जानिए डॉन अबू सलेम के घर का अब क्या है हाल?
अबू सलेम को करीब से जानने वाले लोग क्या कहते हैं सलेम के बारे में, पढ़िए।
नई दिल्ली। हफ्ते में कई बार चंदर की दुकान के गुलाब जामुन 'गपके' जाते थे। मीनारा मस्जिद की नान और बड़े के गोश्त का सालन इनकी भी कमजोरी थी। वक़्त काटने के लिए गिल्ली-डंडा या फिर आज़मगढ़ से मंगवाए गए कंचे। बैठकी के लिए लिए यूनुस भाई के टी-स्टॉल से बेहतरीन कोई जगह नहीं थी। इस दौर में अबू सलेम, अबू सालिम अंसारी था और सरायमीर जैसे छोटे से कस्बे में 'लफंडरी' किया करता था।
फिलहाल मुंबई के एक बिल्डर की हत्या में दोषी करार दिए जाने के बाद अबू सलेम महाराष्ट्र की एक जेल में उम्रकैद की सजा काट रहे हैं। उसके ऊपर लगे कई दूसरे आपराधिक मामलों की सुनवाई अदालतों में जारी है। जैसे अबू सालिम अब 'गैंगस्टर' अबू सलेम हो चुका है, वैसे ही सरायमीर नाम का ये छोटा कस्बा अब पूरे इलाके का सबसे बड़ा बाजार बन चुका है।
दशकों पहले पठान टोला में एक छोटे से घर से एडवोकेट अब्दुल कय्यूम, बेटे अबू सालिम को डपटते हुए 'मदरसतुल इस्लाह मदरसे' में खींच कर ले जाते थे। अब उसी घर के ठीक बगल में इसी परिवार का, सरायमीर में सबसे आलीशान, तीन मंजिला घर रंग-पुता खड़ा है और भीतर लाखों रुपए वाली एक एसयूवी भी। अब्दुल कय्यूम ज्यादा दिन 'पढाई में ध्यान न देने वाले' बेटे को मदरसे नहीं ले जा सके। एक दिन सुबह मोटरसाइकिल से कचहरी जाते समय रोड ऐक्सिडेंट में उनकी मौत हो गई। एक पड़ोसी को उस दिन की याद आज भी ताज़ा है। पढ़ें- जेल में ऐश कर रहा है डॉन अबु सलेम, गर्लफ्रेंड से करता है सिक्रेट मीटिंग
एडवोकेट थे अबू सलेम के पिता
उन्होंने कहा, "अबू सलेम की माँ कम-पढ़ी लिखी लेकिन बहुत नेक दिल और शरीफ महिला थीं। जबकि उनके पिता को इस बात का गुमान था कि वे एडवोकेट हैं। इसलिए बीवी को ज़्यादातर दबाकर ही रखते थे। लेकिन उस दिन के बाद उनकी बीवी ने पूरे घर को संभाला भी और चलाया भी।" सालों तक बीड़ी बना कर खर्च चलाने वाली माँ ने अपनी आखिरी सांस तक अबू सलेम को मुंबई अंडरवर्ल्ड से जुड़ने और 1993 के सीरियल बम धमाकों में कथित तौर से शामिल होने के लिए माफ़ नहीं किया था।
क्या करते हैं सलेम के भाई
इन दिनों सराय मीर के इस आलीशान घर में अबू सलेम के सबसे बड़े भाई अबू हाकिम उर्फ़ चुनचुन परिवार के साथ रहते हैं। 'चाइनीज़ ढाबा' चलाने वाले चुनचुन सरायमीर में ज़्यादा पॉपुलर नहीं क्योंकि वे 'नशे के करीब' रहते हैं।
दूसरे भाई अबुल लैस परिवार से अलग रहते हैंऍ 2005 में अबू सलेम के पुर्तगाल से प्रत्यर्पण के बाद अबुल लैस ही वकीलों के साथ उनसे मिलने पहुंचे थे।
सलेम के तीसरे भाई अबुल जैस लखनऊ में बस चुके हैं और एक बड़ी लॉज चलाते हैं। दोनों बहनों की शादी हो चुकी है और सरायमीर से 'उनका लेना-देना कम ही है।' एक बहन जगदीशपुर में बस चुकीं हैं, दूसरी मुबारकपुर में। पढ़ाई में मन न लगाने वाले अबू सलेम ने 15-16 वर्ष की उम्र में ही सरायमीर छोड़ दिया था।
दिल्ली होते हुए वो मुंबई पहुंचाा था और एक गराज में काम करने लगा था। सरायमीर के दो पुराने दोस्तों ने बताया, "मुंबई में हम लोग दो-एक बार मिले भी उससे। वो हर साल एक बार घर भी ज़रूर आता था"।
कोई नहीं देता था ध्यान
लेकिन एक पड़ोसी ने कहा, "हर अगले साल सालिम ज़्यादा स्मार्ट होकर आता था। कुछ हाई-फ़ाई बात भी करने लगा था। वरना पहले ध्यान कौन देता था उस पर।" अबू सलेम ने हमेशा इस बात से इनकार किया है कि आज़मगढ़ में उसकी कोई शादी हुई थी। लेकिन उसके मोहल्ले के कुछ लोगों का दावा है कि दरअसल '20-21 वर्ष की आयु में सलेम के बड़े-अब्बा (ताऊ) ने उनका निकाह खुदादादपुर नाम के गाँव की एक महिला से करवाया था।" पड़ोसियों के मुताबिक़, "दो-तीन साल में ही ये शादी टूट गई थी।" तहक़ीक़ात करने पर पता चला कि उस महिला की दोबारा शादी हो गई थी और कुछ दिन पहले उसके बेटे की भी शादी हुई है।
आजमगढ़ वाली शादी
सलेम के परिवार के किसी भी सदस्य से बात करने की कोशिश नाकाम रही। अबू सलेम के साथ चौराहों पर मटरगश्ती कर चुके ज़्यादातर दोस्त अब भौहें सिकोड़ कर हाथ झाड़ कहते हैं, "हमार कब्बौ दोस्ती न रही सालिमवा से।" ज़्यादातर अबू सलेम के सामने तब भी नहीं पड़े थे जब अबू सलेम माँ की मौत पर अदालत से इजाजत लेकर, पहले तीसरे में और फिर उनके 40वें पर, सरायमीर ले जाए गया था। अभी भी सलेम का नाम लेने पर लोग शक की नजर से देखते हैं और बहाना बना कर या चाय पूछते हैं या फिर ये कि चुनाव में जीत कौन रहा है।
सरायमीर के बीच की चौक पर गहमागहमी में अगर आपने मोबाइल निकाल एक-आधा तस्वीरें खींच ली और पहनावे से आप बाहरी लगे तो पूरे कस्बे को पता लग जाएगा आप 'पठान टोला वाले अबु सालिमवा' पर कुछ करने आए हैं। सलेम के परिवारजन यहाँ ज़्यादा लोकप्रिय भी नहीं पर लगभग सभी की राय है कि 'सलेम ने इन सबके लिए कुछ न कुछ भला ज़रूर किया है।"
सालिमवा पर कुछ करने आए
1993 के बम धमाकों में नामजद होने के बाद सलेम जब दुबई में था तब सरायमीर के एक बाशिंदे से उनके परिवार की ज़मीन के मामले पर कहासुनी हुई थी। जानने वाले बताते हैं कि अबू सलेम ने विदेश से उस कस्बे वाले को फ़ोन कर के कहा था, "मेरा इस झगड़े से कोई लेना-देना नहीं है।" समय के साथ सरायमीर भी बदल गया है। 1990 के दशक में यहाँ दर्जनों पीसीओ हुआ करते थे मध्य-पूर्व देशों में गए परिजनों से बात करने के लिए,अब हर दूसरी दुकान में सिम कार्ड और समार्टफ़ोन बिक रहे हैं सस्ती अंतरराष्ट्रीय कॉलों के ऑफ़र के साथ।
1997 में जब टी-सिरीज़ के मालिक गुलशन कुमार की मुंबई में दिन-दहाड़े हत्या हुई थी, तब सराय मीर में ये ख़बर दो हफ़्ते बाद पहुंची थी कि हमलावर जो कट्टा छोड़ भागे उनमें से एक बगल के गाँव बमहौर में बना था। 2016 में जब अबू सलेम पर जेल में हमला हुआ, उसके आधे घंटे बाद सराय मीर के लोग यू ट्यूब पर इस ख़बर को लाइव देख रहे थे।
बदल गया है सरायमीर
चंदर की दुकान आज भी है। बस, ख़स्ताहाल हो चुकी है। मीनारा मस्जिद के पास बड़े के गोश्त का सालन और नान आज भी बनती है।लेकिन बिकती कम है। सरायमीर में चाउमीन और बर्गर भी बिकने लगा है। कस्बे के बच्चे कंचे आज भी खेलते हैं लेकिन कम, क्योंकि छह कंचों के दाम में मोबाइल फोन गेम बिकता है।
फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि 25 साल पहले कुछ लोग जिस अबू सालिमवा से हंसी-मज़ाक कर कंधे पर हाथ रख लेते थे, जेल में क़ैद उसी अबू सलेम की बात करने से कतराते हैं।