नज़रिया: प्रधानमंत्री मोदी सवाल-जवाब से कतराते क्यों हैं?
प्रधानमंत्री बनने के बाद ऐसे असुविधानक इंटरव्यू या सवाल-जवाब झेलने की जहमत उन्होंने मोल ली हो, यह याद नहीं आता. बेशक, इस साल के शुरू में ज़ी न्यूज़ के संपादक सुधीर चौधरी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने रोज़गार बढ़ने का दावा करते हुए पकौड़े का हवाला दिया जो अगले कई दिनों तक राजनीतिक-आर्थिक गलियारों में चुटकुले-सा बना रहा.
बाद में प्रधानमंत्री ने रोज़गार गणना के अपने सिद्धांत को लगभग इसी आधार पर विकसित किया और लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस का जवाब देते हुए इसी ढंग से गिनाया कि देश में हर महीने और साल कितना रोज़गार पैदा
12 अगस्त के 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जो दो पेज लंबा इंटरव्यू छपा है, उसमें वह कौन सी बात है जिसे पढ़ते हुए लगे कि हम कुछ नया पढ़ रहे हैं?
एक तरह से यह पूरा इंटरव्यू पिछले दो-एक वर्षों में अलग-अलग मंचों पर प्रधानमंत्री के भाषणों का संकलन भर है.
इसमें एक भी ऐसा तथ्य नहीं है जिसे प्रधानमंत्री या उनकी सरकार के दूसरे मंत्री पहले जनता के सामने नहीं रख चुके हैं.
निश्चय ही यह अख़बार की नाकामी नहीं है, उस प्रधानमंत्री की भी सीमा है जिसने देश के सार्वजनिक मीडिया के सबसे विश्वसनीय और सबसे बड़ी पहुंच वाले अख़बारों में एक 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' के दो पृष्ठों का इस्तेमाल पाठकों से जीवंत संवाद बनाने की जगह सरकारी किस्म के प्रचार भर में किया.
क्या यह इसलिए हुआ कि यह इंटरव्यू आमने-सामने बैठकर स्वतःस्फूर्त सवाल-जवाब से नहीं, बल्कि ईमेल के ज़रिए हुआ, जिसमें न पलट कर सवाल पूछने की संभावना थी और न ही कोई नया प्रश्न कर सकने की गुंजाइश.
मसलन, जब वे गोरक्षा के नाम पर होने वाली हिंसा की सख़्त आलोचना करते हुए राज्य सरकारों से कड़ी कार्रवाई की अपील कर रहे थे, तब कोई पत्रकार सामने होता तो उनको याद दिला सकता था कि दरअसल, उनकी ही सरकार के मंत्री ऐसी हिंसा के मुज़रिमों को माला पहनाते और दंगाइयों को आश्वस्त करते देखे गए हैं. और ये भी याद दिलाता कि राज्यों में भी उनकी ही पार्टी की सरकारें हैं.
आखिर इतनी आलोचना क्यों झेलते हैं पीएम मोदी?
https://twitter.com/narendramodi/status/986845490632208384
इसी तरह जब वे अपने साहसिक आर्थिक फ़ैसलों का ज़िक्र कर रहे थे और अंसगठित क्षेत्र से 80 प्रतिशत रोज़गार की बात कर रहे थे तो कोई पूछ सकता था कि नोटबंदी जैसे 'साहसिक' फ़ैसले ने क्या सबसे ज़्यादा अंसगठित क्षेत्र के मज़दूरों पर चोट नहीं की?
या फिर इसके वास्तविक परिणाम क्या रहे? या यही कि आज तक रिज़र्व बैंक नोटबंदी में लौटे नोट क्यों नहीं गिन पाया?
ऐसे सवाल और भी हो सकते हैं, लेकिन यह सब तब हो पाता जब इंटरव्यू आमने-सामने बैठकर होता, लेकिन आमने-सामने बैठकर ऐसे इंटरव्यू प्रधानमंत्री ने कब दिए हैं और किनको दिए हैं?
उन गिने-चुने टीवी चैनलों और पत्रकारों को, जिनके बारे में यह राय है कि वे प्रधानमंत्री और सरकार के खुले समर्थक हैं, संभवतः उनका सबसे लंबा लाइव इंटरव्यू इसी साल 18 अप्रैल को लंदन के वेस्टमिन्स्टर सेंट्रल हॉल में प्रसून जोशी ने लिया था, लेकिन तीन घंटे से ऊपर चला यह पूरा इंटरव्यू प्रधानमंत्री की ऐसी प्रशस्ति से भरा था कि इससे प्रसून जोशी की अपनी छवि ख़राब हो गई.
https://twitter.com/ZeeNewsHindi/status/1000345806497443841
प्रसून जोशी ने उनसे असुविधाजनक प्रश्न पूछना दूर, प्रश्न ही नहीं पूछे, बस तरह-तरह की बालसुलभ जिज्ञासाएं रखीं जिनसे प्रधानमंत्री को अपने मन की बात विस्तार से करने का अवसर मिला.
जो कुछ असुविधानजक इंटरव्यू नरेंद्र मोदी को झेलने प़डे, वे प्रधानमंत्री बनने से पहले झेलने पड़े, लेकिन क्या वे इंटरव्यू उन पत्रकारों के लिए कहीं ज़्यादा असुविधाजनक साबित हुए?
जाने-माने पत्रकार करण थापर इस अंदेशे को सार्वजनिक कर चुके हैं. उनका कहना है कि 2007 के जिस इंटरव्यू को नरेंद्र मोदी बीच में छोड़कर चले गए थे, उसी का नतीजा है कि उनके कार्यक्रमों में बीजेपी के प्रवक्ता नहीं आते, ऐसी मिसालें अनके हैं.
https://twitter.com/ZeeNewsHindi/status/1000353358069223424
प्रधानमंत्री बनने के बाद ऐसे असुविधानक इंटरव्यू या सवाल-जवाब झेलने की जहमत उन्होंने मोल ली हो, यह याद नहीं आता. बेशक, इस साल के शुरू में ज़ी न्यूज़ के संपादक सुधीर चौधरी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने रोज़गार बढ़ने का दावा करते हुए पकौड़े का हवाला दिया जो अगले कई दिनों तक राजनीतिक-आर्थिक गलियारों में चुटकुले-सा बना रहा.
बाद में प्रधानमंत्री ने रोज़गार गणना के अपने सिद्धांत को लगभग इसी आधार पर विकसित किया और लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस का जवाब देते हुए इसी ढंग से गिनाया कि देश में हर महीने और साल कितना रोज़गार पैदा हो रहा है, टाइम्स ऑफ इंडिया के इंटरव्यू में भी यह बात कही गई है.
इनके अलावा प्रधानमंत्री ने बस देश को संबोधित किया है, देश के सीधे प्रश्नों के जवाब नहीं दिए हैं. सवाल है, प्रधानमंत्री को सीधे संवाद में क्या मुश्किल है? क्या वे असमर्थ हैं?
https://twitter.com/TimesNow/status/955428853941395456
ऐसी बात कोई नासमझ ही कह सकता है. 13 बरस तक जो आदमी गुजरात का मुख्यमंत्री रहा हो और उसके बाद देश का प्रधानमंत्री बना हो, जिसके अपने नेतृत्व के करिश्मे के बल पर बीजेपी को अकेले बहुमत हासिल हुआ हो, जिसके प्रति भक्तिभाव लोगों में इतना गहरा हो कि वे सारे कष्ट सह कर उसकी बात पर आंख मूंद कर भरोसा करने को तैयार हैं, वह कुछ पत्रकारों के सवालों के जवाब नहीं दे सकता?
वह भी एक ऐसे दौर में, जब पत्रकारिता में ऐसे तेजस्वी और पढ़े-लिखे लोग लगातार कम होते जा रहे हैं जो किसी से भी आंख मिलाकर सवाल पूछ सकें?
जाहिर है, फांस कहीं और है, इस फांस के कम से कम दो स्रोत साफ़ दिखाई पड़ते हैं. एक स्रोत तो संघ परिवार की उस वैचारिकी में है जिस पर उठने वाले कई सवालों के सीधे जवाब नहीं दिए जा सकते.
मसलन, एक राष्ट्र के रूप में भारत की अवधारणा का प्रश्न हो, हिंदुत्व की राजनीति का प्रश्न हो, इतिहास के नायकों का प्रश्न हो, दलितों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों का प्रश्न हो, मंदिर का प्रश्न हो, गोरक्षा का प्रश्न हो, खान-पान और पहनावे से जुड़े प्रश्न हों- इन सब पर जो संवैधानिक स्थिति है, वह संघ परिवार के वैचारिक रुख़ से मेल नहीं खाती- कई बार उसके विरुद्ध जाती है.
https://twitter.com/TimesNow/status/955421314151411712
मोहन भागवत या दूसरे नेता इस रुख़ का भले बचाव कर लें, लेकिन देश के पीएम की हैसियत से मोदी नहीं कर सकते, शायद यह बात वे समझते हैं और इसलिए ऐसे सवालों के पूछे जाने की किसी भी सीधी संभावना से बचते हैं.
दूसरी बात ये कि आर्थिक मोर्चे और सामाजिक मोर्चे पर बहुत सारी सच्चाइयां ऐसी हैं जिनके सहारे इस सरकार को आईना दिखाया जा सकता है, जिसके सहारे पिछली सरकार को भी आईना दिखाया जाता था.
शायद यह भी एक वजह है कि प्रधानमंत्री सीधे संवाद से बचते हैं. वे 'मन की बात' कह देते हैं, भाषण दे डालते हैं, लेकिन लोगों के मन में उठने वाले सवालों के जवाब देने से कतराते हैं.
https://twitter.com/TimesNow/status/955099359275761664
काश कि ऐसा न होता, वे जिस चुटीलेपन से अपने भाषण देते हैं, उसी सहजता से पत्रकारों को न्योता देते, उनसे खुली बात करते, कहीं-कहीं अपनी कोशिशों की खामियां भी मान लेते और सुधारने का वादा भी कर देते तो उन वर्गों और ज़मातों को भी जोड़ पाते जो फ़िलहाल उनसे एक दूरी महसूस करने लगे हैं.
ऐसा न करके वे अपना अकेलापन बढ़ा रहे हैं जो फ़िलहाल कहीं से खलने वाली बात नहीं है, क्योंकि उनकी लोकप्रियता का सितारा बुलंदी पर है, लेकिन ऊपर जाती गेंद जब अपनी ऊर्जा और उससे मिलने वाली हवा का बल खो बैठती है तो किस तेज़ी से नीचे गिरती है- यह उनको ही नहीं, सबको याद रखना चाहिए.
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