बिहार : क्या लॉकडाउन का फैसला राजनीतिक मसला है ? जान की कोई कीमत नहीं ?
पटना, 23 अप्रैल। कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए लॉकडाउन का फैसला, क्या राजनीतिक मसला है ? क्या राजनीतिज्ञ तय करेंगे कि लॉकडाउन लगेगा या नहीं ? या फिर महामारी से जूझने वाले विशेषज्ञों इस पर अपनी अंतिम राय रखेंगे ? राजनीतिज्ञ नफा-नुकसान के आधार पर फैसला लेंगे क्यों कि उनका अंतिम लक्ष्य चुनाव होता है। विशेषज्ञ बीमारी को ध्यान में रख कर फैसला लेंगे क्यों उनका लक्ष्य जिंदगी को बचाना है। अब बिहार में कोरोना पर राजानीति शुरू है। बिहार में कोरोना का संक्रमण भयावह रूप से बढ़ रहा है। लेकिन इस महामारी से निबटने के तरीके पर सत्तारुढ़ भाजपा और जदयू में मतभेद हो गया है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. संजय जायसवाल चूंकि पेशे से डॉक्टर हैं इसलिए उन्होंने बिहार में नाइट कर्फ्यू के औचित्य पर सवाल उठाया। उनकी राय में नाइट कर्फ्यू संक्रमण रोकने के लिए उपयुक्त उपाय नहीं है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इस फैसले पर भाजपा ने सवाल उठाया तो जदयू को ये बात अखर गयी। फिर दोनों दलों में राजनीति शुरू हो गयी। सर्वदलीय बैठक में भी किसी दल ने लॉकडाउन का समर्थन नहीं किया। तो क्या बिहार के महाराष्ट्र बनने का इंतजार किया जा रहा है ? ये तो हद है। जान की कीमत पर राजनीति हो रही है। पूर्व मंत्री और सत्तारुढ़ जदयू के विधायक मेवालाल चौधरी की अकाल मौत, बिहार की राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था पर करारा तमाचा है।
पिछले साल से अधिक भयावह स्थिति
बिहार में अब एक दिन में 12 हजार से अधिक संक्रमित मिलने लगे हैं। हर जिले में औसतन 65 केस मिल रहे हैं। राजधानी पटना की स्थिति सबसे खराब है। पिछले साल 20 अप्रैल की तुलना में इस बार पटना में 33 फीसदी अधिक संक्रमण है। पिछले साल कम संक्रमण था तब 15 अप्रैल से 3 मई (2020) तक लॉकडाउन लागू था। अभी कोरोना से बचाव के लिए बिहार में केवल नाइट कर्फ्यू लागू है। क्या नाइट कर्फ्यू संक्रमण रोकने के लिए उचित उपाय है ? इलाहाबाद हाईकोर्ट कह चुका है कि नाइट कर्फ्यू आंखों में धूल झोंकने के समान है। क्या जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए नाइट कर्फ्यू लागू किया गया है ? जब भीड़-भाड़ दिन में रहती है तो रात 9 बजे के बाद सख्ती करने का क्या मतलब है? पटना की सब्जी मंडियों, गल्लों की दुकानों में जो भारी भीड़ जुट रही वह भयावह है। अधिकांश जगहों पर सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हो रहा। पिछली बार तो सख्ती थी। इस बार तो कोई देखने वाला ही नहीं है। सब्जी मंडी रोज खुल रही है और यहां रेलमरेल है। अधिकतर दुकानदार मास्क भी नहीं लगाते। बस स्टैंड में तो भीड़ का आलम हैरान कर देने वाला है। पटना की मुख्य सड़कों पर और वीपीआइपी मुहल्लों में कभी-कभार चेकिंग होती भी है। लेकिन अधिकांश छोटे मुहल्लों की स्थिति कोरोना को न्योता देने वाली है। जनसाधारण में भी कोरोना से बचाव को लेकर कोई रुचि नहीं है।
संक्रमण बढ़ा तो संसाधनों की पोल खुली
अगर बिहार सरकार लॉकडाउन नहीं लगा सकती तो क्या वह बेपरवाह भीड़ को नियंत्रित भी नहीं कर सकती ? अगर लोग स्वेच्छा से सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं करें तो क्या करना चाहिए ? यूं ही मरने-मारने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए ? आज जब कोरोना से पूरे बिहार में हाहाकार मचा है तो सरकारी इंतजामों की पोल खुल गयी है। अस्पताल में बेड नहीं है। अगर बेड है तो ऑक्सीजन का सिलिंडर नहीं है। पटना में जिस तेजी से संक्रमण बढ़ रहा है उसके हिसाब से इंतजाम नहीं हैं। निजी अस्पतालों का कहना है कि मांग के हिसाब से सिलिंडर नहीं मिल रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक अभी हर रोज ग्यारह हजार सिलिंडर की जरूरत है तो मिल रहे हैं करीब छह हजार के आसापास। अब सरकार ने हर अस्पतालों में मजिस्ट्रेट तैनात कर सिलिंडरों की निगरानी की व्यवस्था शुरू की है। लेकिन सरकार के दावों के उलट अभी भी लोग आक्सीजन और बेड के लिए इस अस्पताल से उस अस्पताल में भटक रहे हैं। भीड़ नियंत्रित नहीं कर पाने की कीमत आखिर कौन चुका रहा है ? जब आपके पास संसाधन कम हों तो हालात को काबू में रखना जरूरी है।
"अब ये मत कहिए कि सब कुछ ठीक है"
कोरोना महामारी को राजनीतिक चश्मे से देखे जाने की वजह से हालात खराब हुए हैं। लोगों में गुस्सा भड़क जाएगा इसलिए सख्ती मत करो। समीकरण बिगड़ जाएगा तो क्या होगा ? अगर सख्ती की तो विरोधी दल को मुद्दा मिल जाएगा। वगैरह, वगैरह। माना जा रहा है कि इन्ही सब अंदेशों की वजह से वाजिब फैसला नहीं हो पा रहा है। कोरोन से निबटने में नीतीश सरकार का स्वास्थ्य विभाग नाकाम सबित हुआ है। छह दिन पहले ही कोरोना को लेकर पटना हाईकोर्ट ने स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव को कहा था, सब कुछ अच्छा है, ये तस्वीर मत दिखाइए। अगर सब कुछ अच्छा होता तो कोर्ट को इसमें हस्तक्षेप करने की जरूरत ही नहीं होती। कोर्ट ने यहां तक कहा था, कोरोना से निबटने की तैयारी के सरकारी आंकड़े अपने पास रखिए, हमें इन पर भरोसा नहीं। कोर्ट की इन टिप्पणियों से बिहार सरकार के कामकाज का अंदाजा लगाया जा सकता है।
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