क्या शरद पवार के एजेंट के तौर पर काम कर रहे थे अजित पवार, भाजपा को दिए कितने जख्म?
नई दिल्ली- फिलहाल महाराष्ट्र की राजनीति की तस्वीर साफ हो चुकी है। शरद पवार ही असली किंगमेकर बनकर उभरे हैं। अजित पवार एपिसोड ने पूरे देश की राजनीति में उबाल ला दिया था। लेकिन, अब सबकुछ शांत नजर आ रहा है। अजित पवार सुबह का भूला की तरह पार्टी और परिवार दोनों जगह वापस लौट चुके हैं। जिस चचेरी बहन सुप्रिया सुले के चलते उन्हें पार्टी में अपनी महत्वाकांक्षा को मुकाम देने में खतरा नजर आया था, वही बहन अब उनके गले भी लग चुकी है और भैया के पैर छूकर सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद भी ले चुकी है। इन सबके बीच एनसीपी और शरद पवार परिवार के नए दोस्तों की ओर से जो संकेत मिल रहे हैं, उससे इस बात की आशंका पैदा हो रही है कि कहीं इस पूरे एपिसोड की स्क्रिप्ट खुद चाचा पवार ने ही तो नहीं लिखी थी और भतीजा सिर्फ एजेंट के रूप में भूमिका निभाने गया था?
चाचा के एजेंट बनकर बीजेपी के पास गए थे अजित पवार?
शिवसेना प्रवक्ता और एनसीपी एवं शरद पवार के नए सियासी मित्र संजय राउत ने जो कुछ भी कहा है उससे आशंका पैदा होती है कि अजित पवार के बीजेपी से हाथ मिलाने के पीछे भी खुद शरद पवार का ही दिमाग हो सकता है। एक अंग्रेजी न्यूज चैनल को दिए इंटरव्यू में जब राउत से सवाल किया गया कि नई सरकार में अजित पवार का रोल क्या रहेगा तो उन्होंने कहा- "अजित पवार की भी ठीक भूमिका रहेगी। वो भी हमारे हैं। आपने देखा है कितना बड़ा काम करके आए हैं अजित पवार।" यानि, अजित पवार भाजपा को बदनाम करके लौटे हैं? क्योंकि, इसके अलावा अजित पवार ने तीन दिन उपमुख्यमंत्री रहकर तो कुछ किया नहीं है। खुद अजित पवार ने भी चाचा के पास लौटकर यह बात दोहराई है कि, "मैंने कभी पार्टी नहीं छोड़ी थी। मैं एनसीपी में ही था, मैं एनसीपी में ही हूं और हमेशा एनसीपी में ही रहूंगा। पिछले कुछ दिनों से मीडिया ने मेरे बारे में गलत रिपोर्टिंग की है और मैं इसपर समय आने पर प्रतिक्रिया दूंगा।"
साख दांव पर लगने के बावजूद अजित पर नहीं की ठोस कार्रवाई
अजित पवार बच्चे नहीं हैं। वह राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हैं और बिल्कुल अपने चाचा से ही सियासती दांव-पेंच सीख कर यहां तक पहुंचे हैं। जब वह एनसीपी विधायक दल के नेता होने के नाते राज्यपाल के पास 54 विधायकों का समर्थन पत्र लेकर पहुंचे तो उन्हें पता था कि वे क्या कर रहे हैं। लेकिन, तीन दिन बाद उन्हें पार्टी, परिवार, नाते-रिश्तेदार और पारिवारिक मित्रों के कहने पर अचानक अपनी गलती का एहसास हुआ और वह भागे-भागे चाचा की शरण में लौट आए। चाचा ने भी उनकी वजह से अपनी साख पर बट्टा लगने दिया, लेकिन उनपर कड़ी अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की जरूरत नहीं समझी। एक वक्त उनकी वजह से शरद पवार कांग्रेस की ओर से भी संदेह के घेरे में आ गए थे। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि शरद पवार ने इतना सबकुछ क्यों बर्दाश्त किया?
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बीजेपी की छवि धूमिल की?
एनसीपी नेता अजित पवार पर हजारों करोड़ रुपये के सिंचाई घोटाले में शामिल होने के आरोप हैं। उनके खिलाफ महाराष्ट्र एंटी करप्शन ब्यूरो ने मामला भी दायर कर रखा है। 2014 के चुनावों में देवेंद्र फडणवीस ये दावा करते नहीं थकते थे कि बीजेपी की सरकार बनने पर पवार की जगह ऑर्थर रोड जेल में होगी। जब अजित पवार ने इसबार उनके उपमुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली तो उनका एक पुराना विडियो खूब वायरल हुआ। उसमें फडणवीस फिल्म शोले के धर्मेंद्र के डायलॉग की मिमिक्री करते हुए कह रहे थे कि "अजित पवार जेल में चक्की पीसिंग, पीसिंग एंड पीसिंग।" ऐसे में सवाल उठता है कि बीजेपी और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की न खाऊंगा और न खाने दूंगा वाली छवि खराब करने के मकसद से ही कहीं उन्हें सरकार बनाने के लिए 54 विधायकों का समर्थन पत्र देकर तो नहीं भेजा गया था ?
जनता के बीच बीजेपी की छवि धूमिल की ?
अजित पवार को जिस तरह से बीजेपी ने बिना ज्यादा कुछ सोचे-समझे फौरन गले लगा लिया था, उसकी वजह से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उसकी आवाज जरूर धीमी पड़ जाएगी। क्योंकि, बीजेपी नेताओं के पास इसपर बोलने के लिए ज्यादा कुछ नहीं रहेगा। इसके अलावा जिस तरह से गुपचुप तरीके से वहां पहले राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की सिफारिश पर राष्ट्रपति शासन हटाया गया और जिस तरह से किसी को भनक लगने दिए बिना देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार का शपथग्रहण हुआ, उससे आम जनता के बीच अच्छा मैसेज तो नहीं ही गया है। क्या यह भी शरद पवार की ही सोच का परिणाम था ? क्योंकि, प्रधानमंत्री मोदी हमेशा पारदर्शिता की वकालत करते नहीं थकते। ऐसे में इस मोर्चे पर भी बीजेपी की धार कमजोर पड़ सकती है।
एनडीए के सहयोगियों में दुश्मनी पैदा की ?
22 नवंबर की जिस रात अजित पवार समर्थन पत्र लेकर राज्यपाल के पास पहुंचे थे, उसी दिन शाम को खुद उनके चाचा ने ही उद्धव ठाकरे को महा विकास अघाड़ी की ओर से मुख्यमंत्री बनाए जाने का ऐलान किया था। लेकिन, अजित के पत्र के चक्कर में बीजेपी इतनी आतुर हो गई कि उसने इतना तसल्ली कर लेना भी जरूरी नहीं समझा कि क्या अजित पवार में इतनी ताकत है कि वह अपने चाचा के खिलाफ जरूरी संख्या में विधायकों को बगावत करने के लिए मना सकते हैं। इसका परिणाम ये हुआ कि उद्धव को लगा कि बीजेपी ने सारी चाल उन्हें मुख्यमंत्री बनने से रोकने के लिए ही चली है। मतलब, इस तरह से साथ में चुनाव लड़े बीजेपी और शिवसेना को फिलहाल इतना दूर कर दिया गया है कि उनका फिलहाल कभी साथ में आना अब काफी मुश्किल हो चुका है।