उत्तर प्रदेश चुनाव: राज्य पर हावी धार्मिक पहचान, कितने बँट गए हैं हिंदू-मुसलमान- स्पेशल रिपोर्ट
भारत का सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य राष्ट्रीय पहचान को लेकर चल रही बहस के केंद्र में है, यह चुनाव पहचान के उसी सवाल से सीधे जुड़ा हुआ है
उत्तर प्रदेश भारत की सबसे घनी आबादी वाला राज्य है. देश का हर पांचवा शख़्स यहाँ का है.
भारत की 543 लोकसभा सीटों में सबसे ज़्यादा 80 सीटों के प्रतिनिधि इसी राज्य से चुने जाते हैं. अपने आकार और जनसंख्या की वजह से यह राज्य भारत के राजनीतिक भाग्य का फ़ैसला भी करता है.
अगर राज्य का प्रदर्शन बेहतर होगा तो भारत का प्रदर्शन बेहतर होता है, उसका प्रदर्शन ख़राब हो तो देश का प्रदर्शन प्रभावित होता है. लेकिन कुछ चीज़ें ऐसी भी हैं, जिन्हें ठीक-ठीक आंकड़ों में नहीं बताया जा सकता है, लेकिन वे काल्पनिक चीज़ें नहीं हैं. जैसे राज्य की पहचान और समाज पर राजनीति का प्रभाव, पिछले कुछ सालों में राज्य की मिली-जुली संस्कृति में काफ़ी बदलाव दिख रहा है.
इस राजनीतिक-सामाजिक बदलाव को ख़ास तौर पर अवध के क्षेत्र में देखा जा सकता है जहाँ सदियों से मिल-जुल कर रह रहे हिंदुओं और मुसलमानों ने खान-पान, भाषा, संगीत, पोशाक और रोज़मर्रा के सामान्य शिष्टाचार को गढ़ा है.
गंगा-जमुनी तहजीब
कभी कानपुर से सांसद चुनी गईं सुभाषिनी अली की नज़रों में उत्तर प्रदेश की पहचान यहां की गंगा-जमुनी तहजीब रही है. गंगा जमुनी तहजीब का मतलब ठीक उसी तरह से हिंदू-मुस्लिम संस्कृति का मिलन है जैसे प्रयागराज में गंगा जमुना नदी का संगम होता है. यह एक तरह से अनूठी और साझी संस्कृति की निशानी है.
सुभाषिनी कहती हैं, "फ़िल्मों का हमारे समाज की लोकप्रिय संस्कृति पर गहरा असर रहा है. जबसे हिंदी सिनेमा की शुरुआत हुई तब गीतकार, पटकथा लेखक और कंटेंट को तय करने वाले लोग उत्तर प्रदेश के थे. सिनेमा में जितने भी बदलाव दिखे, वे यहां हो रहे बदलावों के अक्स थे. जब यहां प्रगतिशील लेखक फले-फूले तो इसका असर हिंदी सिनेमा पर भी दिखा. इसके चलते ही गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ. जो कस्बों और गांवों में फैली भी. हिंदुस्तानी भाषा का चलन भी बढ़ा और ये आज भी है."
राही मासूम रज़ा, कमाल अमरोही, ख्वाज़ा अहमद अब्बास, मज़रुह सुल्तानपुरी, शकील बदायूँनी, कैफ़ी आज़मी जैसे अनगिनत नाम हैं जिनका गहरा संबंध उत्तर प्रदेश और हिंदी सिनेमा से रहा है.
उत्तर प्रदेश को आम तौर पर पश्चिम बंगाल या तमिलनाडु या फिर किसी और अन्य क्षेत्रीय फ्लेवर वाले राज्यों में शुमार नहीं किया जाता. जैसा कि सुभाषिनी अली बताती हैं कि यूपी का प्रभुत्व कई दशकों से देश पर में रहा है, इसकी एक वजह तो राजनीतिक प्रभुत्व है और दूसरी वजह यह है कि सिनेमा, संगीत और साहित्य के ज़रिए यूपी की संस्कृति का भी काफ़ी प्रचार-प्रसार हुआ है. एक तरह से कहें तो भारत की अवधारणा पर उत्तर प्रदेश की मुहर लगी हुई है.
लेकिन प्रदेश की संस्कृति की पहचान अब महज गंगा-जमुनी तहजीब तक नहीं रही.
राज्य में मौजूदा समय में विचारों की लड़ाई लड़ी जा रही है. कह सकते हैं कि तलवारें तन चुकी हैं और हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थक पूरी ज़ोर-आजमाइश कर रहे हैं ताकि धर्मनिरपक्ष राष्ट्र को हिंदू राष्ट्र में बदला जा सके. हिंदू मुसलमानों के आपसी मेल की गंगा-जमुनी संस्कृति अब अतीत की बात लग रही है. बीते सितंबर महीने में विश्व हिंदू परिषद के मिलिंद परांजपे ने मथुरा में एक प्रेस कांफ्रेंस स्पष्ट तौर पर कहा कि "हिंदू पहचान सर्वोच्च होनी चाहिए."
साफ़ है कि राज्य में अब गंगा-जमुनी तहजीब के आलोचक कहीं ज़्यादा मुखर और मज़बूत हो रहे हैं.
संदीप बालकृष्ण को ट्विटर पर पीएम मोदी भी फॉलो करते हैं. संदीप धर्म डिस्पैच नाम का एक पोर्टल चलाते हैं, वे लिखते हैं, "हिंदुओं को रज़िया की तरह ऐतिहासिक अज्ञानता के लौकिक पर्दे से पार होना होगा और गंगा-जमुनी तहजीब को वास्तव में क्या है, इसे समझने की ज़रूरत है. अगर आप शिकारी की तहज़ीब में विश्वास करते हैं, जिसने अपने शिकार पर कुछ वक़्त के लिए हमला रोक दिया है, अगर आप मानते हैं कि भेड़ियों और भेड़ों का झुंड सौहार्द की एक ही झील से पानी पी सकता है, तो वही गंगा-जमुनी तहज़ीब है."
ख़तरनाक और गैंगस्टरों से भरे राज्य की छवि
दुनिया के बाकी हिस्सों में यूपी की पहचान की बात करें तो 1990 के दशक में राज्य की ग़रीबी ने बहुत ध्यान खींचा था लेकिन इन दिनों अपराध पर केंद्रित वेब सिरीज़ राज्य को अलग पहचान दे रहे हैं, ये वेब सिरीज़ माफ़िया, अपराध और सीरियल किलर पर केंद्रित हैं और इन्हें यूपी में दर्शाया जा रहा है.
मिर्ज़ापुर, रक्तांचल, बीहड़ का बाग़ी, भौकाल, असुर और रंगबाज़ जैसे सिरीज़ एक तरह से राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों की तस्वीर पेश करते हैं, जिनसे पता चलता है कि महिलाओं और बच्चों के ख़िलाफ़ राज्य में अपराध दर (मध्य प्रदेश के साथ) भारत में सबसे अधिक है. राष्ट्रीय महिला आयोग के अनुसार महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध की सबसे अधिक शिकायतें यूपी (और दिल्ली) से थीं.
लेकिन इन सबके साथ उत्तर प्रदेश की पहचान ऐतिहासिक भी है.
ऐतिहासिक तौर पर देखें तो उत्तर प्रदेश हिंदी पट्टी के बिहार और ओड़िशा जैसे राज्यों से अलग नज़र आता है. बिहार और ओड़िशा अंग्रेजों के ज़माने में बंगाल प्रांत का हिस्सा थे जबकि यूपी 1836 में स्थापित उत्तरी पश्चिमी प्रांत का हिस्सा था. यह कई प्रांतों का विलय करके स्थापित किया गया क्षेत्र था.
आज़ादी की पहली लड़ाई 1857 में लड़ी गई, उसके बाद 1858 में नवाबों के शहर अवध को भी उत्तर पश्चिम प्रांत में मिला दिया गया. 1902 में आगरा और अवध प्रांतों के साथ इसका पुनर्गठन किया गया था और 1921 में इसे आगरा और अवध का संयुक्त प्रांत (यूनाइटेड प्रॉविंस) कहा जाने लगा, लखनऊ को राज्य की राजधानी बनाया गया. 1931 में इसका नाम संयुक्त प्रांत किया किया गया. 1985 में भारतीय जन सर्वेक्षण के मानव विज्ञान सर्वेक्षण के मुताबिक राज्य में 308 समुदाय रहते हैं, यह भारत के किसी राज्य में समुदायों की दूसरी सबसे बड़ी संख्या है.
प्रदेश में कुल मिलाकर 37 भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन राज्य की पहचान हिंदी है. पत्रकार और लेखिका मृणाल पांडे कहती हैं, "यूपी की पहचान जटिल है. सलाद का कटोरा समझ सकते हैं जिसमें कई तरह की परतें और कई तरह की पहचान एक साथ अस्तित्व में हैं. रूढ़िवाद और सामंतवाद तो था, लेकिन कट्टरता नहीं थी, यह नई पहचान है जिसमें कट्टरता है. इस कट्टरता से समाज का ताना-बाना असहज तौर पर टूटा है."
मृणाल पांडे हिंदी पत्रकारिता के इतिहास पर एक पुस्तक लिख रही हैं. इस पुस्तक के लिए अपने शोध अध्ययन के दौरान उन्होंने पाया कि 1920 से ही, "हिंदू परिवारों में, भारतीयता और हिंदू धर्म के बारे में बहुत मंथन और भ्रम था, राजनीतिक दलों ने इसका लाभ उठाया और उन्होंने हिंदुत्व को लेकर फैले भ्रम को दूर करके एक निश्चित परिभाषा देने की मुहिम पर काम शुरू किया."
राज्य को हिंदी गहरे रूप में जोड़ता है. प्रदेश में महत्वपूर्ण बौद्ध केंद्र मौजूद हैं. इसमें कुशीनगर और सारनाथ जैसी जगहें हैं जो बुद्ध से सीधे जुड़ी हुई हैं. मुसलमानों के लिए, देवबंद विश्व स्तर का महत्वपूर्ण मदरसा है और बरेलवी समुदाय के कई केंद्र मौजूद हैं. इन सबके साथ हिंदूओं के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ राम और कृष्ण की जन्मभूमि (अयोध्या और मथुरा) तो हैं ही, धार्मिक आस्था केंद्र वाराणसी भी इसी राज्य में है.
यही वजह है कि बीजेपी के गठन से पहले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ ने हिंदू राष्ट्रवाद की परियोजना के साथ इस राज्य पर ध्यान केंद्रित किया था. 1990 के दशक के बाद से धार्मिक आधार पर विभाजन तेजी से बढ़े और इसकी एक लंबी कहानी है.
गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व में प्रमुख यूपी कांग्रेस का रंग पूरी तरह से हिंदूवादी था. देश के विभाजन के बाद बंगाल और पंजाब से मुसलमानों के एक बड़े वर्ग के पाकिस्तान जाने के फ़ैसले को धार्मिक विभाजन की लंबी छाया से जोड़कर देखा जा सकता है.
धार्मिक विभाजन की यह रेखा समय-समय पर दंगों के तौर पर उभर आती है, जिसमें जान-माल दोनों को नुकसान होता है. प्रदेश के अंदर 1980 के दशक में मेरठ और मुरादाबाद में यह दिख चुका है और हाल में यानी 2013 में मुजफ़्फ़रनगर में यह देखने को मिला. इससे राज्य की पहचान पर असर होता है.
ये भी पढ़ें -
- लखनऊ से होकर क्यों जाता है दिल्ली की गद्दी का रास्ता?
- 2007 की याद और सोशल इंजीनियरिंग के दम पर बसपा की छुपा रुस्तम बनने की उम्मीद कितनी सही?
मंडल, मंदिर और बाज़ार
अशोका यूनिवर्सिटी की राजनीतिक समाजशास्त्री प्रोफ़ेसर जूलियन लेवेस्क के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी पूरे देश की पहचान को भारत के सबसे बड़े राज्य की पहचान से जोड़कर रखना चाहती है. लेवेस्क के मुताबिक यह काशी कॉरिडोर के प्रधानमंत्री मोदी के उद्घाटन से ज़ाहिर है.
लेवेस्क का कहना है, "जय श्रीराम का नारा भारत में हिंदुत्व को बढ़ावा दे रहा है और भारत में जो इस्लामी संस्कृति है, उसकी उपेक्षा दिख रही है. यह काम चल रहा है. इसे आप जगहों के नाम बदले जाने से लेकर उत्तर प्रदेश की पर्यटन पुस्तिका से ताज महल को हटाए जाने तक में देख सकते हैं."
1990 के दशक में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण का भी यूपी की राजनीति और समाज पर गहरा असर हुआ. प्रदेश के लगभग हर ज़िले में एक अलग शिल्प कारीगरी की परंपरा रही है, जैसे भदोही में कालीन, फ़िरोजाबाद में कांच का काम, लखनऊ में चिकनकारी, मुरादाबाद में पीतल, अलीगढ़ में ताला और रामपुर में चाकू वग़ैरह, लेकिन जब पूरे भारत में आर्थिक सुधार लागू हुए तो उत्तर प्रदेश के परंपरागत शिल्प और कारीगरी को फ़ायदा नहीं मिला. यूपी इस मामले में दक्षिण और पश्चिमी राज्यों से पिछड़ गया.
क्रेग जेफ्री ने 'डेवलपमेंट फेल्योर एंड आइडेंटेटी पॉलिटिक्स इन उत्तर प्रदेश' में लिखा है, "1990 के दशक में यूपी का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) केवल 1.3 प्रतिशत बढ़ा, जो राष्ट्रीय औसत के एक तिहाई से भी कम था. 2000 के दशक में स्थिति बेहतर ज़रूर हुई लेकिन आर्थिक विकास दिल्ली की सीमा से सटे कुछ ही ज़िलों में ज़्यादा दिखा. विकास के आकंड़ों में निराशाजनक प्रदर्शन की एक वजह प्रदेश के अंदर सामाजिक विभाजन की मौजूदगी भी रही है."
जेफ्री ने लिखा है, "प्रदेश में सवर्ण हिंदुओं की आबादी लगभग 20 प्रतिशत है. समाज के दूसरे वर्गों की तुलना में यही लोग पैसे वाली या बेहतर नौकरियों में अधिक हैं, वे समाज पर काफ़ी असर रखते हैं. हिंदुओं में 'मध्यम जातियां' भी हैं, जो राज्य के कुछ ग्रामीण हिस्सों में सत्ता तक पहुंच को नियंत्रित करते हैं, मिसाल के तौर पर यादव या जाट. राज्य की बाक़ी आबादी में मुख्य रूप से मुस्लिम, दलित और ग़रीब ओबीसी तबका शामिल है, जो उच्च जाति के लोगों की तुलना में ग़रीब और कम शिक्षित हैं और सत्ता के केंद्रों तक उनकी पहुँच नहीं है."
ये भी पढ़ें -
- जब मुलायम सिंह और कांशीराम ने हाथ मिला कर किया कल्याण सिंह को चित
- गेस्ट हाउस कांड जिसने बढ़ा दी मायावती और मुलायम सिंह यादव के बीच तल्ख़ी
बहनजी एंड मंडल की तस्वीरें?
प्रदेश के जाति विभाजन और सभी जातियों को मुख्य धारा में समाहित करने की कोशिशों में भी समय के साथ उथल-पुथल देखने को मिला. 1967 का चुनाव के बाद राज्य में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ था, तब संयुक्त विधायक दल के नेतृत्व में बनी सरकार में अति पिछड़ा वर्ग के कुछ प्रभुत्व का संकेत मिला था.
समाजवादी दिग्गजों में सबसे बड़े और अकबरपुर से निकले राम मनोहर लोहिया ने "पिछड़े पावें सौ में साठ" का नारा दिया था लेकिन 1990 में लागू हुए मंडल कमीशन की रिपोर्ट के बाद ही पिछड़ी जातियां कुछ आगे आ पाईं. बिखराव और कई उप-जातियों के बावजूद यूपी के दलित सतर्क और राजनीतिक तौर पर जागरूक रहे हैं.
डॉ. आंबेडकर ने जब अनुसूचित जाति संघ की स्थापना की थी तो उन्हें इस राज्य में समर्थन हासिल हुआ था. 1984 में बसपा की स्थापना करने वाले कांशीराम को अपने गृह राज्य पंजाब में सबसे पहले कामयाबी की उम्मीद थी, क्योंकि पंजाब में दलितों की आबादी का सबसे ज़्यादा है, लेकिन उनकी पार्टी को पहली राजनीतिक कामयाबी उत्तर प्रदेश में मिली थी और उन्हें इस पर अचरज भी हुआ था.
दलित मुद्दों पर एक ब्लॉग चलाने वाले पूर्व आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी कहते हैं कि बसपा के सत्ता में आने के बावजूद दलितों का भला नहीं हुआ क्योंकि बुनियादी सवाल का हल नहीं हुए और सामाजिक स्थिति में कोई वास्तविक बदलाव नहीं हुआ. 'किसी भी क़ीमत पर सत्ता की तलाश' और 1996 में बीजेपी के साथ गठबंधन ने बहुजन समाज पार्टी की सामाजिक नीतियों और कार्यक्रमों को नुकसान पहुंचाया. दारापुरी कहते हैं, "सामाजिक भेदभाव की स्थिति में बदलाव की मुहिम को लेकर पार्टी को जो रफ़्तार मिली थी, वह खत्म गई."
ये भी पढ़ें -
- बीजेपी क्या योगी और मौर्य को सुरक्षित सीटों से मैदान में उतार रही है?
- उत्तर प्रदेश चुनाव: यूपी की राजनीति में छोटे दलों की क्या भूमिका है?
आगे की राह
राजनीति वैज्ञानिक प्रो. जोया हसन ने यूपी का गहन अध्ययन किया है और उन्हें लगता है कि प्रदेश की भविष्य की पहचान चुनावी नतीजों से जुड़ी हुई है. उन्होंने बताया, "धार्मिक पहचान ने मिश्रित पहचान को नष्ट किया है. धार्मिक पहचान और हिंदू-मुस्लिम भेदभाव की बातें स्पष्ट हैं. जहां मैं बड़ी हुई, उस लखनऊ में ऐसा नहीं था. धार्मिक मतभेद कोई मायने नहीं रखते थे. लेकिन अब एक अलग हिंदुत्व की संस्कृति हावी है और यूपी की मिश्रित सांस्कृतिक विरासत को मिटाने का एक सचेत प्रयास है. "
"जान-बूझकर राज्य की सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को बदलने का प्रयास है जो हिंदू राष्ट्र की दक्षिणपंथी राजनीतिक कल्पना के केंद्र में रहा है. इस विचार का एक लंबा इतिहास रहा है लेकिन उत्तर प्रदेश में अयोध्या आंदोलन के साथ इसे और अधिक व्यवस्थित रूप से बढ़ावा दिया गया, जिसका प्रदेश में सबसे अधिक प्रभाव रहा है. आज उत्तर प्रदेश के समाज पर हिंदुत्व की पहचान हावी है और राष्ट्रीय पहचान पर देश में चल रही बहस के केंद्र में है, हालांकि अभी अन्य राज्यों ने इस चुनौती का सामना नहीं किया है."
लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति और 39 वर्षों तक वहां दर्शनशास्त्र पढ़ा चुकीं 75 साल की रूपरेखा वर्मा अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए अब शहर में 'साझी दुनिया' चलाती हैं.
उनका मानना है कि 'गंगा-जमुनी' तहजीब को दोहराना ही समस्या का समाधान है.
उन्होंने बताया, "यूपी में पश्चिम बंगाल या तमिलनाडु की तरह विशिष्ट क्षेत्रवाद नहीं है, इसे नकारात्मक रूप में कहा जाता है जबकि यह बहुत सकारात्मक पहलू है. हमारे यूपी में सब इतना मिला-जुला है, संस्कृतियां मिली-जुली हैं कि चाहे वह भोजन हो, कपड़े हों, परंपराएं हों या अन्य चीजें हों, बगैर इस मिश्रित संस्कृति के यूपी की कल्पना असंभव है. इसका पोषण करना यूपी की ताकत होगी."
एक साथ कई पहचानों का होना उत्तर प्रदेश में समस्या नहीं है, लेकिन यह देखना होगा कि राज्य अपनी जटिल संस्कृति के साथ क्या करता है और किन शर्तों पर अलग-अलग सामाजिक समूहों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है.
हाल ही में पत्रकार-लेखक प्रदीप श्रीवास्तव की किताब 'उत्तर प्रदेश चुनाव 2022, जातियों का पुनर्ध्रुवीकरण' आई है, इसमें आज यूपी के सामने जो कुछ भी है उसका एक संक्षिप्त लेखा-जोखा है. श्रीवास्तव कहते हैं कि "2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान प्रदेश में अगड़ी जातियों के समूह ने सत्ता हासिल कर मंडल की राजनीति पर काबू पा लिया, यह विश्वास करना ग़लत होगा."
उनका मानना है कि बीजेपी सभी जातियों को अपने तंबू में शामिल नहीं कर सकी है और इसके कारण यूपी में एक बार फिर बेचैनी दिख रही है. उनके मुताबिक इस चुनाव में लोग जब वोट करेंगे तो उनके सामने केवल यह सवाल नहीं होगा कि वे किस पार्टी को चुन रहे हैं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक हलचल और उसको लेकर गहरे सवाल भी होंगे. "वह मंथन अब भी जारी है."
ये भी पढ़ें -
- ऑपरेशन कमबैक: कैसे मोदी और शाह ने डाला था यूपी को वापस बीजेपी की झोली में?
- भारत के रोज़गार संकट ने क्या एक पूरी पीढ़ी को 'नाउम्मीद' कर दिया है?
- उत्तर प्रदेश चुनाव: मोदी-योगी के बारे में क्या कह रही हैं बनारस की महिलाएं
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)