेपाली संसद ने मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन (एमसीसी) के विवादास्पद 50 करोड़ अमेरिकी डॉलर की मदद को मंजूरी दे दी। नेपाल का मुख्य विपक्षी वामपंथी दल सीपीएन-यूएमएल इसका भारी विरोध कर रहा था, लेकिन देऊबा सरकार नहीं मानी। साल 2017 में ही एमसीसी ने नेपाल को 50 करोड़ डॉलर अनुदान देने का फैसला किया था लेकिन तब चीन समर्थक माने जाने वाले ओली प्रधानमंत्री थे और उनकी पार्टी के विरोध की वजह से मामला अटका पड़ा था।

चीन का बढ़ता असर

दो महीने पहले तक नेपाल से अमेरिका से करोड़ों डॉलर का अनुदान ले रहा था। वहीं जून महीने आते-आते अमेरिका को जोर का झटका लगा। दरअसल, अमेरिकी अनुदान लेने के बाद चीन ने नेपाल के खिलाफ सख्ती अपनानी शुरू कर दी। इसी दौरान नेपाल और अमेरिका के बीच होने वाले स्टेट पार्टनरशिप प्रोग्राम (एसपीपी) में शामिल होने से नेपाल ने इंकार कर दिया, जिसके बाद चीन खुश हो गया और नेपाल की पीठ थपथपाई।

अब आप पूछेंगे कि एसपीपी क्या है? तो आपको बता दें कि साल 2015 में जब नेपाल में भयंकर भूकंप आया था तब नेपाल के पास राहत और बचाव कार्यों के लिए कोई क्वीक रिस्पॉस टीम नहीं थी। तब नेपाल ने साल 2015 और 2017 में खुद अमेरिका से एसपीपी में शामिल होने का आग्रह किया था। जिसे अमेरिका ने साल 2019 में मंजूरी दी। उस समय दुनिया को ये जानकारी दी गई थी कि नेपाल की सेना ने अमेरिकी सरकार को एसपीपी के तहत मदद देने का आग्रह किया है ताकि आपदा प्रबंधन में उससे मदद मिल सके।

इस मामले पर चीन इस मामले का विरोध इसलिए कर रहा था कि सैन्य समझौते की इस नीति के तहत अमेरिका, नेपाल में अपना बेस बना लेगा। और वो तिब्बत के जरिए बीजिंग में मुश्किलें पैदा करेगा।

चूंकि नेपाली कांग्रेस को भारत समर्थक माना जाता है और के पी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनिफाइड मार्किस्ट लेनिनिस्ट) अर्थात CPN-UML, को चीन समर्थक, इसलिए नेपाल की राजनीति भारत और चीन के प्रभाव में रहती है। लेकिन इसमें कुछ अदृश्य शक्तियां रहती हैं और वे नेपाल में प्रभावी होती गई हैं। इन अदृश्य शक्तियों में अमरीका एवं यूरोपीय देश प्रमुख हैं। यह कम लोगों को पता होगा कि प्रचंड के पहले कार्यकाल में भी उनकी नॉर्वे व अन्य यूरोपीय देशों के साथ नजदीकी रही थी। अब एक नए कार्यकाल में प्रचंड अपनी विदेश नीति किसके प्रभाव में तय करेंगे, यह देखना रोचक होगा। वैसे के पी शर्मा ओली के दबाव के चलते प्रचंड के लिए चीन के प्रभाव से मुक्ति कठिन होगी।

यह भी पढ़ें: Prachanda as Nepal PM: प्रचंड के फिर प्रधानमंत्री बन जाने की कहानी

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