क्या महाजन आयोग की शर्तें मान लेते तो सुलझ जाता कर्नाटक-महाराष्ट्र का सीमा विवाद? जानिए क्या है इतिहास
14 दिसंबर 2022 को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कर्नाटक और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की। जिसमें गृहमंत्री ने दोनों राज्यों की सरकारों से सीमा विवाद का शांतिपूर्ण हल निकालने का निर्देश दिया।
Maharashtra-Karnataka Border Dispute: कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच दशकों पुराना सीमा विवाद एक बार फिर से सुखियों में है। अब विवाद इतना बढ़ गया है कि केंद्र सरकार को मामले में दखल देना पड़ा है। हालांकि, यह मामला अभी देश की सर्वोच्च अदालत में भी लंबित है, जहाँ इसके शांतिपूर्वक समाधान के प्रयास जारी है। आइए जानते हैं दोनों राज्यों के सीमा विवाद का क्या है इतिहास। साथ ही इस मामले पर महाजन आयोग की रिपोर्ट क्या कहती है। अगर इस रिपोर्ट को दोनों राज्य मान लेते तो यह विवाद कब का समाप्त हो गया होता।
'सीमा विवाद का सड़क पर हल नहीं होगा'
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने मीडिया को संबोधित करते हुए कहा है कि इस विवाद की समाप्ति के लिए मैंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री साथ ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री को दिल्ली बुलाया था। दोनों के बीच सहमति हुई है कि विवाद का समाधान संविधान के अनुसार होना चाहिए। कर्नाटक-महाराष्ट्र सीमा विवाद का सड़क पर हल नहीं होगा। इसके लिए दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच एक कमेटी गठित करने पर सहमति बनी है। इसकी अध्यक्षता वरिष्ठ IPS अधिकारी करेंगें।
गृहमंत्री शाह ने आगे कहा कि कर्नाटक-महाराष्ट्र सीमा विवाद का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में है, इसलिए कोर्ट के फैसले का इंतजार करना चाहिए। साथ ही कमेटी के निर्णय का भी इंतजार करना चाहिए। जब तक कोई निर्णय नहीं हो जाता तब तक दोनों राज्य एक-दूसरे के इलाके पर कोई दावा नहीं करेंगे।
कैसे भड़का मामला?
यह विवाद कई दिनों से शांत था लेकिन पिछले दिनों इस मामले को तूल मिला जब मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने महाराष्ट्र के सांगली जिले के 40 गावों को पानी उपलब्ध करवा दिया। यह सभी गाँव लगभग चार दशकों से पानी के लिए तरस रहे थे। कर्नाटक सरकार द्वारा उठाये इस कदम के तुरंत बाद, जत तहसील के कुछ लोगों ने आधी रात को ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे से मुलाकात की। वे सभी अपने साथ नक्शे इत्यादि भी लेकर आये थे। जिसके बाद मुख्यमंत्री शिंदे ने जत तहसील के प्रतिनिधिमंडल को म्हैसल सिंचाई योजना के अंतर्गत 2000 करोड़ रुपये आवंटित करने का आश्वासन दे दिया।
दरअसल, जत तहसील महाराष्ट्र के सांगली जिले के अन्दर आती है, चूँकि यह एक कन्नड़ भाषी क्षेत्र है तो कर्नाटक इस तहसील के लगभग 40 गांवों पर अपना दावा करता रहता है। इसके अलावा, मुख्यमंत्री बोम्मई का कहना है कि महाराष्ट्र के अक्कलकोट और सोलापुर भी कर्नाटक का हिस्सा हैं।
जिसके जवाब में महाराष्ट्र सरकार की तरफ से कर्नाटक स्थित बेलगाम को महाराष्ट्र में शामिल करने को लेकर बयानबाजी शुरू हो गयी। इसके समानांतर, एक विज्ञप्ति जारी कर सांसद धैर्यशील माने को महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में दायर रिट याचिका के संबंध में महाराष्ट्र सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति का प्रमुख नियुक्त कर दिया। विशेषज्ञ समिति के सदस्यों में विशेष समन्वयक के रूप में अधिवक्ता राम आप्टे, दिनेश औलकर और डॉ आर वी पाटिल को भी शामिल किया गया। यही नहीं, मुख्यमंत्री शिंदे ने महाराष्ट्र सरकार के मंत्री चंद्रकांत पाटिल और शंभुराज देसाई सहित सांसद धैर्यशील माने को बॉर्डर कोऑर्डिनेशन कमेटी के नाम पर बेलगांव का अधिकारिक दौरा करने का निर्देश भी दे दिया।
महाराष्ट्र के इन प्रयासों के जवाब में कर्नाटक सरकार ने एक आदेश जारी कर इन तीनों नेताओं के राज्य में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया। बेलगाम कलेक्टर नितेश पाटिल ने आईपीसी, 1973 की धारा 114(3) के तहत इनके प्रवेश पर रोक लगाने का आदेश जारी किया था।
क्या है सीमा विवाद का इतिहास?
भारत की स्वाधीनता के समय से ही यह सीमा विवाद चला आ रहा है। दरअसल, तब बेलगांव नगरपालिका ने प्रस्तावित महाराष्ट्र राज्य में शामिल करने का स्वतः अनुरोध किया था। यह इलाका मूलतः मराठी भाषी है। मगर 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम ने बेलगांव सहित बॉम्बे प्रेसिडेंसी के 10 अन्य मराठी भाषी तालुकों को मैसूर राज्य का एक हिस्सा बना दिया। बेलगांव में आज भी तीन-चौथाई आबादी मराठी भाषी है। जब 1 मई 1960 को मुंबई के साथ संयुक्त महाराष्ट्र बना, तब भी 865 मराठी भाषी गांवों को महाराष्ट्र के स्थान पर कर्नाटक में शामिल कर दिया गया।
कर्नाटक पूर्ववर्ती मैसूर का नया नाम है। 1 नवंबर 1973 को मैसूर का नाम बदलकर कर्नाटक किया गया था। कर्नाटक की तरफ से भी महाराष्ट्र के सांगली, अक्कलकोट और सोलापुर के कन्नड़ भाषी इलाकों पर अपना दावा जताने के प्रयास तभी से जारी हैं।
महाजन आयोग की रिपोर्ट
जब सीमा विवाद 70 के दशक में तूल पकड़ने लगा तो प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी, मैसूर के मुख्यमंत्री एस निजालिंग्पा और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वीपी नाइक के बीच समाधान के लिए कई दौर की बैठकें भी हुई लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। जिसके बाद, केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश मेहरचंद महाजन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया। इस आयोग की स्थापना 1966 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1967 के आम चुनावों से कुछ महीने पहले की थी, जिसकी रिपोर्ट चुनावों के बाद जारी की गई। बता दें कि मेहरचंद महाजन ने भारत में जम्मू-कश्मीर के विलय में अहम भूमिका निभाई थी।
जब आयोग ने अपनी रिपोर्ट पेश की तो महाराष्ट्र ने इसे भेदभावपूर्ण बताते हुए खारिज कर दिया। दरअसल, रिपोर्ट में बेलगाम को महाराष्ट्र राज्य में मिलाने की अनुशंसा करने से मना कर दिया था। आयोग ने निप्पानी, खानापुर और नांदगाड सहित 262 गांव महाराष्ट्र को सौंपें। जबकि महाराष्ट्र बेलगाम सहित 814 गांवों की मांग कर रहा था। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक जस्टिस महाजन ने गांवों और शहरी दोनों क्षेत्रों का दौरा किया था। वे समाज में आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों के पास गए ताकि मालूम कर सके वे कौन सी भाषा बोलते हैं और उनके बच्चों की शादियां किन इलाकों में हुई हैं।
2004 में सुप्रीम कोर्ट गया मामला
साल 1960 में दोनों राज्यों ने समाधान के लिए चार सदस्यों की एक समिति का गठन किया जिसके अंतर्गत दोनों राज्यों के दो-दो प्रतिनिधियों को शामिल किया गया। मगर तब भी कोई समाधान नहीं निकल सका। हालांकि, इसके बाद भी कई बार आपसी बातचीत से समाधान के प्रयास किये गए लेकिन पहले की तरह इन मौकों पर भी गतिरोध कायम रहा।
अतः 2004 में, महाराष्ट्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 131 (बी) के तहत सीमा विवाद के निपटारे के लिए सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया। इसके अंतर्गत कर्नाटक से 814 गांवों की मांग की गई। फिलहाल यह मामला शीर्ष अदालत में लंबित है। हालाँकि, 2006 में कोर्ट ने सुझाव दिया था कि इस मसले को आपसी बातचीत से हल किया जाना चाहिए। साथ ही यह भी सुझाव दिया था कि भाषाई आधार पर जोर नहीं देना चाहिए, क्योंकि इससे परेशानी और बढ़ सकती है।
दोनों पक्षों की यह हैं दलीलें
महाराष्ट्र ने 2004 में राज्य पुनर्गठन कानून 1956 के कुछ प्रवाधानों को चुनौती देते हुए भाषायी आधार पर कर्नाटक से 814 गांवों को हस्तांतरित करने की मांग की। यह मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है क्योंकि कर्नाटक मामले की सुनवाई में अधिकतर समय अनुपस्थित रहता है।
कर्नाटक सरकार की दलील यह रही है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत राज्यों की सीमाएं तय करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को नहीं बल्कि संसद को है। वहीं, महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि अनुच्छेद 131 के तहत केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच के विवादों में सुप्रीम कोर्ट को सुनवाई करने का पूरा अधिकार है।
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