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बच्चों की परवरिश: माता-पिता बच्चों के साथ ये काम बिल्कुल ना करें

अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर माँ-बाप अक्सर ख़ुद को लाचार पाते हैं. अक्सर डर और घबराहट की स्थिति बनी रहती है.

By BBC News हिन्दी
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बच्चों की परवरिश
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बच्चों की परवरिश

बचपन में कुछ देर के लिए, कहीं खो जाने की कहानियां मेरी उमर के ज़्यादातर लोगों के पास मौजूद होंगी.

अपने माता-पिता के साथ किसी सार्वजनिक जगह पर होना और अचानक पता चलना कि मम्मी-पापा में से किसी का भी हाथ नहीं पकड़ा हुआ है, उनसे अलग होकर अपने आप को भटका हुआ पाना और भीड़ में यकायक खो जाना. ऐसी यादें हम सबके पास हैं.

तब की दुनिया शायद ज़्यादा परिचित और अपेक्षाकृत छोटी थी और माँ-बाप भी अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर इतने बदहवास नहीं रहते थे. हालाँकि उस दौर में कोई मोबाइल फ़ोन भी नहीं था.

ऐसी ही एक घटना मुझे भी याद है. जब मैं अपनी एक छोटी फुफेरी बहन के साथ पंजाब के छोटे से क़स्बे, फ़रीदकोट की गलियों में खो गई थी. उस वक़्त मेरी उम्र पाँच साल थी.

परिवार में एक शादी थी और सारे बड़े लोग किसी रस्म के लिए दुल्हन के घर गए हुए थे. बारात को जहाँ ठहराया गया था, वहाँ हम कुछ छोटे बच्चे ही थे. मेरे पास दादी और बुआओं से मिले कुछ पैसे थे.

अपनी उस छोटी सी फुफेरी बहन को मैंने समझाया कि वह मेरे साथ चले तो पास के दुकान से टॉफ़ियां ख़रीदी जाएं. मुझे यक़ीन था कि वापसी का रास्ता मुझे मालूम है.

हमने टॉफ़ियां ख़रीदीं और फ़रीदकोट की छोटी-छोटी गलियों में खो गए. इनमें कुछ गलियां तो चंद क़दमों के बाद किसी घर के आगे बंद हो जाती थीं.

लेकिन अपनी छोटी बहन का हाथ मैंने बहादुरी से थामे रखा और चलती रही. काफ़ी देर तक हम खोए रहे. फिर एक आदमी की नज़र हम पर पड़ी जो अपने घर के सामने स्कूटर की सर्विसिंग कर रहे थे. हमने बताया कि हम दोनों उस घर में आए हुए हैं, जहाँ शादी है, तो उन्होंने और लोगों की मदद ली और आख़िर में हम घर पहुँचाए गए.

बच्चों की परवरिश
Natasha Badhwar
बच्चों की परवरिश

बुआ ने जब छोटी बहन को पीटा

वहाँ पहुँचने पर गली में हमें वयस्कों का एक झुंड बहुत चिंता में दिखाई पड़ा. मुझे आज भी याद है कि,अब मैं फिर से सुरक्षित हूँ, यह सोचकर उस समय कितनी गहरी राहत महसूस हुई थी. लेकिन मेरी बुआ, जो मेरे साथ गई बहन की मां थीं, सीधे हमारी तरफ़ आईं, अपनी चप्पल उतारी और उसी से चार साल की अपनी बेटी को कई बार मारा.

एक पैरेंट और उसके बच्चे के बीच के उस दृश्य को मैं कभी नहीं भूल पाई. हमें उम्मीद थी कि बड़े लोग हमें प्यार करेंगे और गले से लगा लेंगे, लेकिन मेरी छोटी सी बहन को घर से भटक जाने के लिए बुरी तरह पिटाई खानी पड़ी और काफ़ी कुछ भला-बुरा सुनना पड़ा.

एक पैरेंट और एडल्ट के रूप में अब मैं अपनी बुआ के व्यवहार को समझती हूँ. वे डर गई थीं कि लोग क्या कहेंगे? यह सोचकर वह शर्म से मरी जा रही थीं कि वे अपने बच्चे का ध्यान भी नहीं रख पाई थीं. अपनी बच्ची को वे एक सबक सिखाना चाहती थीं. वे चाहती थीं कि उसमें डर पैदा हो और अपनी मां का ग़ुस्सा याद रहे, ताकि आगे से कभी भी घर से बाहर निकलने वाली बात उसके जेहन में ना आए.

मेरी बुआ को अपने पति और परिवार के दूसरे बड़े लोगों के ग़ुस्से का खौफ़ सबसे ज़्यादा था. अपना सारा तनाव उन्होंने अपनी बच्ची पर निकाल दिया, जो पहले ही डर के मारे सिसकियां ले रही थीं और जो तब इतनी छोटी थीं कि ठीक से अपनी ग़लती भी नहीं समझ पाई थी.

वह दृश्य मेरे लिए एक मानक बन गया कि किसी भी संकट के क्षण में अपने बच्चे के साथ कैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए. एक छोटी बच्ची, जिसने कुछ भी ग़लत नहीं किया था, उसकी पिटाई के उस सदमे को मैं कभी भूल नहीं पाई. उसको दुलार की ज़रूरत थी. पिटाई की नहीं.

डर और घबराहट बच्चों पर न थोपें

पैरेंट के तौर पर अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर हम अक्सर ख़ुद को लाचार पाते हैं. अक्सर डर और घबराहट की स्थिति बनी रहती है. लेकिन अपने भय और ग़ुस्से का बोझ हम अपने बच्चे पर नहीं लाद सकते, जो वैसे ही काफ़ी संकट झेल रहे हैं.

हमें अन्य वयस्कों से मदद लेनी चाहिए. सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारा बच्चा हमारे बिना जितना सुरक्षित महसूस करता है, उससे ज़्यादा सुरक्षित हमारे साथ रहते हुए महसूस करे.

जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हममें से ज़्यादातर लोग अपने माता-पिता के ग़ुस्से को खुद में उतार लेते हैं. कई बार हम ख़ुद को ऐसी स्थितियों में पाते हैं कि लगता है, अपने माता-पिता के पास मुश्किलें झेलना बाहरी दुनिया में मुश्किलें झेलने से कहीं ज्यादा ख़तरनाक है.

मेरी कुछ दोस्त हैं, जिनके साथ कोई दुर्घटना हुई या अपने शैक्षिक संस्थानों के साथ उनका किसी से कोई टकराव हुआ, इम्तहान अच्छा नहीं गया, गर्भपात की ज़रूरत पड़ी या कोई और मेडिकल मदद चाहिए था तो अपने घर में मदद खोजने के बजाय वे इस बात को लेकर डरे हुए थे कि सच्चाई अगर माता-पिता को पता चल गई तो क्या होगा.

बेटियां
Natasha Badhwar
बेटियां

ऐसे में माता-पिता को कुछ बताए बगैर सारे जोख़िम खुद ही झेलना उन्हें बेहतर लगता था. सिर्फ़ अपने पैरेंट्स को तनाव से बचाए रखने के लिए उन्होंने ऐसे-ऐसे फ़ैसले लिए, जिन्होंने उन्हें गंभीर स्वास्थ्य संकट में डाल दिया.

यह अगर पैरेंटिंग की सबसे बड़ी नाकामियों में से एक नहीं तो और क्या है? हमारे लिए सबसे सुरक्षित जगह हमारा घर-परिवार होना चाहिए. लेकिन ऐसा हमेशा नहीं हो पाता. हम ही ऐसे हालात बनाते हैं और हमें इसका भान भी नहीं होता, यह कहीं ज़्यादा बुरी बात है.

अपना ग़ुस्सा अपने बच्चों पर हम इसलिए निकालते हैं क्योंकि अपनी निगेटिविटी उड़ेल देने के लिए यही सबसे सुरक्षित जगह लगती है. मेरी बुआ अगर ख़ुद को लेकर ही डरी हुई न होतीं तो अपनी छोटी सी बच्ची को नहीं पीटतीं. जो बड़े लोग उन्हें उनकी अपनी ज़िंदगी में सता रहे थे, उनके सामने खड़ी होने की हिम्मत वे नहीं कर पाती थीं. लेकिन अपने बच्चे पर उनका ज़ोर चल सकता था.

इसीलिए मायें अपना ग़ुस्सा अपने बच्चों पर निकाल देती हैं. पिता भी यही करते हैं. बच्चे उस क्षण में पलट कर जवाब नहीं दे सकते. बड़ों के सामने बच्चे अपने आप को असहाय महसूस करते हैं.

ज़्यादा ख़तरनाक बात यह है कि घर परिवार के किसी अपने बड़े की डांट फटकार, बच्चे के भीतर आलोचनात्मक स्वर बनकर धंस जाता है और जीवन भर उसे तंग करता है- मसलन, 'मैं बुरा हूँ', 'मैं हमेशा ग़लतियां करता हूँ', 'मेरा होना ही एक मुसीबत है'.

सांस्कृतिक रूप से बच्चों को लेकर माता-पिता के प्यार पर काफ़ी कुछ हमलोग लिख और बोल चुके हैं. लेकिन जो प्यार बच्चों में अपने माता-पिता को लेकर होता है, उसे बहुत कम समझा गया है. उसे ज़्यादा मान्यता भी नहीं मिली है. जैसे मां-बाप अपने बच्चों की रक्षा करते हैं, वैसे ही बच्चे भी अपने माता-पिता को बचाना चाहते हैं.

जब बच्चे आसपास हों तो ये करें?

बच्चों के प्यार पर हम निर्भरता, चिपकूपना और डरपोकपना जैसी चिप्पियां चिपका देते हैं. उन पर हम भरोसा नहीं करते. उन पर हंसते हैं. बच्चों के प्यार की अभिव्यक्ति को हमलोग शर्मिंदगी से भर देते हैं.

ज़्यादातर बड़े लोग प्रेम को ग्रहण करने में अपनी अक्षमता को पहचान भी नहीं पाते. पारिवारिक दायरों में भरोसा और सम्मान ज़ाहिर करने को लेकर हमारे अनुभव बहुत कम हैं. जिन बड़े-संयुक्त परिवारों में हम बड़े हुए हैं, उनमें एक-दूसरे के प्रति होने वाले दुर्व्यवहार को हम दोहराते चले जाते हैं और इसका कोई अंदाज़ा भी हमें नहीं होता. भय, नियंत्रण और वर्चस्व का भाव बनाए रखना, पैरेंटिंग का स्वाभाविक ढांचा बन गया है.

जब बच्चे जुबान बंद कर लेते हैं और खिंचे-खिंचे से रहने लगते हैं तो उनके बारे में हम मनमाने नतीजे निकालने लगते हैं. उनके परिवेश में मौजूद किस चीज़ ने उन्हें इस खोल में धकेल दिया है, हम इसे महसूस भी नहीं करते. वे अपनी बात कहना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए उनके साथ अपने रिश्ते को हमें फिर से एक सुरक्षित दायरे में बदलना होगा.

इन शब्दों की कोई अनुगूंज अगर आप ख़ुद में महसूस करते हैं तो आप जान गए होंगे कि बदलाव करने का समय आ गया है. यही समय है कि विषैले तौर-तरीक़ों को एक तरफ़ रख दिया जाए और अपने प्यार को फलने-फूलने का मौका दिया जाए.

आपके बच्चे अगर अभी आपके आसपास हों तो उनको गले लगाएं. दूर हों तो उन्हें फ़ोन करें या एक मेसेज डाल दें. दोनों को ही आपस में जुड़ने की ज़रूरत है. इससे सब के घाव भर जाएंगे.

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English summary
Parents should never do these things while uplifting their kids
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