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चहेते शिष्य के हाथों अपना ही महल ढहता देखते रहे आडवाणी

By नवीन जोशी, वरिष्ठ पत्रकार
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नई दिल्ली। वर्तमान राजनैतिक मंच के नेपथ्य में उदासी और उपेक्षा का चेहरा बने लालकृष्ण आडवाणी के लिए सन 2019 की होली "राजनीति हो ली" हो गयी। मोदी और अमित शाह की 'नयी भाजपा' ने आडवाणी जी को लोक सभा चुनाव का टिकट न देकर एक लम्बे, महत्वाकांक्षी और विवादास्पद राजनैतिक जीवन की शोक-कथा लिख दी है। इस शोक-कथा में अभी कुछ नाम और जुड़ेंगे। फिलहाल चर्चा आडवाणी की। इस आडवाणी कथा के त्रासद-प्रसंग कम नहीं। 1990 में आडवाणी की राम रथ यात्रा का संयोजक, संघ का प्रचारक वह ऊर्जावान युवक था जिसका नाम नरेंद्र मोदी है। आडवाणी के केंद्रीय राजनीति में सक्रिय होने के दौर में नरेंद्र मोदी के सिर पर उनका हाथ रहता है। मोदी तेजी से उभरते हैं और राज्य के मुख्यमंत्री बनते हैं। 2002 के भयानक दंगों में 'राजधर्म नहीं निभाने' से रुष्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेई मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहते हैं। आडवाणी मोदी का जोरदार पक्ष लेते हैं और अपने शिष्य को बचा ले जाते हैं।

चहेते चेले के हाथों अपना ही महल ढहते देखते रहे आडवाणी

2013 में यूपीए सरकार अपनी ही नाकामयाबियों के बोझ से दबी सता से बेदखल होने की बाट जोह रही थी। भाजपा सत्ता में वापसी के लिए जोरदार तैयारियां कर रही थी और आडवाणी प्रधानमंत्री बनने के अपने चिर-पोषित स्वप्न के साकार होने की प्रतीक्षा में थे, तब वही नरेंद्र मोदी उनकी राह में आ खड़े होते हैं। वे अपनी नयी टीम के साथ भाजपा में नेतृत्व की दावेदारी करते हैं और संघ मोदी के पीछे एकजुट हो जाता है। अपने ही शिष्य, अपने ही पाले-पोषे चेले की चाल से आडवाणी स्तब्ध रह जाते हैं। संघ नरेंद्र मोदी को 2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करना चाहता है। आडवाणी विरोध करते हैं। राष्ट्रीय कार्यकारिणी और चुनाव संचालन समितियों की बैठकों का बहिष्कार करते हैं। चिट्ठियाँ लिखते हैं। गुस्सा दिखाते हैं। कोई नहीं सुनता। उनके पुराने सखा और समर्थक भी मौन लगा जाते हैं।

आडवाणी बहुत कोशिश करते हैं कि कम से कम इतना तय हो जाए कि प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी का चयन चुनाव बाद के लिए छोड़ दिया जाए। उनकी यह बात भी नहीं सुनी जाती। जून 2013 में नरेन्द्र मोदी चुनाव प्रचार अभियान के मुखिया बनाए जाते हैं। और सितम्बर 2013 में उन्हें भाजपा के प्रधानमंत्री-प्रत्याशी करार दिया जाता है। आडवाणी का लम्बे समय से जतन से पाला सपना किर्च-किर्च बिखर जाता है। हताश-निराश आडवाणी घर में कैद हो जाते हैं। अपने ही चेले के हाथों यह पराजय उन्हें निरीह चेहरा बना देती है। हताशा में सीने के सामने जुड़े अपने कमजोर हाथों वाली तस्वीर उनकी लाचारी बयां करने लगती है।

मई 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं। अमित शाह उनके सेनापति। दोनों मिलकर आडवाणी को 'मार्गदर्शक मण्डल' में स्थापित कर राजनीति से उनका वनवास घोषित कर देते हैं। तो भी, एक आखिरी उम्मीद आडवाणी के लिए उनके शुभचिन्तक और प्रतिद्वंद्वी सामान्य राजनीतिक शिष्टाचार मानकर पाले रहते हैं। 2017 में राष्ट्रपति का चुनाव होना था और सभी मान रहे थे कि आडवाणी को यह पद मिल जाएगा। आडवाणी भी 'पी एम की कुर्सी न सही, प्रेसीडेण्ट ही सही' वाली मुद्रा में तनिक मुस्करा देते हैं। नरेंद्र मोदी सुनिश्चित करते हैं कि आडवाणी जी राष्ट्रपति भवन की दहलीज तक भी न पहुंचने पाएँ। किस्सा बहुत पुराना नहीं है, इसलिए दोहराने की आवश्यकता नहीं। आडवाणी का त्रासद किस्सा प्राचीन राज-दरबारों से लेकर वर्त्मान राजनीति तक की चालों और षडयंत्रों की याद दिलाता है। और अब, गांधीनगर की उनकी पुरानी सीट से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह चुनाव लड़ेंगे। 91 साल में आडवाणी जी के लिए पूर्णतया विश्राम करना उचित रहेगा, ऐसा संदेश दे दिया गया था। अब वे विरोध भी नहीं कर सकते।

1947 से आरसएस और 1951 में जनसंघ की स्थापना से उसके महत्त्वपूर्ण नेता रहे आडवाणी को संघ ने 1986 में अटल बिहारी बाजपेयी की जगह भाजपा का अध्यक्ष बनाया था. भाजपा राजनीति के हशिए पर थी। अटल जी का लोकप्रिय 'उदार' नेतृत्व 1984 के लोक सभा चुनाव में भाजपा के सिर्फ दो सांसद जिता पाया था। आडवाणी उग्र हिंदू नेता माने जाते थे। उनके भाषण आक्रामक होते थे। वे 'मुस्लिम तुष्टीकरण' और 'हिंदू-उपेक्षा' पर तीखे भाषण देते थे। तब 'सेकुलर' उन्हें साम्प्रदायिकता के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते थे। आडवाणी ने भाजपा को नये सिरे से खड़ा करने के लिए मुद्दे गढ़े और जो अवसर मिले उनको भुनाया. यह वह दौर था जब विश्व हिंदू परिषद अयोध्या में 'रामजन्म भूमि' पर 'बाबरी मस्जिद' की जगह राम मंदिर बनाने का अभियान शुरू कर रही थी। 1984 में रिकॉर्ड बहुमत से सत्ता पाने वाले राजीव गांधी 1986 आते-आते अपनी सत्ता बचाने के लिए 'हिंदू कार्ड' खेलने को मजबूर हो गये थे। उन्होंने 1989 में 'रामजन्म भूमि ' का ताला खुलवा दिया और 1989 में विहिप को विवादित जमीन में शिलान्यास की इजाजत भी दे दी।

राजीव गांधी की इस चाल को आडवाणी ने बहुत चालाकी से अपना बना लिया। उन्होंने राम मंदिर अभियान का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। 25 सितम्बर 1990 को सोमनाथ से शुरू हुई उनकी राम-रथ यात्रा ने देश में हिंदू-ध्रुवीकरण और साम्प्रदायिकता के इतिहास का नया अध्याय लिखा। 23 अक्टूबर 1990 को बिहार में जब लालू यादव ने उन्हें गिरफ्तार करवाया तब तक भारतीय राजनीति का परिदृश्य पूरी तरह बदल गया था. आडवाणी 'हिंदू हृदय सम्राट' बनकर छा गये थे। अगले चुनाव में लोक सभा में भाजपा की सदस्य संख्या दो से 85 पर पहुँच गयी। भाजपा ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अटल जी के नेतृत्व में तीन बार एनडीए सरकार ने शपथ ली, जिसमें पांच साल का एक पूरा कार्यकाल शामिल है। भाजपा को 1991 में 120, 1996 में 161 और 1998 में 179 और 1999 में 182 सीटें जिताने वाले आडवाणी ही थे, चाहे पार्टी अध्यक्ष कोई रहा हो।

अटल जी प्रधानमंत्री बने इसलिए कि आडवाणी तब कट्टर हिंदू चेहरा थे और सहयोगी दलों को उदार अटल सहज स्वीकार्य थे। भाजपा के सत्तारोहण का बाकी सारा श्रेय आडवाणी से कोई नहीं छीन सकता। इसलिए प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा उनके दिल में खूब सिर उठा रही थी। अटल जी की सरकार के 'शाइनिंग इण्डिया' दौर में आडवाणी की यह तमन्ना पूरा जोर मारने लगी थी। संघ और भाजपा ने भी यह मान लिया था अब आडवाणी की बारी है। सन 2004 के आम चुनाव में वे भाजपा का प्रधान्मंत्री-चेहरा थे लेकिन तभी से उनकी किस्मत ने पलटा खाना शुरू कर दिया था। आडवाणी की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए एनडीए को अपदस्थ कर यूपीए सत्ता में आ गयी। 2009 में आडवाणी को फिर आशा थी लेकिन यूपीए और भी ताकतवर हो कर सत्ता में वापस लौट आया। 2013 के बाद उनके साथ छल होने लगा। पहला धोखा उस संघ परिवार ने दिया जिसके वे बड़े चहेते हुआ करते थे। 2004 और 2009 की पराजय का दोष आडवाणी के सिर मढ़ते हुए भाजपा के लिए नये और युवा नेतृत्व की वकालत शुरू की। नरेंद्र मोदी नाम का जो नेता उनके विकल्प के तौर पर निकला वह उग्र राष्ट्रवाद, आक्रामक हिंदू-ध्रुवीकरण और हिंदुत्त्व की राजनीति का उनसे बड़ा खिलाड़ी निकला। गुरू को उसने उन्हीं के दाँव से चित कर दिया। एक अपेक्षाकृत युवा, तेजतर्रार खिलाड़ी और मौका पकड़ने और भुनाने में माहिर शिष्य का यह अपने लाचार बुजुर्ग गुरु को सलाम मान जाए या धोखा?

(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)

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English summary
Lok sabha Elections 2019: Lal Krishna Advani witnessed his dream house getting collapsed by his disciple.
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