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राजनीति में आकर एक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का भ्रष्ट हो जाना

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बात 2011 की है। जंतर मंतर पर अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चल रहा था। केन्द्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की सरकार थी। कोई सौ लोगों से शुरु हुआ धरना देखते ही देखते इतना विशालकाय आंदोलन बन जाएगा इसकी उम्मीद तो शायद उन अन्ना हजारे को भी नहीं थी जो इस आंदोलन के नायक थे। लेकिन 4 अप्रैल 2011 से जो धरना शुरु हुआ था वह चार पांच दिनों में एक विशाल देशव्यापी आंदोलन बन गया। जो जहां था वहीं से जंतर मंतर के लिए चल देना चाहता था। सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ मानों पूरे देश के मन में एक गुबार था जो अचानक से फूट पड़ा था।

How anti corruption movement became a corrupt party

केन्द्र की यूपीए सरकार को भी समझ नहीं आ रहा था कि सुरसा के मुंह की तरह फैलते इस आंदोलन को कैसे काबू किया जाए। तत्काल कपिल सिब्बल की अगुवाई में तीन मंत्रियों की एक कमेटी बनी और उन्हें जिम्मा सौंपा गया कि वो आंदोलनकारियों से बात करें। बातचीत हुई भी लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंची। आंदोलन जंतर मंतर से उठकर रामलीला मैदान पहुंच गया और इसमें बाबा रामदेव भी कूद गये। उस समय नेपथ्य में इतना कुछ चल रहा था जिसे एक लेख में लिख पाना संभव नहीं। जब सरकार को लगा कि बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंच रही है तो उन्होंने आंदोलनकारियों से अपील की कि अगर उन्हें राजनीतिक भ्रष्टाचार से इतनी ही दिक्कत है तो स्वयं राजनीति में आकर इसकी सफाई क्यों नहीं करते?

यह बात आंदोलनकारियों में अरविन्द केजरीवाल को जम गयी जो इस पूरे आंदोलन के सूत्रधार थे। आंदोलन में बाकी लोगों ने इसका विरोध किया। स्वयं अन्ना हजारे ने कहा कि आंदोलन का अंत राजनीति पार्टी बनाकर नहीं होना चाहिए। लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने किसी की नहीं सुनी। उन्हें ये डर तो था कि कुर्सी पर बैठकर लोग भ्रष्ट हो जाते हैं, इसलिए शायद हमारे लोग भी हो जाएं, लेकिन वो ये भी समझ रहे थे कि राजनीतिक दल बनाये बिना काम नहीं चलेगा। आंदोलन से जो लोग उनसे जुड़े थे वो उनको बेकार नहीं जाने देना चाहते थे। इसलिए तमाम विरोध के बावजूद आनन फानन में एक राजनीतिक दल बनाने का फैसला हुआ और उसका नाम दिया गया "आम आदमी पार्टी।"

इस आम आदमी पार्टी का जिसने नामकरण किया वह कोई और नहीं बल्कि वही मनीष सिसौदिया हैं जो लंबे समय से केजरीवाल के एनजीओ 'परिवर्तन' में उनके सहयोगी रह चुके थे। 2011 में जब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरु हुआ तब अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसौदिया अलग अलग थे। दोनों के बीच में इतने विरोधाभास पैदा हो गये थे कि दोनों अपना अलग अलग एनजीओ चलाने लगे थे। मनीष सिसौदिया आंदोलन के शुरुआती दिनों में उससे दूर ही थे लेकिन जब आंदोलन आसमान चढा तो अचानक से दोनों में सुलह समझौता हो गया। अरविन्द केजरीवाल मुद्दे उठाते हैं, माहौल भी बनाते हैं लेकिन उनकी कमजोरी ये है कि वो संगठन नहीं चला पाते हैं। उनकी इस कमी को मनीष सिसौदिया पूरा करते हैं इसलिए 'परिवर्तन' के समय से ही मनीष सिसौदिया अरविन्द केजरीवाल की 'मजबूरी' बन गये थे।

इधर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खत्म हुआ और उधर अरविन्द केजरीवाल तथा मनीष सिसौदिया आम आदमी पार्टी को आकार देने में लग गये। उन्होंने पूरी दिल्ली में घूम घूमकर बैठकें की। आंदोलन के दौरान जो वॉलटिंयर मिले थे, उनको अपनी पार्टी का पदाधिकारी नियुक्त करना शुरु किया। ये सारा काम 2012-13 में उन्होंने पूरा कर लिया और 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में सभी 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिये। उस समय अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि वो उम्मीदवारों का चयन उनकी ईमानदारी और समाजसेवा के आधार पर करेंगे। पहले चुनाव में कुछ हद तक उन्होंने इसका पालन भी किया लेकिन दो साल बाद 2015 में दोबारा जब दिल्ली में चुनाव हुए तो अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी बिल्कुल नये स्वरूप में सामने आ चुकी थी।

आम आदमी पार्टी का दिल्ली में उछाल किसी रॉकेट की तरह हुआ है। 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में उसने 70 में से 67 सीटें जीत लीं। यह देश की राजनीति के लिए बिल्कुल अनोखी बात थी कि मात्र तीन साल पहले जिस राजनीतिक दल का गठन हुआ था वह देश की राजधानी दिल्ली में इतने बड़े बहुमत से सरकार बनाने जा रही थी कि विपक्ष का नामो निशान मिट गया था। इसका श्रेय निश्चित रूप से उस आंदोलन को जाता है जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़ा हुआ था। लोगों को अरविन्द केजरीवाल से ईमानदारी की कोई ऐसी उम्मीद हो गयी थी कि यह आदमी जरूर राजनीति में कोई बड़ा बदलाव लायेगा।

मुख्यमंत्री के रूप में 49 दिनों के अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने इतने प्रकार के राजनीतिक स्वांग किये जिसे देखकर लगता भी था कि यह व्यक्ति सत्ता का गांधी साबित होगा। कौन भूल सकता है उन बातों को जब 2013 में वो अपनी नीली वैगन आर और पुराने सैंडल में दिल्ली की समस्याएं सुलझाने निकल पड़े थे। अरविन्द केजरीवाल ने सत्ता तंत्र को मानो आम आदमी की चुनौती पेश कर दी थी। उन 49 दिनों के कार्यकाल में दिल्ली की नौकरशाही भी मानों डर गयी थी और एकदम से जनसेवक का रूप धारण कर चुकी थी। लेकिन 2015 के बाद सब कुछ बदल गया।

अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसौदिया की जोड़ी ने अन्ना आंदोलन से देश को जो उम्मीद जगाई थी, उसे इन दोनों ने ही मिलकर धूल धूसरित कर दिया। अरविन्द केजरीवाल जो बच्चों की कसम खाकर कहते थे कि वो किसी सरकारी सुविधा का लाभ नहीं लेंगे, आज मुख्यमंत्री के रूप में आलीशान जीवनशैली जीते हैं। आंदोलन वाला केजरीवाल राजनीति में आते ही बिल्कुल नया केजरीवाल बन गया। आंदोलन के दिनों में उनके साथी बने हर उस व्यक्ति को उन्होंने अपनी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जिनसे उनको राजनीतिक विरोध की गुंजाइश दिखती थी। एकदम से ऐसे नये लोग आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा बन गये जिनका आंदोलन के दिनों में कहीं अता पता नहीं था। फिर वो सत्येन्द्र जैन हों कि राघव चड्ढा या फिर आतिशी मर्लिना।

आम आदमी के नाम पर दिल्ली में सरकार बनाने के बाद अरविन्द केजरीवाल ने बिजली पानी में रियायत जरूर दी लेकिन इससे होनेवाले राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए जो तरीके अपनाये वो अपवित्र और भ्रष्ट थे। सत्ता में पहुंचकर अरविन्द केजरीवाल का चरित्र भ्रष्टाचार विरोधी की बजाय भ्रष्टाचार हितैषी वाला हो गया। हालांकि एक सच ये भी है कि अरविन्द केजरीवाल पर आर्थिक भ्रष्टाचार का पहला आरोप किसी और ने नहीं स्वयं उस अन्ना हजारे ने 2013 में ही लगा दिया था जिसके नेतृत्व में आंदोलन चला था। अन्ना हजारे ने कहा था कि अरविन्द केजरीवाल लोकपाल आंदोलन से प्राप्त धन का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक पार्टी चलाने के लिए कर रहे हैं।

इसके बाद चंदे के गोरखधंधे में अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसौदिया बदनाम हुए लेकिन वो सरकारी भ्रष्टाचार नहीं थे। इसलिए न तो ऐसे आरोपों की जांच हुई और न कोई सजा तय हुई। लेकिन दिल्ली में सरकार बनाने के बाद उनकी सरकार और मंत्रियों पर ऐसे गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप हैं जो आरजेडी और समाजवादी पार्टी जैसी बदनाम पार्टियों के ऊपर भी नहीं हैं। अरविन्द केजरीवाल ने पार्टी और सरकार चलाने के लिए संभवत: भ्रष्टाचार को ही अंतिम उपाय मान लिया। उनके समर्थक ये तर्क दे सकते हैं कि जब बाकी दल ये काम कर रहे हैं तो केजरीवाल क्यों नहीं कर सकते?

यह तर्क मजबूत होता अगर आम आदमी पार्टी का जन्म भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से न हुआ होता। अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसौदिया और इन दोनों की आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ ही आंदोलन करके यहां तक पहुंची है। अगर वो भी उसी भ्रष्टाचार को जरूरी मानते हैं जिसके खिलाफ आंदोलन किया था तो फिर भविष्य में ऐसे आंदोलनों पर कोई कैसे विश्वास कर लेगा?

इन लोगों के भ्रष्टाचार से केवल एक पार्टी या सरकार के बदनाम होने का खतरा नहीं है। इनके ऊपर लगनेवाले भ्रष्टाचार के आरोपों से वह पवित्र आंदोलन बदनाम होता है जो दस साल पहले भ्रष्टाचार के विरुद्ध ही शुरू हुआ था। करोड़ों जनता के साथ साथ यह उन लाखों आंदोलनकारियों के साथ भी विश्वासघात है जिन्होंने जंतर मंतर पर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में हिस्सा लिया था। लेकिन केजरीवाल और सिसोदिया को सत्ता की मलाई का स्वाद लग चुका है। अब वे भी उसी राजनीतिक मानसिकता में रम चुके हैं जिसके विरोध ने उन्हें पहचान दी थी।

यह भी पढ़ेंः उद्धव या एकनाथ: कौन होगा शिवसेना का नया नाथ?

(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

English summary
How anti corruption movement became a corrupt party
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