दुनिया भर में हिजाब के विरोध में आंदोलन क्यों?
ईरान में हिजाब के विरोध में उठे आंदोलन के कारण हिजाब एक बार फिर चर्चा में है। ईरान से शुरू हुआ आंदोलन अब दुनिया के कई देशों में फ़ैल चुका है। भारत में भी सुप्रीम कोर्ट में इस पर एक लंबी बहस हुई है कि क्या स्कूलों में हिजाब पहनने की अनुमति दी जानी चाहिए या नहीं। ऐसे में समाज में भी हिजाब को लेकर तरह तरह के सवाल हो रहे हैं और विभिन्न पक्षकारों द्वारा इसके जवाब दिये जा रहे हैं।
शिया मुल्क ईरान में हिजाब की शुरुआत 7 मार्च 1979 को कट्टरपंथी नेता अयातुल्ला खोमैनी ने की थी। उससे पहले ईरान में ऐसा कोई कानूनी प्रचलन नहीं था और वहां महिलाओं की मर्जी पर निर्भर करता था कि उन्हें हिजाब पहनना है अथवा नहीं। मगर खोमैनी ने हिजाब को अनिवार्य बना दिया जिसके खिलाफ ईरान में लंबे समय से छुटपुट आंदोलन होते रहे हैं।
चरमपंथी क्यों थोपते हैं हिजाब?
दरअसल,
ईरान
में
हिजाब
को
लेकर
जो
कुछ
भी
हो
रहा
है
अथवा
हो
चुका
है,
वह
अंतरराष्ट्रीय
षड्यंत्र
का
एक
हिस्सा
है
जिसे
सिलसिलेवार
क्रम
में
विश्व
के
सभी
देशों
पर
थोपने
के
प्रयास
किये
जा
रहे
है।
विगत
वर्षों
में
प्रकाशित
कई
अंतरराष्ट्रीय
रिपोर्ट्स
के
मुताबिक
इसके
पीछे
कोई
सामान्य
धार्मिक
संगठन
नहीं
बल्कि
चरमपंथियों
का
हाथ
है।
हिजाब
के
माध्यम
से
चरमपंथी
मजहबी
संगठनों
को
वैचारिक
रूप
से
अपने
पैर
जमाने
का
एक
आसान
मौका
मिल
रहा
है।
विश्वभर
के
सभी
चरमपंथी
और
आतंकी
संगठन
हिजाब
की
अनिवार्यता
पर
जरुर
जोर
देते
है।
इसलिए
फ्रांस
और
बेल्जियम
जैसे
कई
देशों
में
इसे
प्रतिबंधित
किया
हुआ
है
और
कई
अन्य
देश
इस
दिशा
में
कदम
उठाने
की
तैयारी
कर
रहे
हैं।
हिजाब की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेकर मुस्लिम जगत एक राय नहीं है। वहां इसे लेकर कई तरह की अवधारणाएं अथवा भ्रम प्रचलित है। कुछ इस्लामिक स्कॉलर्स का कहना है कि यह इस्लाम के प्रारंभ से चली आ रही एक प्रथा है लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि इस्लाम में हिजाब का कोई स्थान नहीं था। सच्चाई जो भी है मगर फ़िलहाल यह बात समझने की बेहद जरुरत है कि वर्तमान में हिजाब को कौन लोग अथवा संगठन लड़कियों और महिलाओं पर थोपने की कोशिश कर रहे हैं?
अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त तहरीक ए इस्लामी पाकिस्तान (TTIP) ने साल 2008 में महिलाओं के लिए हिजाब अनिवार्य कर दिया था। ऐसा न करने पर पाकिस्तानी तालिबान ने उन्हें तेज़ाब से जलाने की धमकी भी दी थी। साल 2011 में सोमालिया में अलकायदा ने कथित 'चैरिटी' के नाम पर हिजाब बांटे थे।
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इसी साल एक सोमाली-ब्रिटिश कट्टरपंथी संस्था फराह फाउंडेशन ने अपने स्कूलों में छात्राओं के लिए हिजाब पहनना अनिवार्य कर दिया था। यह फाउंडेशन आतंकी संगठन हमास की एक सहयोगी संस्था है। इसी प्रकार फेतुल्लाह गुलेन मूवमेंट (Fethullah Gulen movement) नाम की एक संस्था है जोकि खिलाफत को फिर से स्थापित करने के लिए प्रयासरत है। इसके द्वारा संचालित स्कूलों में आज भी हिजाब अनिवार्य है।
हिजाब षड्यंत्र का भारत भी हुआ शिकार
ऐसे तीन-चार नहीं बल्कि सैकड़ों उदाहरण है जहाँ आतंकवादी संगठनों ने हिजाब को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है। इसी क्रम में, हिजाब षड़यंत्र का शिकार जनवरी 2022 में भारत भी हो गया। उस दौरान कर्नाटक राज्य के उडुपी शहर स्थित एक कॉलेज की छह छात्राओं को कॉलेज प्रशासन ने कक्षाओं में बैठने की अनुमति नहीं दी क्योंकि उन्होंने स्कूल के निर्धारित ड्रेस से अलग हिजाब भी पहना हुआ था।
भारत में स्कूल में ब्रिटिश व्यवस्था की भांति ही विद्यार्थियों की एक निश्चित यूनिफार्म होती है जिसे सभी छात्र एवं छात्राओं को पहनना अनिवार्य होता है। उडुपी के इस कॉलेज में पहले कभी छात्राओं ने हिजाब की मांग नहीं की थी। अचानक से उठी यह मांग इस बात को स्पष्ट करती है कि जैसे विश्व के अन्य देशों में जानबूझकर हालात पैदा किये जा रहे है वैसा ही कुछ भारत में करने की यह एक योजना थी।
इन छात्राओं को पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया (PFI) का समर्थन मिला जिसे हाल ही में भारत सरकार ने आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के चलते अगले पांच साल के लिए प्रतिबंधित कर दिया है। विदेशों में भारत के इस हिजाब प्रकरण को 'जस्टिस फॉर आल' (Justice for All) नाम की एक संस्था ने संवैधानिक एवं धार्मिक अधिकार से जोड़ दिया और संयुक्त राष्ट्र संघ से अपील करते हुए कहा कि वह भारत में हो रहे इस 'अन्याय' के खिलाफ कदम उठाये।
'जस्टिस फॉर आल' इस्लामिक सर्किल ऑफ नार्थ अमेरिका (Islamic Circle of North America - ICNA) की एक शाखा है। इसके संस्थापक जिहादी और आतंकी गतिविधियों का खुलकर समर्थन करते है। आईसीएनए का मुस्लिम अमेरिकन सोसाइटी (Muslim American Society - MAS) के साथ गठजोड़ है। यह एमएएस 1993 में बना और आतंकवादी और दूसरी कट्टरपंथी गतिविधियों सहित इजरायल के खिलाफ काम करता है।
इसमें कोई विवाद नहीं है कि हर धर्म की अपनी कुछ प्रचलित प्राचीन परंपरा एवं मान्यताएं होती है। पारंपरिक तौर पर हिन्दू, यहूदियों सहित ईसाई महिलाओं में सिर को ढकने का एक प्रचलन रहा है। मगर हिजाब के सन्दर्भ के साथ इन्हें इसलिए नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि इन धर्मों में महिलाओं को सिर ढकने अथवा न ढकने की पूरी आजादी है। उन्हें किसी आतंकवादी संगठन द्वारा जबरन सिर ढकने के लिए उकसाया नहीं जाता है न ही किसी प्रकार की मोरल पुलिस द्वारा निगरानी की जाती है।
जिस तेजी से वैश्विक स्तर पर आधुनिकता बढ़ी है उसी के साथ विश्व भर में महिलाओं ने इस रुढ़िवादी परंपरा को त्यागना भी शुरू कर दिया है। इसमें उनके परिवार एवं समाज दोनों का उन्हें समर्थन भी हासिल है, जबकि चरमपंथी मजहबी लोगों और संस्थाओं द्वारा इसे अब अपनाने के लिए दवाब डाला जा रहा है।
यही वह कारण जिसकी वजह से सामान्य समाज से हिजाब के खिलाफ आवाज उठ रही है। इक्कीसवीं सदी में हिजाब महिला स्वतंत्रता का दमन करता है। इस दमन की आड़ में चरमपंथी और आतंकी संगठन अपना एजेंडा चलाते हैं। इसलिए हिजाब प्रकरण को किसी की मजहबी आजादी से जोड़कर देखने की बजाय इसके पीछे सक्रिय लोगों की मानसिकता से जोड़कर देखने की जरूरत है।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)