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गुजरात दंगों की गठरी और बिलकिस बानो का दर्द

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किसी भी महिला के साथ गैंगरेप सबसे जघन्य अपराध है और 2002 के गुजरात दंगों में बिलकिस बानो को इस जघन्य अपराध की पीड़ा उठानी पड़ी। गोधरा कांड के बाद दंगों की आग में झुलसते गुजरात में हजारों लोग हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य के शिकार हुए, तत्कालीन सीबीआई जांच और कोर्ट के फैसलों के मुताबिक उन पीड़ितों में बिलकिस बानो भी थी।

the Gujarat riots and the pain of Bilkis Bano

27 फरवरी 2002 को जिस दिन गोधरा में ट्रेन की बोगी जलाकर 59 हिन्दुओं की हत्या की गयी थी उससे तीन चार दिन पहले वो गोधरा के ही पास सिंहवड़ में अपने मायके आयी हुई थीं। उस समय उनकी उम्र 19 साल थी। बताते हैं कि उनके साथ उनकी तीन साल की बेटी भी थी और बिलकिस बानो के पेट में उनका दूसरा बच्चा पल रहा था।
सीबीआई के मुताबिक उसी दिन उनके घर पर दंगाइयों का हमला हुआ और उनके घर को आग लगा दी गयी। उनके परिवार में कुल 17 लोग थे। वो लोग वहां से अपनी जान बचाकर भागे और पड़ोस के गांव राधिकापुर पहुंच गये। बिकलिस बानो ने स्वयं माना है कि इस दौरान हिन्दू परिवारों से मदद भी मिली।

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लेकिन दो दिन बाद 3 मार्च को वो लोग जिस गांव राधिकापुर पहुंचे थे वहां दंगाइयों का हमला होता है। यहां बिकलिस बानो के बारे में कहानी के दो रूप सामने रखे जाते हैं। कुछ मीडियावाले लिखते हैं कि वे लोग ट्रक में जा रहे थे और रास्ते में रोककर उन पर हमला किया जाता है जबकि कुछ मीडिया वाले बताते हैं कि वह राधिकापुर गांव में रुकी हुई थी जहां उनके साथ यह अपराध हुआ।

बहरहाल, इस घटना में उनके परिवार के सात लोग मारे जाते हैं और बिलकिस बानो के साथ गैंगरेप होता है। बिलकिस बानो कहती हैं वो उन दंगाइयों में से कई को पहचानती थीं क्योंकि बचपन से उनको गांव में आते जाते देखा था। अपने साथ हुए इस अमानवीय व्यवहार से बिलकिस बानो बेहोश हो गयी और उन्हें मरा हुआ समझकर दंगाई वहां से चले गये।
बिलकिस बानों को होश आया तो उनके आसपास बहुत कुछ खत्म हो चुका था। उनके परिवार के कई सदस्य मारे जा चुके थे और खुद उन्हें बहुत अमानवीय पीड़ा से गुजरना पड़ा था। फिर उन्होंने अपने लिए न्याय की लड़ाई शुरु की। 2003 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बिलकिस बानो का केस सीबीआई ने अपने हाथ में लिया और जनवरी 2004 में सभी आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया।

बिलकिस बानो को डर था कि गुजरात में रहकर उन्हें न्याय नहीं मिलेगा। इसलिए उन्होंने हाईकोर्ट में अपील करके गुजरात के बाहर सुनवाई करने की गुहार लगाई। गुजरात हाईकोर्ट ने अगस्त 2004 में बिलकिस बानो केस को गुजरात से बाहर महाराष्ट्र में ट्रांसफर करने का आदेश दे दिया।

करीब चार साल की कानूनी कार्रवाई के बाद जनवरी 2008 में सीबीआई की विशेष अदालत ने बिलकिस बानो गैंगरेप मामले में 13 लोगों को दोषी पाया। उसने इन 13 लोगों में से 11 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। उस समय बिलकिस बानो ने कहा था कि "मैं बदला नहीं लेना चाहती हूं। मैं चाहती हूं कि वो महसूस करें कि उन्होंने क्या किया है? मुझे उम्मीद है कि उन्हें एक दिन अपने पापों का अहसास होगा कि उन्होंने छोटे बच्चों की हत्या की और महिलाओं के साथ रेप किया।"

सीबीआई कोर्ट के इस आदेश के बाद सभी 11 आरोपी आजीवन कारावास के लिए जेल भेज दिये गये। बिलकिस बानों के मामले में सीबीआई कोर्ट, बॉम्बे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने न केवल दोषियों को सजा दी बल्कि अप्रैल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को आदेश दिया कि बिलकिस बानो को 50 लाख रूपये आर्थिक मदद, एक घर और नौकरी का प्रबंध किया जाए ताकि वो अपनी जिन्दगी सम्मान के साथ जी सकें।

बिलकिस बानों ने ऊंची अदालतों में लंबी क़ानूनी लड़ाई लड़ी और न्याय प्राप्त किया तो स्वाभाविक है उनके साथ कुछ ऐसे लोगों का समर्थन और सहयोग भी था जो गुजरात दंगों के बाद एक वर्ग विशेष के पीड़ितों को न्याय दिलाने में मदद कर रहे थे। ये वही लोग थे जिन्होंने गुजरात दंगों को नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ राजनीतिक रूप से इस्तेमाल किया। यही वो लोग हैं जो अब बिलकिस बानो मामले में सजायाफ्ता कैदियों की 14 साल की सजा 'पूरी' होने के बाद रिहाई पर हंगामा कर रहे हैं। जबकि इस मामले में गुजरात सरकार ने बिलकिस बानो मामले में दोषियों को रिहा करके जो कुछ किया है वह कानून सम्मत है। इसे भी समझना जरुरी है।

बिलकिस बानो मामले में जिन 11 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी उसमें से एक आरोपी की मौत हो चुकी है। 10 लोगों को गुजरात सरकार ने आजीवन कारावास की 14 साल की सजा पूरी होने पर जेल से रिहा होने का आदेश दिया है। सीआरपीसी की धारा 433ए के तहत कोई भी राज्य सरकार उम्र कैद की सजा पाये ऐसे किसी कैदी को रिहा कर सकती है जिसने न्यूनतम 14 साल की सजा पूरी कर ली हो।

सजायाफ्ता कैदियों में से एक राधेश्याम शाह ने अपने इसी कानूनी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए इसी साल 15 मई को सुप्रीम कोर्ट में अपील किया था कि उन्होंने 15 साल से अधिक जेल की सजा पूर कर ली है। इसलिए मानवीय आधार पर उन्हें रिहा किया जाए।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह राज्य सरकार को देखना है कि सजायाफ्ता मुजरिमों का जेल में व्यवहार कैसा है। अगर उनका व्यवहार ठीक है तो जो भी फैसला लेना है वह राज्य सरकार लेगी। आजीवन कारावास के मामले में ऐसा कानूनी प्रावधान होने के कारण राज्य सरकार को पूरा अधिकार है कि वह सजायाफ्ता कैदियों के आचरण, व्यवहार और सुधरने की संभावना को देखते हुए उन्हें रिहा कर दे। बिलकिस बानो ने भी तो उम्र कैद की सजा सुनाये जाने के बाद यही कहा था कि वो चाहती है कि वो अपने पापों का प्रायश्चित करें।

अब 15 साल की सजा काट चुके आरोपितों को अगर गुजरात सरकार उनके नागरिक अधिकारों के तहत 14 साल की जेल काट लेने के बाद उनके आजीवन कारावास को पूरा मान रहा है तो इस पर हंगामा क्यों हो रहा है?

असल में हंगामा वही लोग कर रहे हैं जिन्होंने गुजरात दंगों का बीते बीस सालों से राजनीतिक इस्तेमाल किया है। इसमें कुछ मीडिया समूह, कुछ राजनीतिक दल और कुछ सामाजिक संगठन शामिल हैं। ये लोग गुजरात दंगों की गठरी बीस साल से ढो रहे हैं और ये नहीं चाहते कि समाज में सद्भाव लौटे। ये वही लोग हैं जो कल भी कानून, अदालत, मीडिया, प्रशासन सबको अपने मर्जी के मुताबिक चलाने की कोशिश करते थे और आज भी उसे प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं।

कल भी वो सार्वजनिक चिट्ठियां लिखकर, बयानबाजी करके न्याय की मनमानी परिभाषा से लोगों को सहमत करवाने का प्रयास करते थे और आज भी वही कर रहे हैं। वो ये नहीं समझना चाहते कि भारतीय लोकतंत्र में जो कानूनी उपचार पीड़ित बिलकिस बानो के लिए है, वही उपचार और अधिकार उसके मुजरिम सजायाफ्ता कैदियों के लिए भी है। कानून वर्ग विद्वेष या वर्ग संघर्ष के सिद्धांत पर काम नहीं करता। वह दोषियों को सजा इसलिए नहीं देता कि दो पक्षों में विद्वेष का जन्म हो, बल्कि सजा इसलिए देता है कि उनमें सुधार हो और वो एक बेहतर नागरिक बनें।

दंगे प्रतिक्रियावादी होते हैं और प्रतिक्रियावाद को समाज की मुख्यधारा नहीं समझा जा सकता। सीबीआई जांच और अदालतों के फैसले के मुताबिक बिलकिस बानो के साथ जो हुआ वह जघन्य अपराध था, और उसके दोषियों को सजा मिली, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन अब गुजरात सरकार ने 10 आरोपियों को 14 साल की सजा पूरी होने पर जिस तरह से रिहा किया है वह भी कानूनी प्रावधान ही है।

गुजरात सरकार ने अपनी तरफ से कोई स्वैच्छिक फैसला नहीं लिया है और न ही कानूनों को तोड़ा मरोड़ा है। उम्रकैद की सजा प्राप्त कैदियों के लिए जो प्रावधान हैं, उसी के तहत उसने 10 आरोपितों की 14 साल की सजा पूरी होने पर बेहतर नागरिक बनने का मौका दिया है। गुजरात सरकार जब चाहे तब इस फैसले को पलट सकती है या उच्चतर न्यायालय इस पर रोक लगा सकते हैं। लेकिन बिलकिस बानो के आरोपितों के मामले में जो हुआ है वह कानून सम्मत है। उस पर वैधानिक रूप से सवाल उठाना या फिर राजनीतिक बयानबाजी करके वापस लेने का दबाव बनाना गलत है।

जो लोग बीते बीस सालों से गुजरात दंगों की गठरी सिर पर ढो रहे हैं उनको भी चाहिए कि अब गुजरात दंगों के हैंगओवर से बाहर निकलें और समाज को भी उस वीभत्स यादों से बाहर निकालने में मदद करें। हर आतंकी हमले और दंगे की तरह गोधरा में ट्रेन जलाने से लेकर गुजरात में भड़के दंगे तक जो कुछ हुआ वह सब गलत और अमानवीय था। लेकिन ऐसे पीड़ादायक घटनाक्रम को लंबे समय तक राजनीतिक औजार बनाकर पीड़ितों को बार बार आगे करना भी मानवीय नहीं कहा जाएगा। बीते बीस सालों से जो लोग इन दंगों को 'बेचने' का कारोबार कर रहे हैं, वे समाज का हित नहीं, अहित कर रहे हैं।

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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

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English summary
the Gujarat riots and the pain of Bilkis Bano
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