विधानसभा की सदस्यता जाने पर हेमंत सोरेन के पास सीमित विकल्प
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के भ्रष्टाचार को लेकर अजीब संवैधानिक संकट खड़ा हो गया है। चुनाव आयोग ने मुख्यमंत्री को अपने नाम पर खदान आवंटित करा लेने का दोषी पाया है। लोक प्रतिनिधि कानून 1951 की धारा 19(अ) के अंतर्गत लाभ के पद पर रहते हुए किसी विधायी सदस्य का खुद के नाम खदान आवंटित करा लेना घोर भ्रष्टाचार की श्रेणी में है। लिहाजा, चुनाव आयोग ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को विधानसभा सदस्यता से अयोग्य घोषित कर दिया है। इस संबंध में चुनाव आयोग ने अपनी संस्तुति राज्यपाल रमेश बैंस को भेज दी है। हालांकि अब तक राज्यपाल की ओर से कोई फैसला आना बाकी है।
अब इसके बाद मुख्यमंत्री के पास इस्तीफा देकर खुद को बचाने के पांच प्रमुख विकल्प हैं। पहला विकल्प है कि नैतिकता को ताक पर रख दें। इस्तीफा दें। विधायक दल की बैठक बुलाएं। बैठक में फिर विधायक दल का नेता बनें। और नए सिरे से मुख्यमंत्री की शपथ ले लें। सदस्यता खत्म होने के बाद खाली हुए बरहेट विधानसभा सीट से छह महीने के अंदर उपचुनाव करवाएं। लड़ें और जीत आएं।
दूसरा विकल्प अल्प नैतिकता के तकाजे से जुड़ा है। यह पड़ोसी राज्य बिहार की राजनीति से मेल खाता है। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरने के बाद मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पत्नी राबड़ी देवी को शपथ दिलवा दी थी। झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन उसी तरह कुछ दिनों तक नेपथ्य की राजनीति करें। इस्तीफा देकर पत्नी कल्पना सोरेन को मुख्यमंत्री की शपथ दिलवा दें।
मगर इस दूसरे विकल्प को अपना लेना सोरेन परिवार के लिए लालू प्रसाद जैसा सरल औऱ आसान नहीं है। इससे सोरेन परिवार के आंतरिक कलह के दलदल में फंसने की आशंका है। इस आशंका से बचने के लिए ही मुख्यमंत्री सोरेन ने दुमका उपचुनाव में पत्नी कल्पना सोरेन को उतारने के बजाय बसंत सोरेन को विधानसभा में लाने का फैसला लिया था। बसंत सोरेन झामुमो के विधायक हैं।
तीसरा विकल्प है, उदार मन का परिचय देते हुए विधायक बसंत सोरेन को ही कुछ दिनों के लिए मुख्यमंत्री की शपथ दिलवाने की सोचें। लेकिन सोरेन परिवार के परिचितों का कहना है कि भाईयों में राम-भरत सरीखा रिश्ता नहीं है। लिहाजा, यह किसी भी सूरत में संभव नहीं है। वैसे भी विधायक बसंत सोरेन की विधायकी पर भी लाभ के पद के दुरुपयोग वाले मामले की तलवार लटक रही है।
चौथा विकल्प झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन को फिर से मुख्यमंत्री की शपथ दिलवा देना हो सकता था। लेकिन उन पर भी जनप्रतिनिधि कानून के उल्लंघन का मामला लंबित है। पांचवा विकल्प शिबू सोरेन की पत्नी को मुख्यमंत्री की शपथ दिला देने का है। लेकिन इससे सोरेन परिवार में नए समीकरण उभरने का खतरा है। दादा अथवा दादी के मुख्यमंत्री बनते ही हेमंत सोरेन के बडे भाई स्व. दुर्गा सोरेन की दो बालिग बेटियों राजश्री और जयश्री सोरेन की झामुमो की राजनीति में भागेदारी बढने की आशंका बढ जाएगी। दुर्गा सोरेन के निधन के बाद उनकी पत्नी सीता मूर्मू विधायक तो हैं, पर झामुमो की राजनीति में हाशिए पर हैं। दोनों बेटियां विपरीत परिस्थिति में राजनीति करते हुए दुर्गा सोरेन सेना के नाम से संगठन चला रही हैं। उनको राजनीति में अभ्युदय के लिए उचित समय का इंतजार है।
इन पांच विकल्पों के अलावा मुख्यमंत्री की कुर्सी जाते देख झामुमो के पास राज्यपाल से विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर देने का ठोस विकल्प है। फिर यह राज्यपाल पर है कि वह झारखंड को मध्यावधि चुनाव में उतारने के सुझाव को किस रुप में लेते हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली सरकार के पास पचास विधायकों का ठोस समर्थन है। इनमें खुद झारखंड मुक्ति मोर्चा के 30, सहयोगी कांग्रेस के 18, सीपीएम माले के एक और एनसीपी के एक विधायक शामिल हैं। 81 सदस्यों वाली मौजूदा झारखंड विधानसभा में प्रतिपक्ष के पास महज 31 सदस्यों का समर्थन है। ऐसे में प्रतिपक्ष की ओर से जोड़-तोड़ वाली किसी सरकार के बन पाने की गुंजाईश कम है।
बहरहाल, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को अयोग्य ठहराने वाला चुनाव आयोग का आदेश महत्वपूर्ण है। बेखौफ होकर भ्रष्टाचार का आनंद उठाने वाले राजनेताओं के लिए यह फैसला एक सबक है। इस बाबत मिली शिकायत पर चुनाव आयोग ने 22 मई को नोटिस जारी किया था। नोटिस पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और शिकायतकर्ता प्रतिपक्षी भाजपा के नेताओं की भरपूर सुनवाई हुई।
सुनवाई के दौरान मिली खतरे की आहट के बाद से ही मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ताबड़तोड लोकलुभावन फैसले लेने लगे। आयोग का आदेश राज्यपाल को बंद लिफाफे में भेजा गया। लेकिन उसका मजमून एक सांसद के ट्विटर हैंडल से पहले ही सार्वजनिक हो गया। यह अलग किस्म का अपराध है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इसे बड़ा मुद्दा बना रखा है। उन्होंने जबावी ट्विट में कहा कि संवैधानिक संस्थाओं के जरिए सरकार तो गिराई जा सकती है लेकिन जनसमर्थन जुटाया नहीं जा सकता है। मुख्यमंत्री के जनसमर्थन का मतलब यह कहना भी है कि भ्रष्टाचार झारखंड की जनता के लिए बेमतलब है। कई संदर्भों में यह सही भी है।
भ्रष्टाचार का यह मामला किसी और राज्य के संदर्भ में आया होता, तो कोहराम मच गया होता। मगर, मुख्यमंत्री सोरेन आयोग के फैसले से बेखौफ और निश्चिंत होकर तब तक काम करते रहे हैं, जब तक राज्यपाल के दफ्तर से आदेश नहीं आ जाये। आदेश आने के बाद वह अपनी जगह नेतृत्व के लिए किसी धवल छवि के शख्स की चयन प्रक्रिया में उलझने के बजाय फिर से चुनाव में जाने का मन बना सकते हैं।
परिवारवाद और भ्रष्टाचार देश के दो दुश्मन हैं। लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसके खिलाफ उठ खड़े होने का आह्वान तो किया है लेकिन यह शायद ही झारखंड की जनता पर लागू हो। क्योंकि यहां की राजनीति ने परिवारवाद और भ्रष्टाचार दोनो को ही गले लगा रखा है।
भ्रष्टाचार और झारखंड में चोली दामन का साथ
भ्रष्टाचार के मामले में झारखंड कमाल का राज्य है। मानों इस राज्य का भ्रष्टाचार से चोली दामन का साथ है। राज्य बने बाइस साल बीत गए, लेकिन भ्रष्टाचार से लड़ने या विरोध में खड़े होने की जीजिविषा कभी बन ही नहीं पाई। भ्रष्टाचारियों के दबाब में पहली सरकार की रवानगी से लेकर अब तक यहां कुछ नहीं बदला है। न तो लोकतंत्र परिपक्व हो पाया औऱ न ही लहलहाते भ्रष्टाचार की फसल का कोई सम्यक इलाज निकल पाया। प्राकृतिक संपदा से अटे पड़े झारखंड में ऊपर से नीचे तक फैला भ्रष्टाचार अब शायद किसी लोकलाज का हिस्सा ही नहीं रहा।
लिहाजा, सीबीआई, ईडी औऱ आईटी की रेड यहां की आम बात हो गई है। झारखंड को लेकर एक से बढ़कर एक मानक गढे जा रहे हैं। पूजा सिंघल जैसी आईएएस अधिकारी के घर से सबसे बड़ी कैश रिकवरी का मामला हो या भ्रष्टाचार के बल पर निर्दलीय विधायक के मुख्यमंत्री बनकर सरकार चलाने का मामला हो। झारखंड बनने से पहले बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू यादव ने चारा घोटाले में मौजूदा झारखंड की चाईबासा और दुमका ट्रेजरी को लूटने का काम किया था। इस मामले में दोषी औऱ सजायाफ्ता कैदी रहे। उनकी मदद से मुख्यमंत्री बने निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा के लिए अब तो जेल ही घर है। बाकी भी कोई बड़ा नेता दूध का धुला हो यह निश्चित रुप से कोई नहीं कह सकता।
भ्रष्टाचार ने झारखंड के किसी मुख्यमंत्री को कुर्सी पर बैठने के बाद से अब तक राजनीतिक स्थिरता का अहसास कभी नहीं होने दिया। पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी से सिलसिले की शुरुआत हुई। मरांडी को भ्रष्टाचार के अलंबदारों ने घेरकर बीच कार्यकाल में कुर्सी छोड़ने को मजबूर कर दिया। उस समय के भाजपा नेतृत्व ने भ्रष्टाचारियों से लड़ने की बजाय झुकने का जो फैसला लिया, वह लगता है झारखंड की शोणित में फैल गया।
उसके बाद से झारखंड की राजनीति में भ्रष्टाचार जैसे कोई मसला ही नहीं रह गया। भ्रष्टाचार को सत्ता की जरुरत मानकर चलने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। अब मध्यावधि चुनाव की ओर बढ रहे झारखंड में आगे देखने की बारी है कि परिवारवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता का कोई जनादेश आ पाता है या नहीं।
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