मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2018: वो एक लाइन जिससे परेशान होता है सिंधिया परिवार
विजयधर श्रीदत्त कहते हैं कि राजमाता की भूमिका उमा भारती और आडवाणी की तरह नहीं रही, लेकिन वो कारसेवकों का स्वागत करती थीं. 1999 में वो सक्रिय राजनीति से हट गईं और 2001 में उनका निधन हो गया.
कहा जाता है कि सिंधिया परिवार कभी चुनाव नहीं हारता, लेकिन विजयाराजे सिंधिया इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ 1980 में चुनाव हार चुकी हैं और वसुंधरा राजे सिंधिया भी भिंड से 1984 में चुनाव हार चुकी हैं.
हिन्दी की जानी-मानी कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता 'ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी' की एक पंक्ति आज भी ग्वालियर के सिंधिया राजघराने को परेशान करती है.
वो पंक्ति है- 'अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी.'
सुभद्रा कुमारी चौहान की इस पंक्ति का हवाला देकर लोग समय-समय पर 1857 की लड़ाई में लक्ष्मीबाई का साथ नहीं देने का आरोप सिंधिया परिवार पर लगाते हैं.
साल 2010 में ग्वालियर के बीजेपी शासित नगर निगम की वेबसाइट ने सिंधिया राजघराने पर आरोप लगाते हुए लिख दिया था कि इस परिवार ने रानी लक्ष्मीबाई को कमज़ोर घोड़ा देकर धोखा दिया था.
तब ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थकों ने बीजेपी की तत्कालीन मेयर समीक्षा गुप्ता से यह मांग की थी कि वेबसाइट से 'आपत्तिजनक' सामग्री को तत्काल हटाया जाए. तब ग्वालियर से बीजेपी की सांसद यशोधरा राजे सिंधिया थीं, जो कि सिंधिया राजघराने की ही हैं.
लक्ष्मीबाई पर क्या बोलीं थीं वसुंधरा राजे?
अगस्त 2006 में राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को इंदौर में रानी लक्ष्मीबाई की एक मूर्ति के अनावरण के लिए आमंत्रित किया गया था और उन्हें यहां विरोध-प्रदर्शन का सामना करना पड़ा था.
वसुंधरा ने तब इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज कर दिया था और कहा था कि एक महिला के तौर पर रानी लक्ष्मीबाई के लिए उनके मन में काफ़ी सम्मान है.
चुनाव के वक़्त सिंधिया परिवार पर उंगली उठाने के लिए अक़्सर इतिहास के गड़े मुर्दों को अपने-अपने हिसाब से उखाड़ा जाता रहा है.
मध्य प्रदेश बीजेपी के वरिष्ठ नेता कैलाश विजयवर्गीय भी सिंधिया परिवार इस तरह के आरोप कई बार लगा चुके हैं.
राजस्थान की वर्तमान मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया और इनकी बहन यशोधरा राजे सिंधिया बीजेपी में ही हैं, फिर भी बीजेपी के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को निशाना बनाने के लिए रानी लक्ष्मीबाई को लेकर हमला बोलते हैं.
वीडी सावरकर ने भी अपनी किताब 'इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस 1857' में इस राजघराने पर अंग्रेज़ों का साथ देने के आरोप लगाए हैं.
ग्वालियर राजघराने के उपलब्ध दस्तावेजों के अध्ययनकर्ता आशीष द्विवेदी कहते हैं, ''कविता को इतिहास के तौर पर पेश नहीं किया जा सकता है. सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी कविता में ख़ुद ही कहा है कि बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी. मतलब वो लोगों की कही बातें या कहानी सुना रही हैं. सुभद्रा कुमारी चौहान ने दस्तावेजों के अध्ययन के बाद ये कविता नहीं लिखी थी. बीडी सावरकर भी कोई इतिहासकार नहीं थे.''
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'ग्वालियर के वो दस्तावेज़, जो पढ़े नहीं गए'
द्विवेदी कहते हैं कि ग्वालियर के बारे में भारतीय इतिहासकारों ने जो कुछ भी लिखा है वो अंग्रेज़ों के लिखे अनुवाद मात्र हैं, लेकिन किसी ने ग्वालियर के मूल दस्तावेज़ों को पढ़ने की ज़हमत नहीं उठाई.
वो कहते हैं, ''ग्वालियर के मूल दस्तावेज़ फ़ारसी और मराठी में हैं. तब मराठी मोड़ी लिपि में लिखी जाती थी. अब की मराठी देवनागरी में होती है.''
ग्वालियर में मोड़ी लिपि पढ़ने वाले इक्के-दुक्के लोग बचे हैं.
मोड़ी लिपि को जानने वाले लोग इस मुद्दे पर विवादों में आने के डर से कुछ भी खुलकर नहीं बोलना चाहते हैं.
इस लिपि को पढ़ने वाले एक विद्वान ने बीबीसी से नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, ''अगर आप इन दस्तावेजों का अध्ययन करेंगे तो साफ़ पता चलता है कि एक जून 1858 को जयाजीराव ग्वालियर छोड़ आगरा चले गए थे और तीन जून को रानी लक्ष्मीबाई ग्वालियर पहुंची थीं. ज़ाहिर है जयाजीराव सिंधिया अंग्रेज़ों से लड़ना नहीं चाहते थे. 1857 की लड़ाई में 90 फ़ीसदी राजा अंग्रेज़ों से नहीं लड़ रहे थे और उसमें जयाजीराव सिंधिया भी शामिल थे. लेकिन ये कहना कि इस परिवार ने रानी लक्ष्मीबाई को धोखा दिया था यह सही नहीं है.''
वो कहते हैं, ''जयाजीराव सिंधिया उस युद्ध में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ क्यों आते जिसमें पहले ही भारतीय हार चुके थे.''
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सिंधिया परिवार का राजनीतिक सफ़र
आज़ाद भारत में सिंधिया परिवार का राजनीतिक संबंध कांग्रेस और बीजेपी दोनों से रहा. राजमाता विजयाराजे सिंधिया जनसंघ से चुनाव भी लड़ीं. 1950 के दशक में ग्वालियर में हिन्दू महासभा की मज़बूत मौजूदगी थी. हिन्दू महासभा को महाराजा जीवाजीराव ने भी संरक्षण दिया था.
इसी कारण से यहां कांग्रेस कमज़ोर थी. उस दौरान यह कहा जाने लगा था कि कांग्रेस ग्वालियर राजघराने के ख़िलाफ़ कोई कड़ा क़दम उठा सकती है.
इसी बीच राजमाता सिंधिया की मुलाक़ात प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से हुई. इस मुलाक़ात के बाद ही विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार हुई थीं.
विजयाराजे सिंधिया ने 1957 में गुना लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और हिन्दू महासभा के प्रत्याशी को मात दी. हालांकि कांग्रेस के साथ विजयाराजे की बनी नहीं.
1967 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले पंचमढ़ी में युवक कांग्रेस का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था. इस सम्मेलन का उद्घाटन इंदिरा गांधी ने किया था. राजमाता विजयाराजे सिंधिया इसी सम्मेलन में मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र से मिलने पहुंची थीं.
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जब राजमाता को करना पड़ा इंतज़ार
मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार विजयधर श्रीदत्त कहते हैं, ''राजमाता इस मुलाक़ात में चुनाव और टिकट के बंटवारे को लेकर बात करने आई थीं. डीपी मिश्रा ने विजयाराजे को 10 से 15 मिनट तक इंतज़ार करा दिया और यह उन पर भारी पड़ा. राजमाता ने इस इंतज़ार का मतलब ये निकाला कि डीपी मिश्रा ने महारानी को अपनी हैसियत का एहसास कराया है. विजयाराजे सिंधिया के लिए यह किसी झटके से कम नहीं था. इस मुलाक़ात में विजयाराजे सिंधिया ने ग्वालियर में छात्र आंदोलनकारियों पर पुलिस की गोलीबारी का मुद्दा उठाया था. बाद में सिंधिया ने ग्वालियर के एसपी को हटाने के लिए डीपी मिश्रा को पत्र लिखा, लेकिन मुख्यमंत्री ने सिंधिया की बात नहीं मानी.''
इसी टकराव के बाद सिंधिया ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया और जनसंघ के टिकट पर विधानसभा का चुनाव लड़ीं. इसके साथ ही निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लोकसभा चुनाव भी लड़ीं और दोनों में विजयी रहीं. 1967 तक विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ होते रहे थे.
मध्य प्रदेश विधानसभा में विजयाराजे सिंधिया के जाने से कांग्रेस की लिए मुश्किल स्थिति खड़ी हो गई थी.
कांग्रेस पार्टी के 36 विधायक विपक्षी खेमे में आ गए और मिश्रा को इस्तीफ़ा देना पड़ा. पहली बार मध्य प्रदेश में ग़ैर कांग्रेसी सरकार बनी और इसका पूरा श्रेय राजमाता विजयाराजे सिंधिया को गया.
इस सरकार का नाम रखा गया संयुक्त विधायक दल. इस गठबंधन की नेता ख़ुद विजयाराजे सिंधिया बनीं और डीपी मिश्रा के सहयोगी गोविंद नारायण सिंह मुख्यमंत्री बने. यह गठबंधन प्रतिशोध के आधार पर सामने आया था जो 20 महीने ही चल पाया.
गोविंद नारायण सिंह फिर से कांग्रेस में चले गए. हालांकि इस उठापठक में जनसंघ एक मज़बूत पार्टी के तौर पर उभरा और विजयराजे सिंधिया की छवि जनसंघ की मज़बूत नेता की बनी.
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इंदिरा लहर में सिंधिया परिवार
विजयाराजे सिंधिया 1971 में इंदिरा गांधी की लहर में भी ग्वालियर इलाक़े में तीन लोकसभा सीट जीतने में कामयाब रहीं.
भिंड से ख़ुद विजयाराजे जीतीं, गुना से माधवराव सिंधिया और ग्वालियर से अटल बिहारी वाजपेयी. हालांकि माधवराव सिंधिया बाद में जनसंघ से अलग हो गए.
कहा जाता है कि जिस तरह से विजयाराजे सिंधिया को नेहरू समझाने में कामयाब रहे थे और राजमाता कांग्रेस में शामिल हो गई थीं. उसी तरह से इंदिरा गांधी माधवराव सिंधिया को समझाने में कामयाब रहीं और वो कांग्रेस में शामिल हो गए.
इमरजेंसी के दौरान राजमाता सिंधिया भी जेल गई थीं और उनके मन से इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा कभी कम नहीं हुआ. इसी का नतीजा था कि उन्होंने इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ रायबरेली से चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया था.
विजयधर श्रीदत्त ने अपनी किताब 'शह और मात' में लिखा है कि एक बार विजयाराजे सिंधिया ने आक्रोश में देवी अहिल्या का उदाहरण देते हुए कहा था कि उन्होंने अपने कुपुत्र को हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया था. इस पर माधवराव सिंधिया से प्रतिक्रिया मांगी गई तो उन्होंने कहा था कि वो मां हैं और ऐसा कहने का उन्हें अधिकार है.
इस परिवार के लिए सबसे दुखद रहा माधवराव सिंधिया का उत्तर प्रदेश के मैनपुरी ज़िले में एक विमान दुर्घटना में निधन हो जाना. माधवराव सिंधिया राजीव गांधी के काफ़ी क़रीबी रहे. अब माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजीव गांधी के बेटे राहुल गांधी क़रीबी हैं.
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राजमाता सिंधिया का वो धर्मसंकट
अपनी मां की तरह गुना लोकसभा क्षेत्र से माधवराव सिंधिया ने भी 1977 में कांग्रेस के समर्थन से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा और वो विजयी रहे.
जनता पार्टी की लहर के बावजूद माधवराव सिंधिया चुनाव जीते.
राजमाता सिंधिया के लिए उस वक़्त धर्मसंकट की स्थिति खड़ी हो गई जब 1984 के आम चुनाव में माधवराव सिंधिया ने अटल बिहारी वाजपेयी के ख़िलाफ़ ग्वालियर लोकसभा क्षेत्र से नामांकन भरा.
ग्वालियर में जीवाजीराव यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर एपीएस चौहान कहते हैं कि राजमाता नहीं चाहती थीं कि माधव राव सिंधिया वाजपेयी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ें.
चौहान कहते हैं, ''राजमाता ने मन मानकर वाजपेयी का कैंपेन किया, लेकिन वो मन से किसी के भी साथ नहीं हो पाईं. इस चुनाव में माधवराव सिंधिया की बड़ी जीत हुई.''
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'कारसेवकों का स्वागत करने वाली राजमाता'
विजयाराजे सिंधिया भारतीय जनता पार्टी में भी रहीं और वो 1989 में बीजेपी से ही गुना से जीतीं.
इसके बाद 1991, 1996 और 1998 में यहां से चुनाव जीतती रहीं. रामजन्मभूमि आंदोलन में भी विजयाराजे की भूमिका रही है.
विजयधर श्रीदत्त कहते हैं कि राजमाता की भूमिका उमा भारती और आडवाणी की तरह नहीं रही, लेकिन वो कारसेवकों का स्वागत करती थीं. 1999 में वो सक्रिय राजनीति से हट गईं और 2001 में उनका निधन हो गया.
कहा जाता है कि सिंधिया परिवार कभी चुनाव नहीं हारता, लेकिन विजयाराजे सिंधिया इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ 1980 में चुनाव हार चुकी हैं और वसुंधरा राजे सिंधिया भी भिंड से 1984 में चुनाव हार चुकी हैं.
बीजेपी और संघ की जड़ें मध्य प्रदेश में जमाने में इस परिवार की भूमिका बहुत अहम रही है. शायद इसी का हवाला देते हुए पिछले हफ़्ते एक चुनावी रैली में ज्योतिरादित्या सिंधिया ने कहा कि जो बीजेपी नेता कभी उनकी दादी यानी विजयाराजे सिंधिया के पीछे-पीछे चला करते थे आज वो काफ़ी मोटे हो गए हैं.
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जीवाजीराव का हिन्दू महासभा से संबंध भी इस परिवार को असहज करता है क्योंकि हिन्दू महासभा पर ही गांधी की हत्या का आरोप लगा था.
बीजेपी और संघ से इस परिवार के इतने गहरे संबंधों के बावजूद बीजेपी नेता इस परिवार को निशाना बनाने से बाज नहीं आते हैं.
एक वक़्त था जब यह परिवार ग्वालियर इलाक़े में कम से कम 50 विधानसभा सीटों पर हार-जीत तय करता था, लेकिन अब ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने लोकसभा क्षेत्र गुना में ही विधानसभा की कुल चार सीटों पर जीत नहीं दिलवा पाते हैं.
ग्वालियर शहर में इस परिवार की कोई आलोचना नहीं करता है, लेकिन ग्वालियर शहर से बाहर कई लोग इस चीज़ को रेखांकित करते हैं कि माधव राव सिंधिया वाली विनम्रता ज्योतिरादित्य सिंधिया में नहीं है.
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