2019 में यूपी में नहीं है मोदी लहर, इसलिए बुआ-बबुआ ने पकाई सीटों की ये नई खिचड़ी
नई दिल्ली- उत्तर प्रदेश और बिहार दो ऐसे राज्य हैं, जहां 1952 से लगभग हर चुनावों में हार और जीत का फैसला जातिगत समीकरणों से तय होता आया था। लेकिन, 2014 के मोदी लहर ने खासकर यूपी में सभी जातिगत समीकरणों को तोड़ दिया था। उसका असर 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों तक भी देखा गया। लेकिन, बीते वर्षों में प्रदेश से होकर गंगा और यमुना का बहुत सारा पानी समंदर में बह चुका है। शायद यही कारण है कि 2019 के चुनावों के लिए बीएसपी और एसपी ने जो गठबंधन किया है, उसमें फिर से सीटों का बंटवारा जातिगत ताने-बाने के आधार पर ही गूंथने की कबायद की गई है। आइए समझते हैं कि दशकों तक एक-दूसरे के कट्टर विरोधी रहे दोनों दलों ने तालमेल के लिए 2009 के लोकसभा चुनावों को ही आधार क्यों बनाया है?
दो सीटों से समझिए तालमेल का पूरा गणित
एसपी-बीएसपी के बदले हुए चुनावी गणित को 2014 के दो सीटों के नतीजों से समझा जा सकता है। ये सीटें हैं- पूर्वांचल में वाराणसी से सटा मिर्जापुर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मुस्लिम बहुल अमरोहा सीट। मिर्जापुर में समाजवादी पार्टी को करीब 11% वोट मिले थे, जबकि उसकी मौजूदा सहयोगी बहुजन समाजवादी पार्टी को करीब 21%। जबकि, अमरोहा में तब समाजवादी पार्टी को लगभग 34% और बीएसपी को करीब 15% मत मिले थे। लेकिन, अबकी बार दोनों दलों ने इन सीटों की अदला-बदली कर ली है। 2014 में बीएसपी से कम वोट पाने के बावजूद भी मिर्जापुर से एसपी लड़ेगी, जबकि अमरोहा में अखिलेश की पार्टी से आधे से भी कम वोट लेने वाली मायावती की बीएसपी को दी गई है। गौरतलब है कि इन दोनों में पिछली बार अमरोहा पर बीजेपी और मिर्जापुर में उसकी सहयोगी अपना दल के उम्मीदार काफी अंतर से जीते थे। माना जा रहा है कि 73% मुस्लिम और करीब 18% दलित आबादी वाले अमरोहा में तब मोदी लहर के कारण मुस्लिम वोट एसपी और बीएसपी में बंट गए थे। जबकि, बीजेपी दलितों के एक हिस्से समेत बाकी जातियों को साधने में सफल रही थी। वहीं 26.47% दलित और 7% मुस्लिम आबादी वाले मिर्जापुर में 'अपना दल' को दलितों के एक तबके के अलावा गैर-यादव जातियों का भरपूर साथ मिला था। यही कारण है कि एसपी-बीएसपी ने ऐसी तमाम सीटों पर अपना दावा छोड़कर सहयोगी को सौंपने का फैसला किया है। दरअसल, इसबार एसपी यूपी की जिन 37 सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है, उनमें से 14 सीटें ऐसी हैं, जहां उसे 2014 में बीएसपी से कम वोट मिले थे। इसी तरह अगर बीएसपी की बात करें तो वह 12 ऐसी सीटों पर लड़ने वाली है, जहां वो 2014 में अपनी सहयोगी से पीछे रही थी। इन सब सीटों को बदलने के कारण लगभग वही हैं, जो अमरोहा और मिर्जापुर की हैं।
ज्यादा वोट लेकर भी सीट बदलने के दो मुख्य कारण
सीटें बदलने का पहला कारण है कि अब दोनों ही पार्टियां मानकर चल रही हैं कि 2019 में मोदी का तिलिस्म नहीं चलने जा रहा। यानि, पिछली बार जिस तरह से गैर-यादव पिछड़ी जातियां मोदी के पक्ष में बह गई थीं, इसबार वैसा नहीं होगा। क्योंकि, राज्य में बीजेपी की सहयोगी पार्टियों से तालमेल पहले जैसी नहीं हो पा रही है और ये तमाम पार्टियां किसी न किस पिछड़ी जाति के रहनुमाओं के इशारे पर चलती रही हैं। गौरतलब है कि प्रदेश में कुर्मी, कोइरी,लोध,सुनार जैसी अन्य पिछड़ी जातियां की जनसंख्या यादवों के दोगुना से भी अधिक है। इसी तरह गैर-जाटव दलित जातियां जैसे पासी और वाल्मिकी भी आबादी के हिसाब से बहुत प्रभावशाली हैं, जिनका समर्थन पिछले दफे बीजेपी को खुलकर मिला था। बदले हालात में बीएसपी को भी लगता है कि वे फिर से बहन जी का साथ देने को तैयार होंगी। दूसरा कारण ये माना जा रहा है कि तब मोदी लहर के प्रभाव में मुस्लिम मतदाता असमंजस में पड़ गया था। कहा जाता है कि ऐसा पहली बार हुआ,कि मुस्लिमों के वोट भी बंटे थे। कहीं एसपी-बीएसपी में, कहीं कांग्रेस में भी और कहीं-कहीं प्रभावशाली मुस्लिम प्रत्याशियों के पक्ष में। लेकिन, अब उन्हें लगता है कि बीएसपी और एसपी के साथ आने से कहीं कोई दुविधा नहीं रहने वाली है और मुस्लिमों का अधिकतर वोट इसी गठबंधन को मिलने की संभावना है।
आधी से अधिक सीटों पर जीतने का दम
अगर 2014 के चुनाव में ये दोनों पार्टियां मिलकर लड़ी होतीं तो 31 सीटों पर इन्हें साझा रूप से 40-50% तक वोट मिलते, जबकि 23 सीटों पर 30 से 40% ही वोट मिल पाते। जबकि, 2009 में 80 लोकसभा सीटों में समाजवादी पार्टी 23.4% वोट लेकर 23 सीटें जीती थीं और बीएसपी ने 27.5% वोट लेकर भी उससे कम यानि 20 सीटें ही प्राप्त कर पाई थीं। यानि, इन दोनों वोट प्रतिशत को जोड़ने से ये आंकड़ा 50% को भी पार कर जाता है। मतलब कि प्रदेश में 80 में से आधी से अधिक सीटों पर तो ये अपनी जीत पक्की माकर चल रहे हैं।
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