नदीमर्ग हिन्दू नरसंहार जैसे अन्य आतंकी हमलों की भी सुनवाई हो
साल 2003 में कश्मीर घाटी के नदीमर्ग गांव में हुए 24 हिंदुओं के नरसंहार पर जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय फिर से सुनवाई के लिए तैयार हो गया है। यह उन लोगों के लिए सांत्वना भरी खबर है जिन्होंने अपने परिवारजनों को इस नरसंहार में खो दिया था। वैसे तो इस नरसंहार के तार सीधे तौर पर पाकिस्तान से जुड़े है और घटनाक्रम को अंजाम देने वाले कुछ आतंकवादी भी भारतीय सुरक्षाबलों द्वारा मारे जा चुके है। फिर भी न्यायालय में यह मामला चलेगा तो उम्मीद है कि नदीमर्ग के साथ-साथ कश्मीर घाटी के अन्य हिन्दू नरसंहारों की चर्चा भी शुरू होगी।
नदीमर्ग नरसंहार स्वाधीन भारत में हिन्दुफोबिया के सबसे बड़े उदाहरणों में से एक है। न्यूयॉर्क टाइम्स ने शुरुआत में इस नरसंहार के लिए 'मुस्लिम आतंकवादियों' को जिम्मेदार बताया था। अमेरिका के स्टेट्स डिपार्टमेंट ने भी इसे धर्म आधारित नरसंहार स्वीकार किया था। इसलिए नदीमर्ग की अमानवीय दास्तां के बहाने ही सही, कम-से-कम दुनियाभर को एकबार फिर ध्यान में आएगा कि कैसे घाटी की मस्जिदों से हिंदुओं और भारत के खिलाफ ऊंची-ऊंची आवाजों में नारे लगते थे और वहां रहने वाले हिंदू समझ जाते थे कि अब उनका यहाँ से जाने का समय आ गया है। फिर भी जो हिन्दू हिम्मत करके रुक गए तो उनके मन में कैसे बंदूकों अथवा हथियारों की दहशत बैठाई गयी और उनके साथ विश्वासघात किया गया।
शोपियां जिले में नदीमर्ग (अब पुलवामा में) एक हिन्दू बहुल गाँव था, जिसकी कुल जनसँख्या मात्र 54 लोगों के आसपास थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद के पैतृक गाँव से मात्र 7 किलोमीटर दूर स्थित इस गाँव में 23 मार्च 2003 की रात सबकुछ तबाह कर दिया गया। इस दिन पूरा देश भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की याद में शहीद दिवस मना रहा था, तब नदीमर्ग में हिंदुओं को बंदूक की गोलियों से मौत के घाट उतारा जा रहा था। गौरतलब है कि 23 मार्च को पाकिस्तान का राष्ट्रीय दिवस भी मनाया जाता है। उस दिन सात आतंकवादी इस गाँव में घुसे और सभी हिन्दुओं को चिनार के पेड़ों के नीचे जबरन इकठ्ठा करने लगे। रात के 10 बजकर 30 मिनट पर इन आतंकियों ने 24 हिन्दुओं की गोली मार कर हत्या कर दी।
मरने वालों में 11 महिलाओं और 11 पुरुषों सहित 70 साल की एक बुजुर्ग महिला एवं 2 साल का एक मासूम बच्चा भी शामिल था। कुछ रिपोर्ट्स का दावा है कि इन सभी को पॉइंट ब्लेंक रेंज से सिर में गोलियां मारी गयी थी। आतंकवादियों को हिन्दुओं के घरों की पहचान और अन्य जानकारी भी उनके मुस्लिम पड़ोसियों ने ही मुहैया करवाई थी। उस दौरान जम्मू-कश्मीर पुलिस के खुफिया विभाग को संभाल रहे कुलदीप खोड़ा भी मानते है कि बिना स्थानीय सहायता के नदीमर्ग नरसंहार को अंजाम ही नहीं दिया जा सकता था। नरसंहार के चश्मदीद भी बताते है कि आतंकियों ने हिंदुओं को उनके नाम से पुकारकर घरों से बाहर निकाला था।
इस प्रकरण में मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की भूमिका शुरू से ही संदेहास्पद थी क्योंकि राज्य सरकार ने नरसंहार से कुछ दिनों पहले ही इलाके की सुरक्षा में तैनात पुलिस को हटा लिया गया था। घटना से पहले वहां 30 सुरक्षाकर्मी होते थे जिनकी संख्या उस रात मात्र 5 थी।
अगले ही महीने भारतीय सुरक्षाबलों ने इस नरसंहार में शामिल एक आतंकी जिया मुस्तफा को गिरफ्तार कर लिया। पाकिस्तान के रावलकोट का रहने वाला यह आतंकी लश्कर-ए-तोइबा का एरिया कमांडर था। उसने पूछताछ के दौरान बताया कि लश्कर के अबू उमैर ने उसे ऐसा करने के लिए कहा था। अबू उमैर 2008 के मुंबई हमलों में भी शामिल था। पाकिस्तान के फैसलाबाद निवासी अबू को सुरक्षाबलों ने मुंबई हमलों की जवाबी कार्यवाही में मार गिराया था।
जिया मुस्तफा के अनुसार वह उन बैठकों में शामिल हुआ था, जहाँ देशभर के हिन्दू मंदिरों पर आतंकवादी हमलों की योजना बनायी गई थी। उसने सुरक्षा एजेंसियों को बताया कि वे सभी पाकिस्तान में किसी के लगातार संपर्क में थे। वहां से उन्हें कहा गया था कि जेहाद के लिए 6 आतंकवादियों को दिल्ली और गुजरात में मुस्लिम युवाओं के बीच भेजना हैं। सितम्बर 2001 में पाकिस्तान से मुस्तफा अवैध रूप से कश्मीर घाटी में घुसा था। वह अन्य छह आतंकियों के साथ पुलवामा के आसपास के इलाकों में आतंकी गतिविधियों का काम देखता था।
मुस्तफा का काम स्थानीय मुस्लिम युवाओं को लश्कर-ए-तोइबा में भर्ती करवाना भी था। हथियारों और वायरलेस के अलावा उसके पास से कुछ दस्तावेज भी बरामद किये गए। उनसे पता चला कि उसे पैसा पाकिस्तान से मिलता था। नदीमर्ग नरसंहार के दोषी सभी आतंकवादी भी पाकिस्तान के रहने वाले थे। इसकी पुष्टि बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स (बीएसएफ) को 18 अप्रैल 2003 को मिली एक और सफलता से हो गई थी। दरअसल, मुस्तफा के खुलासे के बाद बीएसएफ ने कुलगाम में तीन आतंकियों को मार गिराया। उनमें से एक आतंकी मंजूर ज़ाहिर था जोकि इस नरसंहार के अलावा गुजरात के अक्षरधाम मंदिर हमलें में भी शामिल था। लाहौर का रहने वाला मंजूर लश्कर के लिए काम करता था।
जिया मुस्तफा 2021 में मारा जा चुका है। नरसंहार के बाद से ही वह जेल में कैद था। 2021 में पुंछ के भाटा दूड़ियां में कई आतंकियों में छुपे होने की खबर सुरक्षाबलों को मिली थी। जिया मुस्तफा भी इस इलाके में रह चुका था, इसलिए आतंकियों के ठिकानों की पहचान के लिए इसे भाटा दूड़ियां में सुरक्षाबल अपने साथ ले आये। मगर वहां आतंकियों और सुरक्षाबलों के बीच हुई मुठभेड़ में जिया मुस्तफा मारा गया।
मगर आज भी कई आतंकवादी इस मामले में फरार है और जिन लोगों ने आतंकवादियों को सहायता पहुंचाई, वे सभी कानून के दायरे से बाहर है। भारत के उच्चतम न्यायालय से भी नरसंहार के पीड़ितों को कोई राहत नहीं मिली। चूँकि यह मामला "कई साल पुराना है इसलिए न्यायालय इस पर सुनवाई नहीं कर सकता", यह कहकर दो न्यायाधीशों की पीठ ने 2017 में इस मामले को खारिज कर दिया था।
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