केरल की आपदा क़ुदरत का कहर या इंसानी ग़लती
केरल की प्रलयंकारी बाढ़ प्रकृति का कोप है या इसके लिए मनुष्य की गतिविधियां भी ज़िम्मेदार हैं.
भारत के दक्षिण भारतीय राज्य केरल पर इस वक़्त जो विपदा आई है वो इंसान और पानी के बीच अपने अस्तित्व और अपनी जगह की लड़ाई का सबसे ताज़ा उदाहरण है. ये बिल्कुल वैसा ही है जैसा इंसानों और जंगली जानवरों के बीच जंगल के लिए होने वाली लड़ाई होती है.
ये उत्तराखंड, कश्मीर, गुजरात, मुंबई और चेन्नई में पिछले दशक में अपनी जगह के लिए इंसानों को किनारे पर धकेलते पानी से उपजी आपदा से बिल्कुल अलग नहीं है. इन सभी जगहों पर पानी ने अपनी जगह वापस पाने के लिए इंसानों और उनके 'विनाशकारी विकास' को बुरी तरह किनारे कर दिया है.
एक के बाद एक कई विशेषज्ञों ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि ये सच है कि इस साल केरल में मॉनसून आने के बाद से वाक़ई असाधारण रूप से बहुत ज़्यादा बारिश हुई है. भारत के मौसम विभाग ने ख़ुद इसे एक हफ़्ते में सामान्य से साढ़े तीन गुना ज़्यादा और एक दिन में 10 गुना ज़्यादा बारिश बताया है.
बारिश से होने वाला नुक़सान तो अपनी जगह है ही, लेकिन इंसानों ने जानमाल के ऩुकसान को बढ़ाने में एक बड़ी भूमिका निभाई है.
ये अभूतपूर्व बारिश नहीं बल्कि ऐसी आपदा है जिसकी मिसाल कम ही देखने को मिली है. ये कहना है जानी-मानी मौसम वैज्ञानिक और भारतीय विज्ञान संस्थान में सेंटर ऑफ़ ऐटमॉस्फ़ेरिक ऐंड ओशिएनिक साइंसेज़ की पूर्व चेयरपर्सन डॉक्टर सुलोचना गाडगिल का.
इंसान हैं ज़िम्मेदार?
डॉक्टर गाडगिल की तरह ही केरल फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (KFRI) के पूर्व निदेशक डॉक्टर पीएस. एसा का भी मानना है कि ये सब इंसानों का किया-धरा है.
डॉक्टर एसा कहते हैं, "प्राकृतिक आपदाएं हमेशा आती रही हैं, लेकिन हम इंसानों ने मुश्किलों को बढ़ा दिया है. पहाड़ी इलाकों में धड़ल्ले से होता निर्माण कार्य और ढलानों पर बनी इमारतों ने नदियों और नहरों के रास्ते संकरे कर दिए हैं. नदियों के पानी को बहने के लिए जगह ही नहीं बची है."
चेन्नई स्थित एनजीओ केयर अर्थ रिसर्च बायोडायवर्सिटी की प्रमुख डॉक्टर जयश्री वेंकटेशन का कहना है, "पिछले 20-25 सालों में विकास या यूं कहें कि इमारतें पहाड़ियों पर ऊपर बनने लगी हैं. यही उत्तराखंड में हुआ था जहां आपने देखा कि बाढ़ के पानी ने कैसे इमारतों को उनकी नींव समेत नीचे गिरा दिया."
ऐसा भी नहीं है कि नदियों और नहरों के पास होने वाले निर्माण कार्य को सीमित करने के लिए कोई क़ानून नहीं है.
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नदी के रास्ते में आ गए हैं इंसान
भूमि और आपदा प्रबंधन संस्थान, तिरुवनंतपुरम के आपदा प्रबंधन केंद्र में पूर्व प्रमुख रही डॉक्टर केजी तारा ने कहा, "हमने कई राज्यों से साल 2004 में ही संपर्क किया था. हमने कहा था बाढ़ वाले इलाकों को ज़ोनों में बांटा जाएगा. लेकिन, न तो केरल और न ही किसी राज्य ने इस बारे में कोई परवाह दिखाई."
डॉक्टर वेंकटेशन ने कहा, "नदी अपने रास्ते पर ही है. यह अपना रास्ता नहीं बदल रही है. बात इतनी है कि हम इतने मूर्ख हैं कि नदियों के रास्ते में इमारतें बना रहे हैं और यही वजह है कि इमारतें आख़िरकार बाढ़ के पानी में बही जा रही हैं. इसलिए अगर सबसे संवेदनशील इलाकों में (जैसे उत्तराखंड और केरल) में छोटी-मोटी प्राकृतिक घटनाएं भी होती हैं तो इसे बड़ी आपदा बनते देर नहीं लगती."
लेकिन केरल समेत बाकी जगहों पर बाढ़ के अलावा भी ऐसी चीजें हैं जिन्होंने मुसीबतों को बढ़ाया.
डॉक्टर सुलोचना गाडगिल के मुताबिक, "इसकी दो बड़ी वजहें हैं- उत्खनन और कृत्रिम झीलें. जब महाराष्ट्र में किसान पानी मांगते हैं तो उन्हें यह नहीं मिलता, लेकिन जब बारिश होती है तो यही पानी बह जाता है और बाढ़ आ जाती है."
डॉक्टर सुलोचना से सहमति जताते हुए डॉक्टर एसा कहते हैं, " उत्खनन की वजह से भूस्खलन का ख़तरा हमेशा बना रहता है क्योंकि इससे ज़मीन कहीं न कहीं ढीली पड़ जाती है."
समस्या पानी के प्रबंधन की भी
जल संरक्षक विश्वनाथ एस. भी डॉक्टर सुलोचना से सहमत हैं.
उन्होंने कहा, "बांधों और कृत्रिम जलाशयों से पानी तभी छोड़ा जाता है जब यह ख़तरे के निशान से ऊपर पहुंच जाता है. पानी ख़तरे के निशान से ऊपर पहुंचे, इसके बाद 22 बांधों से पानी छोड़ने से अच्छा है कि ऐसी स्थिति आने से पहले ही 39 बांधों से समान मात्रा में थोड़ा-थोड़ा करके पानी थोड़ दिया जाए."
इकोलॉजिस्ट (पारिस्थिकी तंत्र विशेषज्ञ) एस. फैज़ी कहते हैं, "केरल सबसे ज़्यादा जनसंख्या घनत्व वाले राज्यों में से एक है. इसका मुकाबला सिर्फ़ पश्चिम बंगाल ही कर सकता है. पूरा राज्य सेमी-अर्बन है. यहां घरों की कतारों के बीच में रुका हुआ पानी और धान के खेत देखने को मिलते हैं. राज्य समिति के सदस्य के तौर पर जब मैं एक दौरे पर यहां गया तो यह देखकर हैरान रह गया कि जहां पहले धान की खेती होती थी वहां छह मंजिला इमारत खड़ी थी."
फ़ैज़ी कोच्चि एयरपोर्ट का उदाहरण देते हैं जो उस जगह पर बना है जहां पहले धान की खेती होती थी. उन्होंने कहा, "इसी तरह दिल्ली के राष्ट्रपति भवन और लुटियन ज़ोन में आज भी बंदर और सांप पाए जाते हैं. पहले ये उनके रहने की जगह हुआ करती थी. कुदरत को किनारे नहीं धकेला जा सकता."
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मुंबई की बाढ़
केरल की तरह ही चेन्नई और मुंबई में पानी ने बाढ़ के ज़रिए अपनी सतह ढूंढी.
पानी उन जगहों पर पहुंच गया जहां उसे हटाकर इमारतें बनाई गई थीं और अतिक्रमण किया गया था. बाढ़ से होने वाली तबाही के बाद तमिलनाडु सरकार ने एहसास किया कि चेन्नई के दो-तिहाई हिस्से में कोई ड्रेन सिस्टम ही नहीं है. इसके लिए 4,000 करोड़ रुपये इकट्ठे किए गए, लेकिन 20 महीनों में बहुत काम हुआ है.
शहरी योजना विशेषज्ञ और आर्किटेक्स नरेश नरसिम्हन ने कहा, "वास्तव में तक़रीबन सभी भारतीय शहरों के पास बाढ़ के पानी से बचने की कोई योजना नहीं है. उनके पास पुराने ज़माने का ड्रेनेज सिस्टम है जो सीवेज से भरा है. इसलिए जब बारिश होती है तो पानी निकलने के लिए कोई जगह ही नहीं होती. यह सीवेज में मिलकर बड़े इलाकों में बाढ़ के रूप में फैल जाता है."
नरसिम्हन के मुताबिक, "दूसरी बात ये कि हम झीलों और टैंकों को बाढ़ का पानी इकट्ठा करने के लिए इस्तेमाल नहीं करते, लेकिन ऐसा मुमकिन है. हमें नाली का पानी बहने लिए अलग पाइप की ज़रूरत होगी. पानी को निकलने के लिए कोई जगह तो चाहिए. अगर इसे जगह नहीं मिलेगी तो ये आपके घरों में ही आएगा."
डॉक्टर एसा का कहना है कि शहरों को बसाते वक़्त वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों को हमेशा दरकिनार किया जाता है.
डॉक्टर तारा, माधव गाडगिल की उस रिपोर्ट का ज़िक्र करती हैं जिसमें उन्होंने पंचायत या स्थानीय निकायों को उन इलाकों को चिह्नित करने की सलाह दी थी. लेकिन इस सलाह को राजनीतिक वजहों से ठुकरा दिया गया.
डॉक्टर तारा कहती हैं, "इस रिपोर्ट में दिए गए सुझावों को अमल में लाना ही एक रास्ता है जिससे केरल और बाकी देश को बचाया जा सकता है. वरना, कुदरत तो बदला लेगी."
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