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अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी से क्या बढ़ जाएंगी पाकिस्तान की मुश्किलें

अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में पाकिस्तान ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. लेकिन अमेरिका के अपने सैनिक वापिस बुला लेना के बाद शांति वार्ता का क्या होगा?

By BBC News हिन्दी
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इमरान ख़ान और अशरफ़ ग़नी
Getty Images
इमरान ख़ान और अशरफ़ ग़नी

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने घोषणा की है कि अफ़ग़ानिस्तान में तैनात सभी अमेरिकी सैनिक सितंबर की 11 तारीख तक वापिस लौट जाएंगे. अमेरिका की इस डेडलाइन पर पाकिस्तान नज़र बनाए हुए हैं. पाकिस्तान का कहना है कि अमेरिकी सैनिकों के वापस जाने को अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया से जोड़ा जाना चाहिए. सूत्रधार के रूप में अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया में अहम भूमिका निभा चुके पाकिस्तान ने अमेरिकी राष्ट्रपति की घोषणा का स्वागत किया है और कहा है कि "अफ़ग़ान हितधारकों के साथ समन्वय में सैनिकों को वापिस ले जाने का" वो सैद्धांतिक रूप से समर्थन करता है. हालांकि वो ये भी उम्मीद करता है कि अफ़ग़ानिस्तान में राजनीतिक हल के लिए अमेरिका अफ़ग़ान नेताओं से बातचीत जारी रखेगा.

अफ़ग़ान सरकार और दूसरे पक्षों के साथ बातचीत शुरू करने के लिए तालिबान को राज़ी करने में बीते कुछ सालों में पाकिस्तान ने बेहद अहम भूमिका अदा की है. जानकार मानते हैं कि पाकिस्तान की मदद के बिना अफ़ग़ानिस्तान में जारी संघर्ष का हल खोजने के लिए शांति वार्ता को आगे बढ़ाना असंभव था. दिसंबर 2018 में पाकिस्तान ने ही अमेरिका और तालिबान के बीच सीधी बातचीत करवाई थी. इसी के बाद दोहा में दोनों पक्षों के बीच शांति वार्ता आगे बढ़ सकी थी.

इससे पहले जुलाई 2015 में इस्लामाबाद में तालिबान और अफ़ग़ान सरकार के बीच पहले दौर की सीधी बातचीत भी पाकिस्तान की कोशिशों का नतीजा थी. लेकिन ये बातचीत आगे नहीं बढ़ सकी क्योंकि लंबे वक्त से तालिबान के नेता रहे मुल्ला उमर की मौत के बाद तालिबान के भीतर गुट के नेतृत्व की लड़ाई शुरू हो गई और शांति वार्ता आगे बढ़ने से पहले ही रुक गई. ऐसे कई मौक़े आए जब अमेरिकी अधिकारियों ने अफ़ग़ान शांति वार्ता के लिए पाकिस्तान की भूमिका की सराहना की है.

वो ये भी समझते हैं कि अब जब अमेरिका और उसके मित्र देशों ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को बाहर ले जाने का फ़ैसला कर लिया है तो पाकिस्तान की भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है. वो नहीं चाहेगा कि क़रीब एक ट्रिलियन डॉलर खर्च कर, 2,300 अमेरिकी जानों को अफ़ग़ानिस्तान में गंवाने वाले बीस साल के युद्ध से जो कुछ हासिल हो सका है वो ऐसे ही ख़त्म हो जाए.

अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैनिक
AFP
अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैनिक

"और करने की ज़रूरत है"

अमेरिकी सैनिकों को अफ़ग़ानिस्तान से निकालने की घोषणा करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय जिहादियों को अफ़ग़ानिस्तान की सरज़मीन पर पैर न जमाने देने के वादे को पूरा करने के लिए अमेरिका "तालिबान को ज़िम्मेदार ठहराएगा." उन्होंने कहा कि वो "इस क्षेत्र के दूसरे देशों से अफ़ग़ानिस्तान और ख़ास कर पाकिस्तान का समर्थन करने के लिए अपील करेंगे."

हालांकि "हमें और अधिक करने की ज़रूरत है" का मंत्र न तो पाकिस्तान की अधिकतर जनता के गले उतर रहा है और न ही यहां के प्रशासन के. इनका मानना है कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ छेड़ी गई वैश्विक जंग के मामले में पाकिस्तान 73,000 जानें गंवा कर ज़रूरत से कहीं अधिक योगदान कर चुका है. हालांकि फिलहाल पाकिस्तान की यही कोशिश रहेगी कि अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया की जो गति हाल के दिनों में बनी है वो उसे आगे भी सुनिश्चित किया जाए.

पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा है, "पाकिस्तान बार-बार दोहराता रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान में शांति और स्थिरता हमारे हित में है. अफ़ग़ानिस्तान में शांति और स्थिरता लाने की कोशिशों के लिए वो अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ हाथ मिलाकर काम करना जारी रखेगा."

माइक पोम्पियो
Getty Images
माइक पोम्पियो

अफ़ग़ान मामलों के जानकार वरिष्ठ पत्रकार रहीमुल्ला युसुफ़ज़ई मानते हैं कि एक तरफ अमेरिका चाहता है कि पाकिस्तान, तालिबान पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करे और सैनिकों की वापसी की उसकी दी गई तारीख को स्वीकार करवाए तो दूसरी तरफ उसकी उम्मीद है कि अफ़ग़ान शांति वार्ता बेनतीजा ख़त्म न हो.

वो कहते हैं, "अब अफ़ग़ान शांति वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए तुर्की में होने जा रहे सम्मेलन से पहले तालिबान अपनी शर्तें रख सकता है. वो जेल में बंद अपने साथियों की रिहाई की मांग कर सकता है और अपने नेताओं के नाम ब्लैकलिस्ट से हटाने को लेकर भी अपनी मांग रख सकता है. लेकिन अमेरिका का मानना है कि पाकिस्तान ही है जो अब उसे बातचीत की मेज़ तक ला सकता है."

हालांकि रहीमुल्ला मानते हैं कि पाकिस्तान अकेले ऐसा कुछ सुनिश्चित नहीं कर सकता सामूहिक ज़िम्मेदारी है और इसमें सभी देशों को अपनी भूमिका अदा करनी होगी. वो कहते हैं कि कुछ साल पहले पाकिस्तान का जितना प्रभाव तालिबान पर हुआ करता था अब उतना रहा नहीं. इस बीच तालिबान ने भी अपनी रणनीति बदली है और वो कूटनीतिक तरीके से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है. तालिबान ने कई देशों से संपर्क किया है और क़तर में तो उसने अपना एक राजनीतिक कार्यालय खोला है. वो कहते हैं कि ऐसी स्थिति में तालिबान पर दवाब बनाने के लिए अकेले पाकिस्तान को ज़िम्मेदार ठहराना सही नहीं होगा.

वो कहते हैं, "इधर एक तरफ अफ़ग़ानिस्तान में उभरती स्थिति को लेकर पाकिस्तान चिंतित है तो दूसरी तरफ वो चाहता है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय. ख़ास कर अमेरिका में उसे अधिक महत्व मिले. पाकिस्तान ये भी सुनिश्चित करना चाहता है कि उसके ख़िलाफ़ अफ़ग़ानिस्तान की सरज़मीन का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा. वो ये भी चाहता है कि इस क्षेत्र में भारत का प्रभाव कम हो और अफ़ग़ान शरणार्थियों के प्रत्यावर्तन को मुद्दे को भी शांति प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाए."

अफ़ग़ान शांति वार्ता
MOFA
अफ़ग़ान शांति वार्ता

पाकिस्तान के लिए मुश्किल स्थिति

रहीमुल्ला युसुफ़ज़ई कहते हैं कि तालिबान के साथ हुए समझौते के अनुसार अमेरिका को अपने सैनिकों को चार महीने पहले ही अफ़ग़ानिस्तान से वापिस ले जाना चाहिए था लेकिन उसने इसमें देरी कर दी है. अब 'और अधिक करने की ज़रूरत है' से अमेरिका का मतलब है कि तुर्की में आयोजित होने वाली अफ़ग़ान शांति वार्ता में हिस्सा लेने के लिए पाकिस्तान, तालिबान को राज़ी करे. तुर्की के अधिकारियों के अनुसार इस वार्ता का उद्देश्य युद्ध को ख़त्म करना और राजनीतिक हल तक पहुंचना है. अमेरिका के समझौते का पालन न करने के कारण तालिबान पहले ही उससे नाराज़ है और अब तक तुर्की में होने वाली वार्ता में शिरकत करने को लेकर उसने कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा है.

विश्लेषकों का मानना है कि चूंकी अमेरिका ने बिना शर्त सैनिकों की वापसी की बात की है इसलिए अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया के सफल होने की उम्मीद बेहद कम है. कइयों को डर है यदि वार्ता बेनतीजा रही तो देश में एक बार फिर गृहयुद्ध छिड़ सकता है और तालिबान उन इलाक़ों पर अपना कब्ज़ा कर सकता है जो पहले उसके गढ़ नहीं रहे थे, और संभव है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में अपनी सरकार भी बना ले. 1996 में जब तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में अपनी सरकार बनाई थी और दुनिया के जिन तीन देशों ने उस सरकार को मान्यता दी थी उनमें से एक पाकिस्तान था. हालांकि मौजूदा वक्त पहले से अलग है और पाकिस्तान ने पहले की स्पष्ट कर दिया है अफ़ग़ानिस्तान में न तो वो तालिबान की सरकार चाहता है और न ही वो इस विचार का समर्थन करता है.

पाकिस्तान का ये बयान तालिबान को पसंद नहीं आया है. विश्लेषक हसन अस्करी रिज़्वी कहते हैं कि अमेरिका के बिना शर्त सैनिकों की वापसी कराने से पाकिस्तान के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं. वो कहते हैं, "अफ़ग़ान सरकार पाकिस्तान पर पूरा भरोसा नहीं करती. अपनी असफलताओं के लिए वो पाकिस्तान को दोषी करार देती रही है. वहीं अमेरिका अफ़ग़ान शांति वार्ता में पाकिस्तान की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार तो करता है लेकिन उस पर पूरी तरह भरोसा नहीं करता. रही तालिबान की बात तो वो अब पाकिस्तान के उतना क़रीब नहीं रहा जितना पहले हुआ करता था. ऐसे में पाकिस्तान मुश्किल परिस्थिति में फंस सकता है."

अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सेना
EPA
अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सेना

शरणार्थी संकट

बीते चार दशक से पाकिस्तान लाखों की संख्या में अफ़ग़ानिस्तान से आने वाले शरणार्थियों को अपने देश में पनाह देता रहा है. ये शराणार्थी किसी शरणार्थी शिविर में नहीं रहते, बल्कि देश के अलग-अलग इलाकों में आम नागरिकों के साथ घुलमिल कर रहते हैं. ये यहां शिक्षा प्राप्त करते हैं और यहां के व्यापार में भी बड़ी भूमिका अदा करते हैं. पाकिस्तान चाहता है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी ज़िम्मेदारी ले और जब अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य की चर्चा की जाए तो उसमें शरणार्थियों का मुद्दा भी शामिल हो. अमेरिकी सरकार के फ़ैसले पर पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय का कहना था, "पाकिस्तान का मानना है कि अफ़ग़ानिस्तान में स्थायी शांति और स्थिरता के लिए ही रही कोशिशों में, एक निश्चित समयसीमा के भीतर अफ़ग़ान शरणार्थियों को वापिस उनके देश में बसाने की व्यवस्थित योजना को भी शामिल किया जाना चाहिए."

हालांकि हसन अस्करी रिज़्वी कहते हैं कि अगर विदेशी सेनाओं के देश के बाहर जाने के बाद अफ़ग़ान शांति वार्ता नाकाम हो जाती है तो लंबे वक्त से गृहयुद्ध झेल चुके इस देश में एक बार फिर हिंसा का दौर शुरू हो सकता है. और ऐसा हुआ तो ये संभव है कि निकट भविष्य में पाकिस्तान को एक बार फिर शरणार्थी समस्या से जूझना पड़ सकता है.

वो कहते हैं, "पाकिस्तान पूरी ईमानदारी से ये सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहा है कि शांति प्रक्री जारी रहे क्योंयि अफ़ग़ानिस्तान में शांति और स्थिरता उसके हित में है. लेकिन उसके लिए बेहतर रणनीति यही होगी कि इस मुश्किल से निपटने के लिए अकेले कोशिश करने की बजाय वो चीन, रूस, तुर्की और ईरान जैसे देशों का साथ मिल कर काम करे."

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English summary
Pakistan has played an important role in furthering the Afghan peace process. But what will happen to the peace talks after the US withdraws its troops?
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