मिखाइल गोर्बाचेव: अमानवीय साम्यवादी व्यवस्था को ध्वस्त करने वाला साहसी नायक
तीस साल से कम वाली भारत की नौजवान पीढ़ी को मिखाइल गोर्बाचेव की कोई याद नहीं है। लेकिन उससे ऊपर की पीढ़ी की स्मृति में वे जरूर बसे हुए हैं। सन् 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो गोर्बाचेव वहाँ के राष्ट्रपति थे और उन्होंने सोवियत संघ की कठोर साम्यवादी संरचना को कुछ खुला और उदार बनाने की कोशिश की थी जिसकी नींव लेनिन ने 1917 की बोल्शेविक क्रांति के दौर में डाली थी और जिसे बाद में स्टालिन ने अपने लौह आवरण में लगभग अमानवीय बना दिया था।
लेकिन गोर्बाचेव एक गुमनाम नायक की तरह ही रहे। अपने देश में भी, विदेश में भी और भारत में भी। सोवियत संघ में उन्हें एक महान साम्राज्य के विघटन का कारण माना गया, विदेशों में एक असफल क्रांति का वाहक और भारत जैसे देशों के वाम आच्छादित बौद्धिक खेमे में 'एक धोखेबाज' जैसा व्यक्ति जिसने मार्क्सवाद के एक महान स्वप्न को ध्वस्त कर दिया।
पिछले
दिनों
(30
अगस्त
2022)
जब
गोर्बाचेव
की
मृत्यु
की
खबर
आई,
तो
सोशल
मीडिया
या
मुख्यधारा
की
मीडिया
में
उन
पर
बहुत
नहीं
लिखा
गया।
इसके
कारण
स्पष्ट
हैं।
भारत
की
मुख्यधारा
की,
खासकर
अंग्रेजी
मीडिया,
अभी
भी
लेफ्ट-लिबरल
एकांगी
विचारों
से
भरी
पड़ी
है
जिसने
गोर्बाचेव
को
सोवियत
विघटन
के
लिए
कभी
माफ
नहीं
किया।
यही
बात
सोशल
मीडिया
पर
थी
जहाँ
किसी
भी
घटना
पर
उग्र
प्रतिक्रिया
देने
वाले
वाम
बौद्धिकों
में
उसी
कारण
से
उदासीनता
सी
दिखी।
जहाँ तक भारतीय सोशल मीडिया पर बहुसंख्य दक्षिणपंथी लोगों की प्रतिक्रिया की बात है, तो उनमें से अधिकांश हिंदू हितों, हिंदू असुरक्षा की मानसिकता और वैश्विक इस्लामवादी-ईसाईवादी आक्रामक अभियान से पीड़ित हैं और उनकी कोई खास विश्व दृष्टि नहीं है। जिनकी है भी, उनके मन में कम्युनिस्ट संचालित सोवियत संघ के प्रति कोई सहानुभूति न तब थी, न अब है।
गोर्बाचेव ने जब सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी और सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ली तो वह शीतयुद्ध का अंतिम काल था। तकनीकी ने दुनिया बदल दी थी और कंम्प्यूटर क्रांति उड़ान भरने के लिए तैयार थी। पश्चिम की बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने सफलता के झंडे गाड़ रही थी और अपने देशों का खजाना भर रही थी। ऐसे में सरकार और एक पार्टी द्वारा संचालित सोवियत व्यवस्था की खामियां सामने आने लगी थी। वहाँ उत्पादन कमजोर हो रहा था, उसके उत्पाद प्रतिस्पर्धा में अमेरिकी नेतृत्व वाली खुली अर्थव्यवस्थाओं और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के सामने टिक नहीं पा रहे थे। उसे अपने सहयोगी और निर्भर अन्य कम्युनिस्ट देशों को तरह-तरह की सहायता भी देनी पड़ रही थी।
ऐसे में सोवियत संघ में राशन के लिए लंबी-लंबी लाइनें लगनी शुरू हुई और पूर्वी यूरोप में भारी संख्या में तैनात सोवियत सेना और साजोसामान के खर्चे का बोझ उठाना मास्को के लिए कठिन हो गया। उस जमाने में इंडिया टुडे या माया जैसी पत्रिकाओं में सोवियत फौजों की जो तस्वीरें छपती थीं उसमें पूर्वी जर्मनी या पोलैंड में हजारों की संख्या में सोवियत टैंक और जवानों की तस्वीरें होती थी। जब गोर्बाचेव ने उसमें सुधार की कोशिश की तो उन्हें भी नहीं अंदाज था कि ये सुधार पूरे सोवियत संघ को ही ध्वस्त कर देंगे। उनकी ग्लासनोस्त (खुलापन) और पेरिस्त्रोइका (पुनर्गठन) की नीति ने पूरे संघ को बिखेर दिया। जाहिर है जिस साम्यवादी व्यवस्था की बुनियाद ही आतंक, अत्याचार, उत्पीड़न, शक, धोखा और उपनिवेशवाद के आधार पर हुई थी उसके साथ तो ऐसा होना ही था।
सोवियत संघ कहने के लिए तो 21 राज्यों का संघ था लेकिन वह वस्तुत: रूसी साम्राज्यवाद का केंद्रीकृत स्वरूप था जिसने समय-समय पर अपने पड़ोसी राज्यों पर कब्जा करके उसका संघ में विलय कर लिया था। ऐसा 1922 से लेकर 1945 तक कई किस्तों में हुआ और लाटविया, लिथुआनिया, एस्टोनिआ जैसे राज्य हमेशा अपनी आजादी के लिए लड़ते रहे जिसे बुरी तरह कुचल दिया जाता रहा। लिथुआनिया के आधिकारिक इतिहासकारों ने लिखा है कि सोवियत व्यवस्था ने लिथुआनिया के भूमिपुत्रों को इस हद तक अमानुष, निराश, आत्महीन, कामचोर और अनैतिक बना दिया था कि उन्होंने भविष्य की सारी उम्मीदें खो दी थी। स्वाभिमानी किसान छोटी-छोटी चोरियाँ करने लगे, व्यापक व्यभिचार और नशाखोरी पूरे समाज में फैल गई। लोगों को राज्यतंत्र पर इस कदर निर्भर और मजबूर बना दिया गया कि उनकी सारी आकांक्षाएँ और ऊर्जा खत्म होती गईं।
उधर, यूरोप में एक रूसी साम्राज्य का स्वप्न कई सदियों से आकार ले रहा था जिसने कभी वैश्विक साम्राज्य बनने का सपना भी देखा था। लेकिन ऐसा 19वीं और 20वीं सदियों में ब्रिटेन, फ्रांस और बाद में जर्मनी की चुनौती वाली दुनिया में संभव नहीं हुआ। भारत में सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता युद्ध के समय भी संभवत: भारतीय नेताओं को लगा था कि चूँकि ब्रिटेन के प्रशिक्षित और अनुभवी सैन्य अधिकारी क्रीमिया युद्ध में तैनात होकर चले गए थे, तो वे अंग्रेजों को भारत से खदेड़ सकते हैं। सैन्य इतिहासकार लैरी एच एडिंगटन का भी कहना है कि क्रीमिया युद्ध 1857 के विद्रोह का अप्रत्यक्ष कारण था। उस दौर में भी रूस ने अफगानिस्तान और केंद्रीय एशिया के रास्ते भारत पर अधिकार करने का ख्वाब देखा था।
एक वैश्विक साम्राज्य का वह स्वप्न जीवित रहा और कम से कम कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में रूस ने अपने आसपास के करीब दो दर्जन देशों को मिलाकर उसे सोवियत संघ का सुनहरा नाम दे दिया। सन् 1989 में जब अपने अंतर्विरोधों और आर्थिक कमजोरियों से संघ का पतन हुआ तो उसकी राख पर पंद्रह देश पनप आए जिसमें से एक यूक्रेन भी है जिससे रूस फिर से लड़ रहा है।
खबरों के मुताबिक रूस की वर्तमान सरकार ने गोर्बाचेव की मृत्यु पर उन्हें राजकीय सम्मान देने से इनकार कर दिया है। शायद रूसी जनता को भी लगता है कि वे रूसी स्वप्न के विध्वंसक थे। लेकिन गोर्बाचेव की देन मानवता के लिए अमिट है। उनकी नीतियों से भले ही सोवियत साम्राज्य बिखर गया लेकिन इसने साबित किया कि एक बंद, निर्मम, तानाशाह और गैर-लोकतांत्रिक व्यवस्था कितनी खोखली होती है। सोवियत संघ साम्यवादी तानाशाही की गिरफ्त में फंसे उपनिवेशों का एक समूह था जहाँ की जनता मनुष्य के न्यूनतम अधिकारों के लिए तड़प रही थी।
दरअसल, वह व्यवस्था कुछ हजार या हद से हद लाख-दो लाख कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की थी जिनका विरोध करना मौत को आमंत्रण देना था। कहते हैं कि स्टालिन के लंबे शासनकाल में लाखों रूसियों को साइबेरिया भेजकर मार डाला गया। रूस के लोगों को विदेश जाने, पढ़ने-लिखने, स्वतंत्र मीडिया या प्रकाशन स्थापित करने की अनुमति नहीं थी। हाल यह था कि जब गोर्बाचेव ने सत्ता संभाली तो खुद उससे कुछ साल पहले तक वे रूस से बाहर नहीं गए थे और उन्हें पश्चिमी जगत की तरक्की और तकनीकी प्रगति का कोई खास अनुभव नहीं था!
ऐसे में जब उन्होंने भारी भरकम सोवियत व्यवस्था में बदलाव की कोशिश की तो वह व्यवस्था तिनके की तरह बिखर गई। सोवियत संघ में शामिल या कहें कि अधिकृत देश आजाद हो गए। इतना ही नहीं, रूस की जनता को भी बहुदलीय लोकतंत्र में जीने का अवसर मिला, हालाँकि वो व्यवस्था अभी तक वहाँ परिपक्व नहीं हो पाई है।
जहाँ तक भारत की बात है तो सोवियत विघटन से भारत को तात्कालिक झटका तो लगा क्योंकि इसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना एक मित्र खो दिया था और पाकिस्तान-चीन के ख्वाब आक्रामक हो उठे। लेकिन जल्द ही भारत ने आर्थिक उदारीकरण की राह पर कदम रख दिया और पश्चिमी देशों से संबंध सुधारने शुरू किए जिससे भारत को दीर्घकालिक लाभ मिला। आज भारतीय अर्थव्यवस्था संसार की पाँचवी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है। सोवियत पतन से भारत ही नहीं बल्कि संसारभर की वाम आच्छादित बौद्धिक गतिविधियों को भी धक्का लगा और कई देशों में, खासकर भारत में एक देसी, स्वाभिमानी और राष्ट्रवादी किस्म की चेतना का विस्तार होने लगा।
जहाँ तक वैश्विक स्तर की बात है तो जाहिर है सोवियत पतन से अमेरिका का वर्चस्व दुनिया पर हो गया लेकिन इस विघटन ने कथित तीसरी दुनिया के देशों के लिए भी रास्ता खोले तथा चीन व भारत की तरक्की के साथ एक नए एशिया के उदय का रास्ता भी साफ किया।
ऐसे में देखा जाए तो गोर्बाचेव की नीतियों ने पूरी दुनिया पर प्रभाव डाला। पिछली सदी के उत्तरार्ध में वे संभवत: ऐसे सबसे बड़े नेता हुए जिसने दुनिया में इतने व्यापक पैमाने पर प्रभाव डाला जो अभी तक जारी है। भले ही वे अपने देश और अपनी विचारधारा के लिए खलनायक की तरह रहे, लेकिन उन्होंने वो काम किया जो मानवता की दृष्टि से हजारों साल में कोई नेता कभी-कभार करता है।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)