यूक्रेन युद्ध के एक साल: भारत और चीन ने रूस को कैसे जिंदा रखा हुआ है?
यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद ही अमेरिका और पश्चिमी देशों ने रूस को प्रतिबंधों को जाल में जकड़ दिया। अमेरिका करीब करीब हर तरह के व्यापारिक संबंध रूस के साथ खत्म कर चुका है।
One year of Ukraine War: यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के आज एक साल पूरे हो गये हैं औऱ आज से ठीक एक साल पहले रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के आदेश के बाद रूसी सैनिकों ने यूक्रेन के खिलाफ 'सैन्य अभियान' शुरू किया था। रूसी आक्रमण के बाद पहले 2 दिनों में तो यही लगा, कि रूस ज्यादा से ज्यादा एक हफ्ते में यूक्रेन पर कब्जा कर लेगा, लेकिन वक्त के साथ युद्ध की तस्वीर बदलती चली गई और एक साल बाद भी रूस इस युद्ध को जीतने में नाकाम रहा है। आईये जानते हैं, कि कैसे पिछले एक साल में एशिया के दो सबसे बड़े इकोनॉमी चीन और भारत ने रूस को इस युद्ध में जिंदा रखा हुआ है?
पश्चिमी प्रतिबंधों में बंधा रूस
24 फरवरी 2022 को यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद कॉर्पोरेट वर्ल्ड की प्रतिक्रिया ने पूर्वी देशों और पश्चिमी देशों के बीच के विभाजन को उजागर कर दिया। यूक्रेन युद्ध के बाद जैसे ही उत्तरी अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियों ने रूस के साथ संबंधों को तोड़ना शुरू किया, ठीक वैसे ही एशियाई कंपनियां उस ऑप्शन की तलाश करने लगीं, कि कैसे वो मॉस्को पर लगे प्रतिबंधों के बचे और रूस के साथ संबंधों का विस्तार करते हुए उस रिक्त स्थान की पूर्ति करे, जो पश्चिमी देशों की कंपनियों के हटने की वजह से बनी हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से यूरोप की तस्वीर अपरिवर्तित ही रही है, लेकिन यूक्रेन ने स्थिति को काफी हद तक बदल दिया है। पिछले एक साल में 1100 से ज्यादा पश्चिमी कंपनियों ने या तो रूस से अपना कारोबार पूरी तरह से समेट लिया है, या फिर अपना ऑपरेशन सस्पेंड कर दिया है। इनमें मैकडॉनल्ड्स, कोका-कोला, स्टारबक्स, ऐप्पल और नाइके जैसे बड़े नाम शामिल हैं।
एशियाई कंपनियों ने भी समेटा कारोबार
चीफ एग्जक्यूटिव लीडरशिप इंस्टीट्यूट (CELI) की रिपोर्ट के मुताबिक, 100 एशियाई कंपनियों ने भी रूस में अपना काम बंद कर दिया है। इनमें से अकेले जापान की आधी से ज्यादा कंपनियां शामिल हैं, जिन्होंने रूस में अपना कामकाज बंद कर दिया है। वहीं, चीन, दक्षिण कोरिया और भारत की कुछ मुट्ठीभर कंपनियां ही हैं, जिन्होंने रूस के साथ अपने संबंधों को खत्म किया है। लिहाजा, इस संघर्ष ने पूर्वी देशों और पश्चिमी देशों के बीच विभाजन रेखा को खींचा और युद्ध को लेकर अलग अलग धारणाओं को सामने लाया। मार्टिन रोल, सिंगापुर स्थित एक ब्रांडिंग सलाहकार और एशियाई ब्रांड रणनीति के लेखक ने अल जज़ीरा की एक रिपोर्ट में कहा है, कि "रूस एशिया और एशियाई लोगों के लिए कई मायनों में काफी दूर है। जब रूस का जिक्र किया जाता है, और जब यह एशिया में एजेंडे पर होता है, तो यह गहरे शीत युद्ध के मुद्दों और सामूहिक सामाजिक यादों के बजाय ज्यादातर ऊर्जा और व्यापार के मुद्दों के बारे में होता है।"
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यूक्रेन युद्ध: भारत और चीन
टोयोटा, सोनी, निसान और निन्टेंडो जैसे विश्व स्तर पर प्रसिद्ध ब्रांड उन 50 जापानी फर्मों में शामिल हैं, जो रूस से बाहर हो गई हैं या जिन्होंने रूस में अपना ऑपरेशन बंद कर दिया है। हालांकि, भारत और चीन ने रूस पर प्रतिबंध लगाना तो दूर, रूस की निंदा करने से भी इनकार कर दिया। इसके साथ ही भारत और चीन ने रूस से अपने ऊर्जा आयात को काफी बढ़ा दिया है। भारतीय कार निर्माता बजाज ऑटो और चीनी तकनीकी दिग्गज अलीबाबा और दीदी सहित कई बड़े ब्रांडों ने हमेशा की तरह रूस के साथ अपना कारोबार जारी रखा है। सीईएलआई के आंकड़ों के मुताबिक, कुल मिलाकर सिर्फ 12 चीनी और भारतीय कंपनियां ही हैं, जिन्होंने रूस के साथ अपने संबंध खत्म किए हैं। उन कंपनियों में बैंक ऑफ चाइना और टाटा स्टील शामिल हैं। इसके साथ ही, रूस अब भारत को तेल बेचने वाला सबसे बड़ा देश बन गया है, जबकि पिछले साल 24 फरवरी को रूस 10वें नंबर पर था।
भारत, चीन बनाम यूरोपीय देश
मलेशिया के कुआलालंपुर में ब्रांडिंग सलाहकार फ्यूज़नब्रांड के संस्थापक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी मार्कस ओसबोर्न ने कहा, कि संघर्ष के प्रति किसी क्षेत्र की महत्वाकांक्षा ही विदेशों में संघर्षों में शामिल होने के प्रति उनकी इच्छा या अनिच्छा को दर्शाती है। अलजजीरा की रिपोर्ट के मुताबिक, ओसबोर्न ने कहा, कि "मुझे लगता है कि यह अनिवार्य रूप से किसी देश का सांस्कृतिक मामला होता है, कि कोई देश किसी युद्ध में शामिल होने को लेकर कितनी इच्छा रखता है और उसे देश के नागरिक, उसकी भौगोलिक स्थिति, उसके विचार, क्या युद्ध को प्रोत्साहित करते हैं। वो युद्ध के बाद के हालातों पर विचार करते हैं, युद्ध के पॉजिटिव और निगेटिव असर पर विचार करते हैं और सोचते हैं, कि अगर हमारे क्षेत्र में संघर्ष होता है, तो इसका मतलब क्या होगा और क्या हम उसमें शामिल हो सकते हैं? दिल्ली विश्वविद्यालय में वाणिज्य के प्रोफेसर सुमति वर्मा और राजीव उपाध्याय ने कहा, कि इस क्षेत्र में यूक्रेन की स्थिति की तुलना में महामारी के बाद के आर्थिक सुधार और जीवन यापन के दबाव पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया गया है।
भारत और चीन की सोच क्या है?
वर्मा और उपाध्याय ने कहा, कि "महामारी के बाद के वैश्विक वातावरण ने दशकों में सबसे खराब आर्थिक डिप्रेशन रो बढ़ाया है, और देशों की प्रतिक्रियाओं ने अस्तित्व के घरेलू मुद्दों को सामाजिक और नैतिक चिंताओं के साथ जोड़ने का प्रयास किया है।" उन्होंने कहा, कि "वर्तमान संघर्ष ने वैश्विक संकट को बढ़ा दिया है, क्योंकि दुनियाभर में भोजन, तेल और उर्वरकों की कीमतें आसमान छू रही हैं, जिससे कई एशियाई देशों के लिए उनके घरेलू मुद्दे काफी जटिल हो गए हैं।" वहीं, रोल ने कहा, कि एशियाई ब्रांडों को ज्यादा दबाव का सामना नहीं करना पड़ा, जिसकी वजह से एशियाई कंपनियों को युद्ध की परिस्थितियों के मुताबिक खुद को ढालने का मौका मिलता चला गया और इसका सीधा फायदा रूस को पहुंचा है और यूरोपीय कंपनियों के बाहर होने के बाद भी रूस उस स्तर तक परेशान होने से बच गया, जिसकी उम्मीद अमेरिका और यूरोप ने की थी।