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करोड़ों के चंदे के पीछे भारत को अस्थिर करने का खेल?

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पीएफआई पर देशव्यापी कार्रवाई से एक सवाल फिर उठा है कि क्या विदेशी चंदे के बल पर भारत को अस्थिर करने की कोशिश की जा रही है? पीएफआई पर की गयी कार्रवाई में एनआईए के साथ ईडी भी शामिल है जिसका संकेत है कि वह उनकी आर्थिक गतिविधियों की भी जांच कर रहे हैं। लेकिन अकेला पीएफआई तो ऐसा नहीं है जो चंदे के गोरखधंधे से देश को अस्थिर करने का प्रयास कर रहा है। कुछ दिन पहले दिल्ली और बंगलौर में कुछ एनजीओ पर भी आयकर विभाग ने छापेमारी की थी जिससे सवाल पैदा होता है कि विदेशी चंदों पर चलनेवाले एनजीओ का धंधा कितना साफ सुथरा है?

Foreign funding to destablise India

मनमोहन सरकार के दस साल और मोदी सरकार के आठ साल में यदि आप तुलना करते हैं तो पाएंगे कि मनमोहन सिंह सरकार पर एनजीओ वालों का प्रभाव साफ दिखता था। अरूणा रॉय, तीस्ता सीतलवाड़, ज्यां द्रेज, शबनम हाशमी, हर्ष मंदर जैसे एनजीओकर्मी किसी ना किसी प्रकार कांग्रेस के संपर्क में थे और सरकार चलाने में मदद भी कर रहे थे। यूपीए सरकार ने इसी वजह से एनजीओ में चल रही अनियमितताओं के सवाल पर मानों आंखें मूंद ली थी। विदेशी चंदे के दुरुपयोग को लेकर सबसे अधिक शिकायतें आ रही थी लेकिन सरकार की तरफ से ऐसे एनजीओ के खिलाफ कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।

सबसे सख्त कार्रवाई मनमोहन सरकार में यही होती थी कि एनजीओ को ब्लैक लिस्ट कर दिया जाता था। ये ब्लैक लिस्टेड एनजीओ दो-तीन महीने में नए नाम से वापस लौट आते थे और पहले की ही तरह उलटे-सीधे कामों में लग जाते थे। सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली एनएसी (नेशनल एडवाइजरी काउंसिल) भी लगभग एनजीओ वालों का ही समूह था, जिसमें दीप जोशी, फराह नकवी, अरूणा रॉय जैसे महत्वपूर्ण एनजीओकर्मी शामिल थे।

कुल मिलाकर वह देश में एनजीओ के विस्तार के लिए सबसे अच्छा समय था। राज भवन से लेकर बिहार की झुग्गी तक में एनजीओ का प्रसार हो गया था। उन्हीं दिनों एक रिपोर्ट आई थी जिसमें खुलासा हुआ कि प्रत्येक 400 लोगों पर भारत में एक एनजीओ है। वर्ष 2009 में जारी आंकड़ों के अनुसार देश में उन दिनों लगभग 33 लाख एनजीओ थे।
2014 में मोदी सरकार के आने के बाद भ्रष्टाचार में शामिल एनजीओ पर शिकंजा कसना प्रारंभ हुआ और धीरे धीरे एनजीओ कम होने लगे।

समाज की भलाई या निजी लाभ?

यह सच्चाई है कि समाज में सक्रिय अधिकांश एनजीओ का उद्देश्य समाज की भलाई के लिए कोई काम करने की जगह अपना निजी लाभ रह गया था। एनजीओ की आड़ लेकर पैसों की हेर फेर, हवाला कारोबार, धर्मांतरण, देश विरोधी गतिविधियां चल रही थी। कई अंतरराष्ट्रीय स्तर की एनजीओ भारत में अपने आय व्यय का सही-सही ब्यौरा तक नहीं दे पाई। ऐसे में उन्हें भारत से अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा।

गुजरात में एक एनजीओ वाली महिला जिन्होंने साम्प्रदायिक दंगों में मरने वाले सम्प्रदाय विशेष के लोगों की तस्वीर दुनिया भर में एक पीड़िता के साथ घूम घूम कर दिखाई। उससे मोटी रकम इकट्ठी हुई। उनके एनजीओ के खातों से यह स्पष्ट हुआ कि शवों के नाम पर इकट्ठा हुए पैसों से उन्होंने खरीददारी की और शराब भी पी। ऐसे एनजीओकर्मियों की वजह से देश में एनजीओ की छवि खराब हुई है।

कुछ दिन पहले जब आयकर विभाग के लोग दिल्ली स्थित ऑक्सफैम इंडिया और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के दफ्तर पहुंचे तो दिल्ली के एनजीओ सर्कल में फिर एक बार सरगर्मी तेज हो गई। इससे पहले ग्रीनपीस इंटरनेशनल और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की भी भारतीय जांच एजेन्सियां निगरानी कर रही थी। उन दिनों सरकार पर दबाव बनाने के लिए खूब लेख लिखे गए। टीवी पर बहस चलाई गई। लेकिन इन गतिविधियों का कोई विशेष लाभ एनजीओ बिरादरी को नहीं मिला। ग्रीनपीस इंटरनेशल को भारत से अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा।

यूपीए सरकार में एनजीओ के पास कितना पैसा आ रहा है, कहां से आ रहा है और किस मद में खर्च हो रहा है, इसका सही सही हिसाब किताब लिया ही नहीं गया। ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार ने 2014 के बाद से प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग, केन्द्रीय जांच ब्यूरो में नए और ईमानदार लोगों की भर्ती की हो। इन संस्थानों में काम करने वाले अधिकारी यूपीए सरकार के समय से ही काम पर हैं लेकिन अब ये मुस्तैदी से काम इसलिए कर पा रहे हैं क्योंकि उन्हें मोदी सरकार ने अवसर दिया है।

ऑक्सफैम, आईपीएसएमएफ और सीपीआर की जांच

ऑक्सफैम इंडिया और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की करें तो वहां जांच पड़ताल करके आयकर विभाग चला गया लेकिन अब तक जांच का परिणाम उन्होंने सार्वजनिक नहीं किया है। वैसे इन बड़े संस्थानों में करोड़ों का लेन देन हुआ है। उनके आर्थिक विषयों से जुड़ी फाइलों को पढ़ना और उसका विश्लेषण करना आसान काम नहीं है। संभव है कि सही सही जानकारी सामने लाने में जांच एजेसिंयों को थोड़ा वक्त लगे।

आयकर विभाग ने बेंगलुरू स्थित इंडिपेंडेंट एंड पब्लिक-स्पिरिटेड मीडिया फाउंडेशन (आईपीएसएमएफ) की भी तलाशी ली, जो 2014 के बाद अचानक सक्रिय हुए कई मीडिया प्लेटफार्म को पैसा मुहैया कराता है। इनमें आर्टिंकल 14 (समर हलानकर), कारवां (विनोद के जोस), सिटीजन (सीमा मुस्तफा), एच डब्ल्यू न्यूज (सुजित नायर), जनज्वार (प्रेमा नेगी), मोजो स्टोरी (बरखा दत्त), प्रिंट (शेखर गुप्ता), वायर (सिद्धार्थ वरदराजन), सीजी नेट स्वर (शुभ्रांशु चैधरी), ईपीडब्ल्यू (गोपाल गुरु), आल्ट न्यूज (प्रतीक सिन्हा), लाइव लाॅ (आल्ट न्यूज) के नाम प्रमुख हैं। इन नामों से जो लोग परिचित हैं, वे जानते हैं कि ये सभी एक खास विचारधारा से जुड़े हैं। संयोग से इस समय देश में भाजपा की सरकार है। ऐसे में कोई यदि बहुत सारी वेबसाइट्स में मोदी सरकार की आलोचना करने के लिए, उसके खिलाफ खबर छापने के लिए निवेश कर रहा है तो देश की जांच एजेंसियों का सतर्क होना स्वाभाविक है।

आईपीएसएमएफ को चलाने वालों में भी देश के शीर्ष नाम शामिल हैं। अजीम प्रेमजी फिलान्थ्रोपिक इनिशिएटिव प्रा लि, पिरोजशा गोदरेज फाउंडेशन, रोहिनी निलकेनी फिलान्थ्रोपीज, श्री नटराज ट्रस्ट, पीरामल एंटरप्राइजेज जैसे नाम महत्वपूर्ण है। इसके ट्रस्टियों के नाम का उल्लेख वेबसाइट पर मिलता है। इसमे अभिनेता अमोल पालेकर, प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन की सीईओ रूक्मिनी बनर्जी, वरिष्ठ पत्रकार मुकुंद पद्मनाभन, वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान का नाम शामिल है।

वैकल्पिक मीडिया के नाम पर जिन संस्थानों को आईपीएसएमएफ ने खड़ा किया है। इन वेबसाइटों से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि आईपीएसएमएफ द्वारा निवेश ही एक खास तरह की रिपोर्टिंग को बढ़ावा देने के लिए किया गया है।
बात सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की करें तो उनके साथ प्रताप भानू मेहता, मीनाक्षी गोपीनाथ, यामिनी अय्यर, श्याम शरण, रामा बीजापुरकर जैसे नाम जुड़े हुए हैं। सीपीआर की फैकल्टी और उनके शोधार्थियों में ऐसे नाम शामिल हैं जो विदेशी संस्थाओं से भी जुड़े हैं। खतरे की बात यह है कि थिंक टैंक का हिस्सा होने की वजह से इन फैकल्टी और शोधार्थियों की पहुंच देश के नीति निर्माताओं और कई संवेदनशील सूचनाओं तक होती है। ऐसी संदेह की स्थिति में देश की सुरक्षा एजेन्सी कुछ जांच करती है तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए।

वित्तीय वर्ष 2019-20 के सीपीआर की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार इसे विदेश से 33 करोड़ रुपये का दान मिला जो 04 करोड़ रुपये के घरेलू चंदे से लगभग आठ गुना अधिक है। यदि वर्ष 2015 से 2021 तक का कालखंड लें तो इस दौरान, सीपीआर को श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के सीनियर रिसर्च फेलो बिनय कुमार सिंह के अनुसार 'शैक्षिक उद्देश्य' के मद में लगभग 100 करोड रुपये की विदेशी मदद मिली है। अब सवाल उठता है कि सीपीआर ने यह पैसा स्वीकार कैसे किया? जबकि वह कोई शैक्षणिक संस्थान चलाता ही नहीं है।

जार्ज सोरोस का चंदा

सीपीआर को विदेशी संस्थाओं से खूब चंदा मिला है। कई बार चंदा लेते हुए नियमों की भी अनदेखी की गई। नमती, मेलिंडा और बिल गेट्स फाउंडेशन, फोर्ड फाउंडेशन, विलियम एंड फ्लोरा हेवलेट फाउंडेशन (एचपी फाउंडेशन), ओक फाउंडेशन , एशिया फाउंडेशन जैसी संस्थाएं उसे आर्थिक सहायता दे रहीं हैं। यह बात भी सामने आई है कि नमती के माध्यम से जॉर्ज सोरोस का पैसा भारत आ रहा है। नमती का काम मणिशंकर अय्यर की बेटी यामिनी अय्यर देख रहीं हैं। यामिनी सीपीआर से भी जुड़ी हैं। एक दूसरा एनजीओ ओपन सोसायटी फाउंडेशन जो नमती से जुड़ा है, उसमें बहुत सारा पैसा जॉर्ज सोरोस का लगा है। जॉर्ज सोरोस का इतिहास ही विकासशील देशों को अस्थिर करने और अलग अलग देशों में आंदोलनों को पैसा देकर अस्थिर करने का रहा है।

इतनी सारी जानकारी सामने होने के बाद क्या हम इस सवाल का जवाब तलाश पाएंगे कि पिछले दिनों आंदोलन के नाम पर देश में जो हिंसा, साम्प्रदायिक दंगे और फसाद हुए हैं, उसके पीछे क्या विदेशी चंदे की भी कोई भूमिका है? आखिर वो कौन लोग हैं जो भारत को अस्थिर करना चाहते हैं?

यह भी पढ़ेंः इंडिया गेट से: अशोक गहलोत की राजनीतिक जादूगरी अब काम आएगी

(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

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English summary
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