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तेंडुलकर के लिए हिंसा एक प्रतीक

By दिनेश श्रीनेत
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Vjay Tendulkar
विजय तेंडुलकर ने अपने नाटकों के जरिए हमेशा यह कहने की कोशिश की है कि जिस समाज में हम रहते हैं वह हिंसा और क्रूरता से भरी हुई है। उन्होंने अपने नाटकों के जरिए हिंसा को एक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया। हिंसा उनके नाटकों में अन्याय को परिभाषित करती है।

मराठी साहित्य को एक वैश्विक पहचान देने में उसके नाटककारों का भी खास योगदान है। मराठी के वसंत कानेटकर, विजय तेंडुलकर, विद्याधर गोखले और पु.ल. देशपांडे जैसे नामों ने अपनी खास पहचान बनाई है। विजय तेंडुलकर इन सबमें अलग नजर आते हैं। जिन्होंने विजय तेंडुलकर का नाटक सखाराम बाइंडर पढ़ा होगा, उन्हें उस नाटक में अंतर्निहित गहरी कड़वाहट और हिंसा के शेड्स भूले नहीं होंगे। तेंडुलकर ने खुद अपना मुहावरा रचा था। न सिर्फ फार्म के स्तर पर बल्कि कंटेंट के स्तर पर वे देश के कुछ सबसे सशक्त रचनाकारों में से एक थे।

उन्होंने अपने आसपास की दुनिया और अपने अतीत को खंगाला और राजनीति, हिंसा, सेक्स जैसे विवादास्पद विषयों को अपने नाटकों में लेकर आए। सन् 1928 में कोल्हापुर के एक गांव के ब्राह्णण परिवार में जन्मे विजय के पिता क्लर्क थे और साथ में अपना छोटा सा प्रकाशन का व्यवसाय चलाते थे। प्रकाशन के काम से विजय को बचपन में पढ़ने का शौक लगा और इसने आगे चलकर लेखन के प्रति उनके रुझान को जन्म दिया।

विजय तेंडुलकर ने अपना कॅरियर एक पत्रकार के रूप में शुरु किया था। इस दौरान वे नाटक भी लिखने लगे थे। उनके जिस नाटक ने सबसे पहले लोगों का ध्यान खींचा वह था गिधाड़े। सन् 1961 में लिखा गया यह नाटक सन् 1970 तक स्टेज तक नहीं पहुंच सका। यहां से तेंडुलकर शायद अपने लेखन के लिए एक रास्ता तलाश सके और उन्होंने घरेलू, यौन, सांप्रदायिक और राजनीतिक हिंसा को जैसे अपने नाटकों के जरिए एक अध्ययन के विषय में बदल दिया।

आने वाले समय में उनके नाटक शांतता कोर्ट चालू आहे, घासीराम कोतवाल और सखाराम बाइंडर ने उन्हें लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचा दिया। घासीराम कोतवाल तो 18वीं शताब्दी के परिवेश में रचा गया एक राजनीतिक ड्रामा था, जिसकी शैली म्यूजिकल रखी गई थी। श्रीराम लागू, मोहन आगाशे और सुलभा देशपांडे जैसे कलाकारों के बीच उन्होंने मराठी थिएटर में एक नई संवेदनशीलता को पहचाना और अपने नाटकों के जरिए उसे स्वर दिया।

विजय तेंडुलकर का एक बड़ा रचनात्मक योगदान उनके द्वारा फिल्मों के लिए लिखी गई पटकथाएं हैं। उन्होंने निशांत, आक्रोश और अर्धसत्य समेत ग्यारह हिन्दी फिल्मों की पटकथा लिखी है। ये फिल्में अपने जिस तीखे तेवर और गहरी वैचारिकता के कारण जानी जाती हैं, उनके पीछे निःसंदेह विजय तेंडुलकर की लेखनी का बड़ा योगदान रहा है।

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