मुलगी शिकली, प्रगति झाली
१८४८
में
ही
ज्योतिबा
फुले
ने
दलित
लड़कियों
के
लिए
अलग
से
स्कूल
खोलकर
इस
क्रांति
का
ऐलान
कर
दिया
था.
और
आज
भी
महाराष्ट्र
में
लड़कियों
की
इज्ज़त
अन्य
राज्यों
की
तुलना
में
कहीं
अधिक
है.
बीच
में
मराठी
मानूस
के
नारे
के
राजनीतिक
इस्तेमाल
के
बाद
लुम्पन
लड़कों
पर
जोर
ज्यादा
दिया
जाने
लगा
और
पिछले
५०
साल
में
महाराष्ट्र
के
ग्रामीण
इलाकों
में
लड़कियों
की
शिक्षा
पर
उतना
ध्यान
नहीं
दिया
गया
जो
आज़ादी
की
लड़ाई
के
दौरान
दिया
गया
था
और
जिसकी
बुनियाद
महात्मा
फुले
ने
१८४८
में
ही
रख
दी
थी.
बहरहाल
बच्चियों
की
शिक्षा
को
नज़र
अंदाज़
करने
के
नतीजे
महाराष्ट्र
के
नेताओं
की
समझ
में
आने
लगे
हैं.
आज
राज्य
की
राजधानी
मुंबई
में
यहाँ
के
स्थानीय
लोगों
की
हैसियत
बहुत
ही
कम
हो
गयी
है.
राजनीतिक
सत्ता
पर
काबिज़
होने
के
बावजूद
मराठी
मानूस
मुंबई
के
उच्च
वर्ग
में
शामिल
नहीं
है.
कई
चिंतकों
से
बातचीत
करने
पर
पता
चला
कि
इस
हालत
के
लिए
शिक्षा
की
कमी
सबसे
ज्यादा
जिम्मेदार
है.
देर
से
ही,
सही
लड़कियों
की
शिक्षा
के
लिए
समाज
ने
पहल
करना
शुरू
कर
दिया
है.
सरकारी
तौर
पर
एक
अभियान
चलाया
जा
रहा
है
जिसके
तहत
प्रचार
किया
जा
रहा
है
कि
अगर
लड़की
शिक्षित
होगी,
तभी
प्रगति
होगी.
इस
अभियान
का
फर्क
भी
पड़ना
शुरू
हो
गया
है.
यह
मानी
हुई
बात
है
कि
तरक्की
के
लिए
शिक्षा
की
ज़रुरत
है.
और
परिवार
की
तरक्की
तभी
होगी
जब
मां
सही
तरीके
से
शिक्षित
होगी.
यह बात उत्तर भारत के बड़े राज्यों, बिहार और उत्तर प्रदेश के उदाहरण से बहुत अच्छी तरह से समझी जा सकती है. यहाँ पर लड़कियों की शिक्षा लड़कों की तुलना में बहुत कम है .शायद इसी वजह से यह राज्य देश के सबसे अधिक पिछडे राज्यों में शुमार किये जाते हैं. इन इलाकों में रहने वाले मुसलमानों की बात तो और भी चिंता पैदा करने वाली है. हज़रत मुहम्मद ने फरमाया था कि शिक्षा इंसान के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है. आपने कहा था कि अगर इल्म के लिए उन्हें चीन भी जाना पड़े तो कोई परेशानी वाली बात नहीं है. इसका मतलब यह है कि मुसलमान को शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है. कम से कम उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में सबसे ज्यादा पिछडे हुए हैं. उनके इस पिछडेपन का एक बड़ा कारण यह है कि इन इलाकों में मुसलमानों की लड़कियों की शिक्षा का कोई इन्तेजाम नहीं है. जो बात समझ में नहीं आती, वह यह कि जब पैगम्बर साहेब ने ही तालीम पर सबसे ज्यादा जोर दिया था तो उनके बताये रास्ते पर चलने वाले शिक्षा के क्षेत्र में इतना पिछड़ क्यों गए. सब को मालूम है कि अगर लडकियां शिक्षित नहीं होंगी तो आने वाली नस्लें शिक्षा से वंचित ही रह जाएँगीं, इसलिए मुसलमानों के सामाजिक और धार्मिक नेताओं को चाहिए कि वह ऐसी व्यवस्था करें जिसके बाद उनकी अपनी बच्चियां अच्छी शिक्षा हासिल कर सकें.
अभी पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में यह बात सामने आई कि मुसलमानों में आधुनिक और तकनीकी शिक्षा के लिए कोई ख़ास कोशिश नहीं हो रही है. बड़े पत्रकार विनोद मेहता ने तो यहाँ तक कह दिया है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना के बाद, मुसलमानों ने आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा के लिए कोई भी अहम् पहल नहीं की है. राजनीतिक सामाजिक नेता और लेखक आरिफ मुहम्मद खान के एक ताजे लेख से पता चलता है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक और क्रांतिकारी शिक्षाविद, सर सैय्यद अहमद खान को भी उस वक़्त के धार्मिक नेताओं ने खुशी से स्वीकार नहीं किया था. इसलिए मुसलमानों और समाज की तरक्की के लिए ज़रूरी है कि अर्जेंट आधार पर लड़कियों की शिक्षा के लिए समाज और काम के नेता ज़रूरी पहल करें वरना खतरा यह है कि बहुत देर हो जायेगी. जहां तक समाज के सहयोग की बात है उसकी उम्मीद करना ठीक नहीं होगा क्योंकि महाराष्ट्र में लड़कियों की शिक्षा की क्रान्ति के सूत्रधार ज्योतिबा फुले को भी उनके पिताजी ने घर से निकाल दिया था जब उन्होंने १८४८ में दलित लड़कियों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला था. आज के समाज, खासकर मुस्लिम समाज में ऐसे लोगों को आगे आने की ज़रुरत है जो सर सैय्यद की तरह आगे आयें और समाज को परिवर्तन की राह पर डालने की कोशिश करें.