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Fake Secularism: बहुत सवाल खड़े करती है सुप्रीम कोर्ट की हेट स्पीच पर टिप्पणी

370 के कारण सिर्फ कश्मीर में ही अलग क़ानून नहीं चला करते थे, बल्कि 370 के बिना आज भी देश में कई कानून चल रहे हैं, जो हिन्दुओं के लिए अलग हैं और मुसलमानों के लिए अलग हैं।

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यह अच्छी बात है कि सुप्रीम कोर्ट को हेट स्पीच की बात समझ में आ गई है। उम्मीद करनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट और सरकारें हेट स्पीच को लेकर उपयुक्त कार्रवाई करना शुरू करेंगी और एकतरफा कार्रवाई नहीं किया करेंगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि इस कोर्ट की यह जिम्मेदारी है कि इस तरह के मामलों में हस्तक्षेप करे। हालांकि यह जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट की नहीं, अलबत्ता पहले यह जिम्मेदारी सरकारों की है, इस लिए सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों से कहा है कि या तो कार्रवाई कीजिए, नहीं तो अवमानना के लिए तैयार रहिए। यानी अब यह कोर्ट का आदेश है कि सभी राज्य सरकारों को हेट स्पीच पर कार्रवाई करनी है।

supreme court

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट को यह याद है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। वरना जिस दिन सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने स्कूली ड्रेस कोड पर हिजाब के अधिकार की बात कह दी थी, उस दिन संशय हुआ था कि सुप्रीम कोर्ट के जज भी देश को धर्मनिरपेक्ष रखना चाहते हैं या नहीं। किसी जज ने आज तक यह नहीं कहा कि धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म आधारित दो अलग अलग क़ानून क्यों चलने चाहिए। 370 के कारण सिर्फ कश्मीर में ही अलग क़ानून नहीं चला करते थे, बल्कि 370 के बिना आज भी देश में कई कानून चल रहे हैं, जो हिन्दुओं के लिए अलग हैं और मुसलमानों के लिए अलग हैं।

ये सभी क़ानून उसी संसद ने बनाए हैं, जिस का काम संविधान के मुताबिक़ काम करना और सरकार का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष बनाए रखना है। धर्मनिरपेक्षता की धज्जियां सिर्फ संसद ने ही नहीं उडाई हैं। खुद सुप्रीम कोर्ट ने भी उडाई हैं, जिसने कई बार उन कानूनों को उचित ठहराया है जो संविधान की धर्मनिरपेक्षता की भावना के खिलाफ हैं।

1991 के धर्म स्थल क़ानून को सुप्रीम कोर्ट ने वैध ठहराया हुआ है, जो धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के पूरी तरह खिलाफ बनाया गया था। सुप्रीम कोर्ट की धर्मनिरपेक्षता उस समय कहाँ सो गई थी, जब संसद ने एक धर्म विशेष की तुष्टिकरण के लिए दूसरे धर्म के न्याय के अधिकार को छीन लिया था। यह क़ानून तो सुप्रीम कोर्ट के अधिकार को ही छीनता है कि वह 1947 से पहले कब्जाए गए किसी धर्म स्थल की याचिका ही नहीं सुन सकता। सुप्रीम कोर्ट अगर न्याय के सिद्धांत के खिलाफ बने 1991 के धर्म स्थल क़ानून को खत्म करने की हिम्मत नहीं रखती, तो उसे देश, संसद और खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने का क्या अधिकार रह जाता है?

1991 के बाद भी कश्मीर के अनेक मन्दिरों को तोड़ कर वहां मस्जिद बना दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने तो 1991 के नरसंहार तक की याचिका स्वीकार नहीं की, मन्दिरों के विध्वंस की याचिका क्या स्वीकार करेगी। यह बात दो चार मामलों पर खत्म नहीं होती है। सैंकड़ों मन्दिरों का संचालन सरकारों के पास है, क्या किसी चर्च या मस्जिद का अधिकार सरकार के पास है?

क्या सिर्फ हिंदू समुदाय के मामले में ही यह समझा गया कि वे अपने मंदिरों का प्रबंधन-संचालन नहीं कर सकते? जहां मन्दिरों के संचालन का अधिकार सरकार के पास हो, वहां देश, सरकार और संविधान को कैसे धर्मनिरपेक्ष कहा जा सकता है। मन्दिरों में चढाए गए दान को सरकारें अपने हिसाब से खर्च करती हैं, हिन्दू अपने देवी देवता को चढावा चढाते हैं, जबकि सरकारी खजाने में जा कर उसका इस्तेमाल गैर हिन्दुओं के लिए भी होता है, क्योंकि सरकार तो धर्मनिरपेक्ष है।

इन कानूनों के तहत हजारों हिंदू मंदिरों पर एक तरह से राज्य सरकारों का कब्जा है। अकेले तमिलनाडु में सैकड़ों प्रमुख मंदिरों पर राज्य सरकार का नियंत्रण है। सुप्रीम कोर्ट में ऐसी कई और याचिकाएं लंबित हैं, क्योंकि जो स्थिति तमिलनाडु में है, वही अन्य राज्यों में भी है। यह साफ है कि मंदिरों के प्रबंधन-संचालन संबंधी कानून एक देश-अनेक विधान के सटीक उदाहरण हैं। कोई नहीं जानता कि ऐसे कानून अन्य किसी समुदाय के धार्मिक स्थलों के प्रबंधन-संचालन के लिए क्यों नहीं बनाए गए? सुप्रीम कोर्ट ने इस क़ानून को धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ क्यों नहीं कहा?

वक्फ बोर्ड का क़ानून क्या धर्मनिरपेक्षता की कसौटी पर खरा उतरता है ? वक्फ बोर्ड तो इस्लाम के पैदा होने से पहले के मन्दिरों को भी वक्फ की सम्पत्ति बता रहा है। हिन्दुओं के पास ऐसा कोई क़ानून क्यों नहीं है कि वह किसी प्राचीन मन्दिर की हथियाई गई जमीन को अपनी कह सके।

पिछले दिनों जब यह मामला जनहित याचिका के रूप में सुप्रीम कोर्ट के ध्यान में लाया गया तो जज ने याचिकाकर्ता को भाषण पिला कर कहा था कि वह अपनी याचिका पर पुनर्विचार करे। क्या सुप्रीम कोर्ट को संज्ञान ले कर संसद को क़ानून रद्द करने या न्यायसंगत बनाने के लिए नहीं कहना चाहिए था।
क्या सुप्रीम कोर्ट को नहीं कहना चाहिए था कि वक्फ क़ानून और वक्फ बोर्डों (अदालतों) का गठन धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है। सरकार ऐसी अदालतें कैसे बना सकती हैं, जहां शरिया के अनुसार फैसले होते हों। वक्फ की जमीनों के फैसले भी सामान्य न्यायालयों में क्यों नहीं होने चाहिए, जैसे मन्दिरों या अन्य प्रापर्टियों के मुद्दों पर होते हैं?

सुप्रीम कोर्ट को मार्गदर्शक सिद्धांतों की बात भी याद आई है, रह रह कर दशक भर बाद सुप्रीम कोर्ट को मार्गदर्शक सिद्धांत याद जरुर आते हैं, लेकिन वह सरकार को निर्देश नहीं देती कि तय सीमा के भीतर मार्गदर्शक सिद्धांतो के अनुसार क़ानून बनाए।

हेट स्पीच पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा रूख मुसलमानों की तरफ से दायर याचिका पर अपनाया है। याचिका में कहा गया है कि भारत में मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने और आतंकित करने के खतरे बढ़ते जा रहे हैं। क्या यह सच है? कितने हिन्दुओं ने मुसलमानों का सर कलम किया है?

क्या इस तरह के कोई आंकड़े उपलब्ध हैं, जिन के आधार पर कपिल सिब्बल यह याचिका ले कर कोर्ट में गए। असल में यह मामला दिल्ली के सांसद प्रवेश वर्मा के एक भाषण से जुडा था। पिछले दिनों देश भर में सर तन से जुदा करने के जो नारे लगे थे, उस के बाद हिन्दुओं में बहुत गुस्सा है , क्योंकि सिर्फ नारे नहीं लगे, अनेक निर्दोष लोगों के सर तन से जुदा किए भी कर दिए गए।

एक तरफ क्रूर हिंसा है, दूसरी तरफ हिंसा फैलाने वालों को समाज में अलग थलग करने वाली स्पीच है, जिसे कोर्ट हेट स्पीच के रूप में देखती है। प्रवेश वर्मा ने अपनी स्पीच में कहा था कि सर तन से जुदा करने वालों को समाज में अलग थलग करो, उन्हें नौकरियां ना दो, उन की दुकानों से सामान न खरीदो।

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किसी समुदाय के निर्दोष लोगों की हत्या हो रही हो, तो वह कोई एहतियाती कदम उठाएगा ही कि इसे कैसे रोका जाए। सर तन से जुदा करने वाली कौम पर अगर सरकार कोई कार्रवाई नहीं करती, तो समाज अपने तरीके से सोचेगा कि हत्यारा एक व्यक्ति है या समाज है। हत्यारा एक व्यक्ति के तौर पर सोचता है या समुदाय विशेष का होने के कारण हिंसक होता है।

याचिकाकर्ता के वकील कपिल सिब्बल से जब सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि - क्या मुसलमान भी हेट स्पीच कर रहे हैं? तो सिब्बल ने कहा, नहीं, वे हेट स्पीच नहीं करते। तो क्या अज़ान हेट स्पीच नहीं है? कपिल सिब्बल का कोर्ट में कथन कितना तथ्यहीन है, वह खुद भी जानते हैं।

क्या सर तन से जुदा के नारे हेट स्पीच नहीं है? हाल ही में सर तन से जुदा किए जाने की घटनाएं, क्या मस्जिदों से दी गई हेट स्पीच का नतीजा नहीं है। हम यह नहीं कहते कि ऐसी ही कोई याचिका किसी हिन्दू की तरफ से दायर की जाती, जिस में कहा गया होता कि मस्जिदों से दी जाने वाली अज़ान असल में हेट स्पीच है, क्योंकि अज़ान में कहा जाता है कि खुदा के सिवा कोई पूज्य नहीं है। क्या यह हिन्दू देवी देवताओं और उन की पूजा अराधना करने वाले देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं के खिलाफ हेट स्पीच के दायरे में नहीं आता।

मदरसों में बच्चों को भी यही पढ़ाया जा रहा है, जिस कारण देश में साम्प्रदायिकता बढती जा रही है। बंद कमरों में दी जा रही हेट स्पीच ज्यादा खतरनाक है, बाहर हो रही स्पीच तो प्रतिक्रिया है।

भारत कैसे धर्मनिरपेक्ष देश की कसौटी पर खरा उतर सकता है, जब एक समुदाय को अन्य समुदायों के खिलाफ अपने बच्चों के मन में जहर भरने की खुली छूट हो, जब एक धर्म स्थल से दूसरे धर्म के खिलाफ लगातार जहर उगला जा रहा हो।

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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

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English summary
Supreme Court Comment On Hate Speech Raises Many Questions
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