मनोहर लाल खट्टर: ज़ीरो से हीरो बनने के पांच ख़ास कारण
वर्ष 2005 में हरियाणा में दो और 2009 में चार सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी ने जब पहली बार 2014 में 90 में से 46 सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया तो राज्य की राजनीति के जानकार इन तीन नेताओं को ही मुख्यमंत्री पद के हक़दार देखते थे: कैप्टन अभिमन्यु, अनिल विज और राम विलास शर्मा. इसकी वजह यह थी कि विज और शर्मा पिछले 25-30 वर्षों से चुनाव जीत रहे थे.
वर्ष 2005 में हरियाणा में दो और 2009 में चार सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी ने जब पहली बार 2014 में 90 में से 46 सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया तो राज्य की राजनीति के जानकार इन तीन नेताओं को ही मुख्यमंत्री पद के हक़दार देखते थे: कैप्टन अभिमन्यु, अनिल विज और राम विलास शर्मा.
इसकी वजह यह थी कि विज और शर्मा पिछले 25-30 वर्षों से चुनाव जीत रहे थे.
वहीं, कैप्टन अभिमन्यु नरेंद्र मोदी और अमित शाह के क़रीबी और जाट होने की वजह से प्रबल दावेदार माने जाते थे. लेकिन मुख्यमंत्री पद पर मुहर लगी मनोहर लाल खट्टर के नाम पर, जिससे बहुत लोगों को हैरानी हुई.
सवाल उठने लगे कि क्या आरएसएस के एक कार्यकर्ता जिन्हें कोई प्रशासनिक और राजनैतिक तजुर्बा नहीं था वो इस कुर्सी के साथ न्याय कर पाएंगे?
क्या राम विलास शर्मा, कैप्टन अभिमन्यु और अनिल विज जैसे पार्टी के बड़े नेताओं पर क़ाबू पाकर, उन्हें साथ लेकर वो चल पाएंगे?
अनुभव की कमी जल्द ही बिगड़ती क़ानून व्यवस्था के रूप में नज़र आने लगी. ख़ासतौर पर फ़रवरी 2016 के जाट आंदोलन में दौरान हुई हिंसा की वजह से देशभर में खट्टर सरकार की छवि धूमिल हुई.
राज्य के मुख्यमंत्री पद पर लगातार बने रहने वाले जाटों ने पाया कि अब इस पद पर अब वो नहीं बल्कि एक पंजाबी खत्री बैठा है.
इस आरक्षण आंदोलन में 20 से अधिक जाट युवक पुलिस की गोली के शिकार हो गए थे.
कमज़ोर प्रशासक ने कैसे सुधारी छवि?
इसके बाद डेरा सच्चा सौदा प्रमुख राम रहीम के दोषी ठहराए जाने पर राज्य में भड़की हिंसा में कई लोगों की मौत होने के बाद राज्य सरकार और खट्टर दोनों ही विपक्ष के निशाने पर आ गए.
पंजाब विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार कहते हैं, "जाट आंदोलन और राम रहीम, ये दोनों ऐसे मामले थे जिसमें खट्टर साफ़तौर पर बड़े ही कमज़ोर प्रशासक दिखाई दिए."
इसके बावजूद इस साल लोकसभा चुनाव में भाजपा के सभी 10 लोकसभा सीटें जीतने और 90 में से 79 विधानसभा क्षेत्रों पर आगे रहने के बाद 65 वर्षीय खट्टर के लिए ऐसा क्या बदला है?
इसमें प्रधानमंत्री का जादू तो चला ही है, लेकिन साथ ही खट्टर की अपनी छवि भी कुछ कारणों की वजह से काफ़ी सुधरी है. जैसे कि:
1. नौकरियाँ
हरियाणा में ऐसा माना जाता था कि नौकरियाँ जाति या क्षेत्र के आधार पर मिलती हैं.
पंजाब विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार कहते हैं कि नौकरियों में पिछली सरकारों पर भर्तियों और तबादलों में भ्रष्टाचार और क्षेत्रवाद के लगातार आरोप लगते रहे हैं लेकिन इस बार ऐसा काफ़ी कम देखने को मिला है.
इस सरकार में नौकरियाँ का आधार वो बन गया जो होना चाहिए यानी प्रतिभा. जानकार कहते हैं कि खट्टर पर शुरुआत में लोग भरोसा नहीं करते थे.
फिर पढ़े-लिखे नौजवानों को बेरोज़गारी भत्ता जैसी स्कीमों ने भी लोगों को काफ़ी राहत पहुँचाई. पोस्ट ग्रैजुएट लोगों को 3,000 रुपये महीना जबकि कम योग्यता वालों को 1,500 रुपये हर महीने मिलने लगे.
इसके बदले में उन्हे कुछ तय घंटे काम में लगाया जाता है. राजनीतिक गलियारों में कुछ लोग बात कह रहे हैं कि वे अपनी ही पार्टी में और अफ़सरों के लिए ज़ीरो के समान थे, लेकिन अब हीरो के समान बन गए हैं.
सरकार का दावा है कि पिछले पाँच वर्षों में लगभग 72,000 लोगों को नौकरियाँ दी गई हैं हालांकि विपक्ष सरकार के दावों को चुनौती दे रहा है.
विपक्ष का कहना है कि हरियाणा में बेरोज़गारी बहुत अधिक बढ़ गई है.
2. खट्टर का नया अंदाज़
ऐसा नहीं है कि खट्टर बोलने में और काम करने में बड़े स्टाइलिश हैं, लेकिन उनका सादा और सरल तरीक़ा ही लोगों को भाने लगा.
संजीव शुक्ला का कहना है कि पिछली सरकारों के दौरान भ्रष्टाचार और जबरन वसूली की वजह से लोगों के मन में भय था.
प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार कहते हैं, "मैं कहूँगा कि खट्टर के समय में ख़र्च थमा है लेकिन पर्ची (सिफ़ारिश) अब भी चल रही है."
प्रोफ़ेसर आशुतोष मानते हैं कि लोग इतने से भी राहत महसूस कर रहे हैं कि जबरन वसूली नहीं हो रही है.
फिर खट्टर ने यह किया कि सीएम विंडो जैसे कार्यक्रमों में लोग अपनी शिकायतें लेकर उन तक पहुँचने लगे जिससे वे लोग आश्वस्त महसूस करने लगे. ऐसा होना हरियाणा में नया था.
वरिष्ठ पत्रकार संजीव शुक्ला कहते हैं कि मिसाल के तौर पर तबादलों में ऐसा पहली बार हुआ कि न केवल यह 'ऑनलाइन' होने लगा बल्कि लोगों से उनकी प्राथमिकताएँ भी पूछी जाने लगीं.
3. जाट बनाम ग़ैर-जाट
कांग्रेस के भजनलाल के बाद मनोहर लाल खट्टर पहले ग़ैर-जाट मुख्यमंत्री बने थे, जिससे जाट 'पावर' जाने के बाद काफ़ी असुरक्षित महसूस करने लगे जबकि ग़ैर जाट काफ़ी संतुष्ट थे.
दिल्ली के ही विश्लेषक कहते हैं कि जाट आंदोलन के कड़वे अनुभव के बाद से ग़ैर जाटों को अपना नेता खट्टर में दिखने लगा.
उधर खट्टर हरियाणा की पुरानी जाट बनाम ग़ैर-जाट राजनीति से अपने आपको दूर रखने लगे.
नतीजा यह हुआ कि जाट भी उन्हें अपना नेता मानने लगे हैं. इस बात का सबूत कुछ विश्लेषक इस बात में देखते हैं कि जाट नेता भी पार्टी में शामिल होने लगे हैं.
हालांकि पत्रकार संजीव शुक्ला इससे सहमत नहीं है. उनका कहना है जाट या कई बाक़ी लोग भी इसलिए भाजपा से जुड़ रहे हैं क्योंकि पार्टी के मज़बूत स्थिति में होने की वजह से वे यहां जीतने की ज़्यादा संभावना देखते हैं.
शुक्ला के मुताबिक़,"कई नेता चौटाला की पार्टी छोड़कर भाजपा में आए हैं क्योंकि उन्हें यहाँ अपना भविष्य अधिक सुरक्षित दिखाई देता है."
4. कमज़ोर विपक्ष
मनोहर लाल खट्टर और भाजपा के मज़बूत होने की एक महत्वपूर्ण वजह विपक्ष के नेताओं का कमज़ोर होना भी रहा.
प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार कहते हैं कि इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) और कांग्रेस की स्थिति ऐसी है जैसे किसी ने शाप दिया हो कि वो आपस में लड़कर अपने आपको ख़त्म कर लेंगे, जिसका सीधा फ़ायदा खट्टर को मिल रहा है.
पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा कई क़ानूनी केसों से जूझ रहे हैं.
आईएनएलडी नेता ओम प्रकाश चौटाला और पुत्र अजय चौटाला अध्यापक भर्ती मामले में जेल में हैं.
उनकी पार्टी के भी दो फाड़ हो चुके हैं और दोनों बेटे अजय और अभय चौटाला अलग-अलग राह पर निकल पड़े हैं. इसे विश्लेषक भाजपा और खट्टर दोनों के लिए बड़ा फ़ायदा देख रहे हैं.
5. मोदी का समर्थन
सब जानते थे कि मनोहर लाल खट्टर पार्टी हाईकमान की पसंद हैं और उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह का पूर्ण विश्वास हासिल है.
यह उस वक़्त साफ़ हो गया जब खट्टर के ख़राब दिनों में भी पार्टी ने उनमें विश्वास बनाए रखा. शुरू में पार्टी के कई वरिष्ठ नेता खट्टर के लिए चुनौती बने और उन्होंने खट्टर की राह को कुछ मुश्किल भी बनाया.
लेकिन जब इन सबके बावजूद भी पार्टी का समर्थन उन्हें मिलता रहा तो राज्य के नेताओं ने भी उनके साथ होने में ही समझदारी समझी.
चंडीगढ़ में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार संजीव शुक्ला कहते हैं कि खट्टर मोदी के उस समय से साथी रहे हैं, जब मोदी 1990 के दशक में यहाँ प्रभारी हुआ करते थे.
शुक्ला का मानना है कि यह कहना ग़लत नहीं होगा कि उन्हें इस नज़दीकी का, अपनी ईमानदार छवि और वफ़ादारी का इनाम मिला है.
हरियाणा के लोग एक ही पार्टी को दोबारा सत्ता कम ही सौंपते हैं. संजीव शुक्ला का कहना है कि सरकारों के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार, स्वच्छ-सक्षम प्रशासन की कमी और जातिवाद जैसे आरोप लगने की वजह से यहां के वोटर हर चुनाव में नई सरकार चुनते रहे हैं.
हाँ, साल 2009 में ऐसा हुआ था जब हुड्डा की कांग्रेस सरकार को लोगों ने दूसरी बार मौक़ा दिया था और ऐसा राज्य में साल 1972 के बाद पहली बार हुआ था.
अब जबकि चुनाव के नतीजे कुछ ही दिन में आ जाएंगे तो यह देखने वाली बात होगी कि क्या हरियाणा के वोटर खट्टर और भाजपा पर भरोसा कर दोबारा उन्हें सत्ता सौपेंगे.