हिंदुओं का दिल जीतने के लिए होली खेलते थे ये अंग्रेज़ अफ़सर
होली के दिन लाल साहब यानी सर मेटकाफ़ ख़ास लिबास यानी कुर्ता पायजामा पहनते थे. लेकिन, 1857 की बग़ावत के बाद मेटकाफ़ हाउस की फ़िजां बदल गई. वजह ये कि जंगे-आज़ादी के दौरान ख़ानाबदोश गुर्जरों ने मेटकाफ़ हाउस को जमकर लूटा था और उसे तहस-नहस कर दिया था.
रंगों का त्योहार होली, सदियों से मनाया जाता रहा है. जब मुग़लिया सल्तनत अपनी आख़िरी सांसें ले रही थी और देश पर ब्रिटिश हुकूमत का दायरा बढ़ रहा था, तो अंग्रेज़ साहब बहादुर अपनी रियाया के साथ होली की महफ़िलें भी सजाया करते थे.
दिल्ली में कंपनी बहादुर के आला अफ़सर सर थॉमस मेटकाफ़ भी होली खेलते थे. इस बात पर आज शायद ही कोई यक़ीन करे. आख़िर सर थॉमस मेटकाफ़ कोई मामूली हस्ती तो थे नहीं. वो हिंदुस्तान में कंपनी सरकार के बड़े अफ़सर थे. ब्रिटिश सामंती ख़ानदान से ताल्लुक़ रखते थे. मुग़लों के दरबार में ईस्ट इंडिया कंपनी के नुमाइंदे थे.
ऐसे में कोई उनके होली खेलने के दावे करे, तो यक़ीन करना मुश्किल तो होगा ही.
लेकिन, मरहूम मिसेज़ एवरेट की क़िस्सागोई पर भरोसा करें, तो सर थॉमस मेटकाफ़ को रंगों के त्योहार से परहेज़ न था. बस, उनका हुक्म ये था कि घर के भीतर रंग का हुड़दंग न हो. आख़िर उनकी हवेली के मेहमानख़ाने में उनके हीरो नेपोलियन के बुत लगे हुए थे और सर मेटकाफ़ उन बुतों पर रंगों की बेतकल्लुफ़ बूंदें हरगिज़ नहीं पड़ने देना चाहते थे.
इस बात का कोई ज़िक्र नहीं मिलता कि सर मेटकाफ़ ने बसंत के साथ ही आने वाले रंगों के महीने फागुन का ख़ैरमकदम किया हो. लेकिन, नानी-दादी के क़िस्से ये बताते हैं कि दिल्ली के हिंदुओं का दिल जीतने के लिए सर मेटकाफ़ होली खेला करते थे. दरअसल, सर मेटकाफ़ ऐसा इसलिए करते थे ताकि मुग़लों की संस्कृति के प्रति अपने झुकाव और हिंदुओं के बीच संतुलन बना सकें.
मुग़ल कला-संस्कृति के प्रति सर मेटकाफ़ का लगाव इस क़दर था कि भयंकर लू वाली गर्मियों में भी वह मुहम्मद क़ुली ख़ां के मकबरे को तब्दील कर के बनाए गए घर में दिन गुज़ारते थे. हालांकि, क़ुली खां के मकबरे में रिहाइश बनाने से पहले सर थॉमस मेटकाफ़ सर्दियों के दिन मेटकाफ़ हाउस में बिताते थे. स्थानीय लोग इसे मटका कोठी कहते थे.
कैसे मनाते थे होली
उत्तर दिल्ली स्थित सर थॉमस की हवेली राजाओं, नवाबों, ज़मींदारों और सेठों से आबाद रहा करती थी. चांदनी चौक के रहने वाले रईस अक्सर उनके घर लाल गुलाल लेकर आते थे, ताकि लाल साहब पर उसे छिड़क सकें.
होली के दिन लाल साहब यानी सर मेटकाफ़ ख़ास लिबास यानी कुर्ता पायजामा पहनते थे. लेकिन, 1857 की बग़ावत के बाद मेटकाफ़ हाउस की फ़िजां बदल गई. वजह ये कि जंगे-आज़ादी के दौरान ख़ानाबदोश गुर्जरों ने मेटकाफ़ हाउस को जमकर लूटा था और उसे तहस-नहस कर दिया था.
असल में गुर्जरों को ये लगता था कि मेटकाफ़ हाउस को उनके पुरखों की ज़मीन पर तामीर किया गया था और, ये ज़मीन उनसे बहुत मामूली क़ीमत पर हड़प ली गई थी.
उस वक़्त तक सर थॉमस मेटकाफ़ गुज़र चुके थे. कहा जाता है कि उन्हें मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की सबसे प्यारी बीवी ज़ीनत महल ने ज़हर दे दिया था.
सर थॉमस की जगह मुग़लिया सल्तनत में ब्रिटिश रेज़िडेंट बन कर आए सर थियोफिलस मेटकाफ़ को 1857 की बग़ावत के दौरान बहुत ज़लालत झेलनी पड़ी थी. उन्हें अधनंगा कर के दिल्ली की सड़कों पर खदेड़ा गया था. बाग़ी सैनिक उन्हें तब तक दौड़ाते रहे थे, जब तक पहाड़गंज के थानेदार (पुलिस अधीक्षक) को उन पर दया नहीं आ गई. सर थियोफिलस मेटकाफ़ उस थानेदार से मिले घोड़े की मदद से राजपूताना भाग गए थे.
इसके बाद से सर थियोफ़िलस मेटकाफ़ दिल्ली के बाशिंदों के जानी दुश्मन बन गए थे. ऐसे में कोई ये सोच भी नहीं सकता था कि सर थियोफ़िलस अपने पूर्ववर्ती रेज़िडेंट सर थॉमस की तरह होली खेलेंगे.
हैलिंगर हॉल में होली
लेकिन, जब सर थॉमस होली खेल लेते थे, तो अपने कपड़े उतार कर अपने हिंदू नौकरों को दान कर देते थे. उनके घर के नौकर गोरे साहब का वो तोहफ़ा ख़ुशी-ख़ुशी क़ुबूल कर लेते थे. नौकर उन कपड़ों को पूरी गर्मियों भर पहना करते थे.
उस वक़्त सिविल लाइंस में रहने वाली मिसेज़ एवरेट का तो कम से कम यही कहना था. हो सकता है कि मिसेज़ एवरेट ने बातों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हो. पर उनकी बातें पूरी तरह से झूठी नहीं कही जा सकतीं. इसकी तस्दीक़ उस दौर में मशहूर क़िस्सों से भी होती है.
आज की बात करें, तो केवल डीआरडीओ के वैज्ञानिक और उनके कुनबे ही मटका कोठी में होली खेलते हैं.
दिल्ली में मेटकाफ़ हाउस की तरह ही आगरा के हैलिंगर हॉल में भी अंग्रेज़ जम कर होली खेलते थे. हैलिंगर हॉल को सर थॉमस मेटकाफ़ के बड़े भाई सर चार्ल्स मेटकाफ़ की हवेली की तर्ज़ पर बनाया गया था. उस दौर में दिल्ली से बहुत से फ़िरंगी यहां महीने में एक बार कॉकटेल और डांस की महफ़िलों में शामिल होने आया करते थे.
इसके अलावा यहां होली और दीवाली के जश्न भी होते थे. इनमें स्थानीय सेठ-साहूकार भी शामिल होते थे. सर चार्ल्स मेटकाफ़ का आगरे का मकान द टेस्टीमोनियल तो 1890 में रहस्यमय ढंग से लगी आग में तबाह हो गया था. मगर, हैलिंगर हॉल के खंडहर आज भी गुज़रे दौर की दास्तां सुनाते हैं.
हैलिंगर हॉल में कभी इसके मालिक टी.बी.सी. मार्टिन रहते थे. हमारे अब्बा हुज़ूर बताते थे स्थानीय लोग उन्हें मुन्ना बाबा कहते थे.
कुछ अन्य निशानियां
अगर आप आगरा जाएं, तो हैलिंगर हॉल के खंडहर आप को ज़िला अदालत की इमारत के पीछे मिल जाएंगे. इसके दूसरी तरफ़ शहीदों का क़ब्रिस्तान है, जो अकबर के ज़माने का है. इसके बगल में लेडी डॉक्टर उलरिक का बनवाया लॉज भी है. इसी सड़क पर आगे चल कर जानवरों का बाड़ा है. इसके बाद एक विशाल बंगला है, जहां पर आगरा के मजिस्ट्रेट बाल रहा करते थे.
बाद में इस बंगले में वक़ील टवाकले रहने लगे थे. आगरा की पुरानी सेंट्रल जेल के सामने एक पहाड़ी पर बने फूस के बंगले में बाल के बेटे रहा करते थे. अब वो पहाड़ी काटकर कॉलोनी बना दी गई है. पुरानी सेंट्रल जेल की जगह आज संजय प्लेस कॉम्प्लेक्स बना दिया गया है.
मिसेज़ उलरिक की क्लिनिक पीपलमंडी में थी. उन्होंने लंबी उम्र पायी थी और आज से क़रीब 70 बरस पहले जन्नतनशीं हुई थीं. मिसेज़ उलरिक एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाया करती थीं. वो बताती थीं कि एक बार होली में दंगे रोकने के लिए तैनात सिपाहियों को उन्होंने दावत दी थी. इसमें उन्होंने फ़ौजियों को बेसन की मोटी-मोटी रोटियां और कद्दू की सब्ज़ी परोसी थी.
खाना परोस कर मिसेज़ उलरिक चली गईं. जब वो लौटीं, तो देखा कि बेसन की रोटियां क़तार से दीवार के क़रीब रख दी गई हैं. सैनिकों ने कद्दू की सब्ज़ी तो खा ली थी, लेकिन रोटियों को ये सोचकर छोड़ गए थे कि वो किसी क़िस्म की तश्तरियां हैं. ये क़िस्सा पिछली सदी के शुरुआती दिनों का है. पर, आज तक लोगों के ज़हन में ताज़ा है.
आगरा के मजिस्ट्रेट रहे बाल अपने आप में अलग ही किरदार थे. 1857 की जंग के वक़्त बाल ही आगरा के मजिस्ट्रेट थे. बाद में उनके बेटे भी मजिस्ट्रेट बने. बाल के बेटे की बेटी बहुत अच्छी डांसर थीं. वो अक़्लमंद और बहुत ख़ूबसूरत थीं.
बुज़ुर्ग क़साई बाबूदीन का कहना था कि जब होली की पार्टी में नाचने के लिए मिस बाबा यानी बाल जूनियर की बेटी, अपनी बग्घी में बैठ कर सड़कों से गुज़रती थीं, तो उनके हुस्न का दीदार करने वालों की कतार लग जाती थी.
बाद में बाल जूनियर दक्षिण अफ्रीका जाकर बस गए थे. लेकिन अपने सहायक अमीरउद्दीन उर्फ़ भाई साहब से उनकी ख़तो-किताबत होती रहती थी. मजिस्ट्रेट के बंगले में बाद में रहने आए वक़ील टवाकले दुबले-पतले इंसान थे. वो ऐनक लगाया करते थे. उन्हें 1940 के दशक में जॉन मिल्स का रिसीवर नियुक्त किया गया था.
टवाकले के बरक्स उनकी बीवी हट्टी-कट्टी थीं. वो पहले कार से और फिर रिक्शे पर सवार होकर ख़रीदारी के लिए जाया करती थीं. दुकानदार, ख़ास तौर से क़साई का बेटा उनसे बहुत डरते थे. लेकिन, वो ढेर सारा सामान ख़रीदा करती थीं. ख़ास तौर से होली और दीवाली के दिनों में. इसीलिए दुकानदार, मिसेज़ टवाकले की धमकियों का बुरा नहीं मानते थे.
टवाकले जवानी में ही गुज़र गये थे. आज उनके बंगले में सरकारी दफ़्तर है.
हैलिंगर हॉल के अन्य क़िस्से
अब फिर से हैलिंगर हॉल के क़िस्से की तरफ़ लौटते हैं. मार्टिन परिवार मजिस्ट्रेट बाल के ख़ानदान से भी पुराना था. 1858 में मार्टिन सीनियर युवा हुआ करते थे. कहा जाता है कि उन्होंने झांसी की रानी के ख़िलाफ़ जंग लड़ी थी. रानी का पीछा करते-करते वो एक खलिहान में जा पहुंचे थे. तभी अचानक रानी ने पलटकर मार्टिन से कहा था कि वो उनका पीछा करना छोड़ दे. इसके एवज़ में इनाम के तौर पर वो एक गड़े हुए ख़ज़ाने की तलाश करे.
वर्जिनिया मैगुआयर बाद के दिनों में अक्सर अलाव के पास बैठकर ये क़िस्सा सुनाया करती थीं. वो कहती थीं कि मार्टिन ने झांसी की रानी की बात मानकर उनका पीछा करना छोड़ दिया था.
मार्टिन जूनियर कस्टम विभाग में कमिश्नर थे. वो नवाबों जैसी ज़िंदगी जिया करते थे. अक्सर वो बड़े लाव-लश्कर के साथ चला करते थे. वो ओल्ड टॉम नाम की मशहूर शराब पीते थे. ये मशहूर शायर चचा ग़ालिब की भी पसंदीदा शराब थी.
मार्टिन जूनियर के बंगले पर जब होली की दावतें होती थीं, तो वो शामी कबाब बहुत चाव से खाते थे. शाम को जश्न के दौरान महिलाओं को शर्बत परोसा जाता था.
हैलिंगर हॉल एक आलीशान इमारत थी, जिसे मार्टिन सीनियर ने बनाया था. बहुत से लोग इसे ह्रोथगर साम्राज्य के दौरान चर्चित हियोरोट हाल से जोड़ते थे. क़िस्सा मशहूर है कि प्राचीन योद्धा बियोवुल्फ़ अपने साथी सैनिकों के साथ उसमें रात बिताया करता था. और महादैत्य ग्रैंडेल ने समंदर के रास्ते धावा बोलकर बियोवुल्फ़ के एक सैनिक को मार डाला था. इसके बाद बियोवुल्फ़ ने उसका वध कर डाला था.
हालांकि, हैलिंगर हॉल के साथ ऐसा कोई क़िस्सा नहीं जुड़ा हुआ है. लेकिन, उत्तर भारत में अंग्रेज़ों ने जो पहला नाटक (ईस्ट लिन की शुरुआती पेशकश के बाद) पेश किया था, उसका मंचन हैलिंगर हॉल में ही हुआ था.
उस दौरान दरवाज़ों के ऊपर लगे झाड़-फ़ानूशों से पूरा मंज़र रौशन हुआ करता था. यूं कहें कि रूमानी रौशनी जवां दिलों को एक-दूसरे के क़रीब जाने और चूम लेने का हौसला दिया करती थी. ऐसा होली की पार्टियों मे भी होता था. हैलिंगर हाल की वो पुरानी यादें बुज़ुर्ग ख़ातूनों के क़िस्सों में बसी हैं.
आज वो इमारत देखकर क़तई एहसास नहीं होता कि एक दौर में ये शहर-ए-ताज की सबसे ज़िंदादिल महफ़िलें सजाती थी.
आज क़ब्र में दफ़्न हैलिंगर हॉल के मालिक अपने शानदार आशियाने की ख़स्ता हालत को देख कर यक़ीनन बेचैन होते होंगे. उन्हें हैलिंगर हॉल की अनदेखी के साथ ही यहां सजने वाली होली की महफ़िलें और बाल डांस की दावतें याद आती होंगी. जो उस दौर में दिल्ली के मेटकाफ़ हाउस में होने वाले जश्न से क़तई कमतर नहीं थीं.