क्या कांग्रेस के 'डूबते जहाज' को बचा पाएंगे कन्हैया?
नई दिल्ली, सितंबर 28: क्या सीपीआइ के सांचे में ढले कन्हैया कुमार 136 साल पुरानी कांग्रेस का बेड़ा पार करेंगे ? ये सच है कि कांग्रेस सबसे बुरे दौर से गुजर रही है लेकिन क्या उसके रोग का उपचार कन्हैया जैसे पूर्व कॉमरेड के पास है ? वैसे नेता जिनकी परवरिश गैरकांग्रेसी परिवेश में हुई है, पार्टी के लिए मुफीद नहीं रहे हैं। ऐसे नेता भारत की सबसे पुरानी पार्टी की परम्परा में खुद को व्यवस्थित नहीं कर पाते हैं। नतीजे के तौर पर नाकामी ही हाथ आती है। क्या कांग्रेस भी यही मान रही है कि घर का जोगी जोगड़ा और आन गांव का सिद्ध ?
घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध ?
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधार में पले-बढ़े शंकर सिंह वाघेला भी अपने निजी कारणों से भाजपा को छोड़ कर कांग्रेस में आये थे। लेकिन हुआ क्या ? पिछले 23 साल से कांग्रेस गुजरात में सत्ता हासिल करने के लिए छटटपटा रही है। अब कांग्रेस की राह बाघेला से अलग है। दोनों का एक दूसरे से मोहभंग हो चुका है। संजय निरुपम पहले शिवसेना के फायरब्रांड नेता थे। हिंदुत्व के प्रखर वक्ता थे। बाद में उन्होंने कांग्रेस की राह पकड़ ली। कुछ समय तक तो सब ठीक रहा। लेकिन बात बिगड़ते देर न लगी। कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के पहले निरुपम को महाराष्ट्र प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया। अब उनकी पहचान कांग्रेस के बागी नेता के रूप में है। राहुल गांधी को उन पर अब ऐतबार नहीं। राजीव गांधी ने कांग्रेस के कायाकल्प के लिए चर्चित टेक्नोक्रेट सैम पित्रोदा की सेवाएं ली थी। लेकिन कांग्रेस के पुराने और रुढ़िवादी नेताओं ने पित्रोदा के आधुनिक सुधारों को लागू ही नहीं होने दिया। पित्रोदा की ईमानदार कोशिश बेकार चली गयी। कांग्रेस व्यक्तिपूजा और खुशामद की राजनीति में फंसी रही। ऐसे में अब सवाल यह है कि नये आबोहवा में कन्हैया कुमार क्या कर लेंगे ? कांग्रेस के पुराने मठाधीश क्या उनकी चलने देंगे ?
जो खुद नहीं जीता वो कांग्रेस को जिताएगा ?
पोस्टर ब्वॉय होना अगर बात है और चुनावी राजनीति में सिक्का जमाना अलग बात है। अपने जोरदार भाषण से कन्हैया कुमार ने खूब वाहवाही लूटी। पूरे देश में चर्चा का केन्द्र रहे। लेकिन चुनावी राजनीति में कोई कमाल नहीं दिखा सके। बेगूसराय में उनके प्रचार (2019) के लिए नामचीन सितारों ने लाइन लगा दी थी। जावेद अख्तर, शबाना आजिमी, प्रकाश राज, स्वरा भास्कर ने कन्हैया के लिए वोट मांगे थे। मेधा पाटेकर, तिस्ता सितलवाड जैसी दिग्गज सामाजिक कार्यकर्ता भी बेगूसराय पहुंची थी। ऐसा लग रहा था जैसे बेगूसराय से भारतीय राजनीति में एक नयी क्रांति का प्रस्फुटन होने वाला है। लेकिन जब रिजल्ट निकला तो सारी उम्मीदें बालू की भीत की तरह भराभरा गयीं। कन्हैया चार लाख से भी अधिक वोटों से चुनाव हार गये। चुनाव हारने के बाद कन्हैया बेगूसराय से बिल्कुल अदृश्य हो गये। लोग कहने लगे कि वे राजनीतिक पर्यटन के लिए बेगूसराय आये थे। 2020 के विधानसभा चुनाव में तजेस्वी यादव से होड़ की वजह से वे रंग नहीं जमा पाये। उन पर सुविधा की राजनीति का आरोप लगने लगा। जब बिना संघर्ष किये ही वे सीपीआइ में बड़ा ओहदा मांगने लगे तो उनके क्रांतिकारी सिद्दातों पर सवाल उठने लगे। कन्हैया न खुद चुनाव जीते हैं और न सीपीआइ को कोई मुकाम दिला सके। फिर भी कांग्रेस उन्हें मैच जिताऊ बल्लेबाज मान रही है तो कोई क्या कह सकता है ?
जब तक सोच नहीं बदलेगी, कांग्रेस कैसे बदलेगी ?
कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवाणी जैसे प्रगतिशील युवा नेता क्या कांग्रेस के परम्परावादी सोच को बदल पाएंगे ? प्रशांत किशोर खुद कह चुके हैं कि राहुल गांधी नये प्रयोग और जोखिम उठाने से डरते हैं। तो फिर कैसे बदलाव होगा ? क्या कन्हैया की इतनी हैसियत होगी कि वे राहुल गांधी या किसी और वरिष्ठ नेता को कोई सलाह दे सकें ? कांग्रेस के पुराने नेता कैसे किसी नये प्रयोग की राह में किस तरह दीवार बनते हैं, इस बात को समझने के लिए सैम पित्रोदा का उदाहरण सामने है। 1987 में राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स घोटाला का मुद्दा तूल पकड़ चुका था। प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मिस्टर क्लीन की छवि धूमिल हो रही थी। सैम पित्रोदा उस समय राजीव गांधी के तकनीकी अभियान के सलाहकार थे। पित्रोदा को भारत में सूचना क्रांति का जनक माना जाता है। राजीव गांधी उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे। धीरे-धीरे पित्रोदा राजीव गांधी के राजनीतिक सलाहकार भी बन गये। जब बोफोर्स का विवाद चरम पर था तब पित्रोदा ने राजीव गांधी को सलाह दी कि वे पब्लिक डोमेन में जा कर अपनी बात रखें ताकि लोग उनके बारे में सही धारणा बना सकें। अगर राजीव गांधी खुद सार्वजिनक रूप से बोफोर्स के आरोपों का जवाब देंगे तब विपक्ष का दुष्प्रचार अपने आप बेअसर हो जाएगा। तय हुआ कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी दूरदर्शन पर श्रोताओं के एक छोटे समूह से बातचीत के जरिये अपना पक्ष रखेंगे।
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वो बदलने देंगे तब न !
बोफोर्स जैसे बड़े विवाद को निबटाने के लिए यह एक पारदर्शी तरीका था। कांग्रेस की राजनीति संस्कृति के लिए ये बिल्कुल नयी बात थी। प्रधानमंत्री कार्यालय ने दूरदर्शन के इस कार्यक्रम के लिए तारीख तय कर दी। एक रविवार को इस कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग होनी थी। लेकिन कहा जाता है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अर्जुन सिंह की वजह से यह रिकॉर्डिंग नहीं हो पायी। 1996 में जब सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष थे तब पार्टी ने अपनी वास्तविक स्थिति जानने के लिए एक आंतरिक सर्वे कराया था। कांग्रेस में तब कॉरपोरेट कल्चर हावी था। अभिजात्य वर्ग के नेताओं को केसरी का अध्यक्ष बनना रास नहीं आ रहा था। केसरी कांग्रेस को पिछड़ावाद से जोड़ने की कोशिश कर रहे थे। कांग्रेस के पुराने नेताओं को ये बात पसंद नहीं थी। जिस कंपनी ने कांग्रेस पार्टी का आंतरिक सर्वे किया उसने अपनी रिपोर्ट अंग्रेजी में दी जिसमें उसने लिखा, कांग्रेस लिडरशिप इज एजेड एंड जेडेड। एक हिंदी अखबार ने इसका अनुवाद कुछ इस प्रकार छापा- सर्वे के मुताबिक कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व बूढ़ा और मरियल घोड़ा जैसा है। इस खबर के छपने के बाद सीताराम केसरी आगबबूला हो गये थे। सोनिया समर्थक नेता केसरी को अध्यक्ष पद से बेदखल करना चाहते थे। आखिरकार उन्होंने एक दिन ऐसा कर के दिखा भी दिया। जब बड़े बड़े सूरमा कांग्रेस को बदलने में नाकाम रहे तो नौसिखिए कन्हैया कुमार कितना कमाल कर पाएंगे ?