प्रियंका गांधी यूपी कांग्रेस में किस तरह जान डाल पाएंगी?
जहां तक पूर्वी उत्तर प्रदेश का सवाल है तो 2009 में 21 में से 13 सीटें कांग्रेस को पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही मिली थीं और उसके कई नेता मंत्री भी बने थे. रायबरेली, अमेठी और सुल्तानपुर के अलावा फूलपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, चंदौली जैसे कई इलाक़े ऐसे हैं जो लंबे समय तक कांग्रेस नेताओं के गढ़ समझे जाते रहे हैं.
इसके अलावा ये ऐसा इलाक़ा है जहां कांग्रेस पार्टी के सत्ता में रहते कई औद्योगिक इकाइयां और कारख़ाने लगे जो अब या तो बंद हो गए हैं
रायबरेली में प्रियंका गांधी की नियुक्ति को कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता पार्टी के लिए एक संजीवनी के तौर पर देख रहे हैं.
लखनऊ से लेकर रायबरेली, अमेठी, इलाहाबाद और पूर्वांचल तक इस ख़बर ने पार्टी कार्यकर्ताओं में ग़ज़ब का जोश और उत्साह भर दिया है.
लेकिन सवाल ये है कि सिर्फ़ एक इस नियुक्ति से क्या पार्टी के दिन फिरेंगे और यदि ऐसा था तो पार्टी ने ये क़दम अब तक क्यों नहीं उठाया?
इन सवालों पर पार्टी कार्यकर्ताओं का कहना है कि इसके पीछे कई कारण हैं, सिर्फ़ एक नहीं.
रायबरेली में कांग्रेस पार्टी के ज़िला अध्यक्ष वीके शुक्ल कहते हैं, "प्रियंका गांधी को पार्टी में लाने की बात लंबे समय से हो रही थी. उनकी ये मांग पूरी हो गई है तो कार्यकर्ताओं में जोश की अहम वजह यही है. दूसरे, ज़मीनी स्तर पर प्रियंका गांधी के काम को रायबरेली और अमेठी में लोगों ने देखा है. दूसरे ज़िलों तक पार्टी कार्यकर्ताओं में ये बात जाती रहती है. अब उन्हें भी उम्मीद है कि उनके यहां भी संगठन में यही मज़बूती आएगी."
वीके शुक्ल ये भी कहते हैं कि प्रियंका गांधी को राजनीति में उतारने का यही सबसे सही समय है.
उनके मुताबिक़, इसकी बड़ी वजह केंद्र और राज्य में बीजेपी सरकार का होना है और राज्य के लोग बीजेपी समेत अन्य सभी पार्टियों की सरकारों से कांग्रेस सरकारों की तुलना करेंगे, जिस पर कांग्रेस सरकारें भारी पड़ेंगी.
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कांग्रेस को बड़ी उम्मीद
रायबरेली के पत्रकार माधव सिंह लंबे समय से कांग्रेस पार्टी की गतिविधियों पर नज़र रखते रहे हैं.
उनका मानना है कि रायबरेली में गांधी परिवार का कोई भी सदस्य आज भी अजेय है, लेकिन यहां के लोगों की ख़ुशी और उत्साह का कारण ये भी है कि इससे उनके भीतर पूरे यूपी में कांग्रेस की मज़बूती की उम्मीद जगी है.
माधव सिंह इसकी वजह बताते हैं, "सबसे बड़ी बात तो ये है कि यहां प्रियंका गांधी हर कार्यकर्ता से मिलती-जुलती हैं, उनकी समस्याएं सुनती हैं और उन्हीं के अनुसार रणनीति तय करती हैं. मीडिया की रोशनी से अलग भी वो यहां कई ऐसे काम कर रही हैं जिससे बड़ी संख्या में महिलाओं को जोड़ रखा है और उन्हें आत्म निर्भर बना रखा है. प्रियंका का ये रूप अमेठी-रायबरेली के आगे नहीं दिखा है. ऐसा लगता है कि सिर्फ़ पूर्वी उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी सौंपने के पीछे भी पार्टी का यही मक़सद है कि प्रियंका इसी तरीक़े से पूर्वांचल के इलाक़े में लोगों को ख़ुद से और पार्टी से जोड़ने का काम करेंगी."
दरअसल, कांग्रेस पार्टी को साल 2019 के लोकसभा चुनाव में इसलिए भी उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है.
क्योंकि, उसे लगता है कि राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के ख़िलाफ़ लड़ाई में आम मतदाताओं का भरोसा कांग्रेस पार्टी में ही होगा. लखनऊ में कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि साल 2017 में समाजवादी पार्टी से गठबंधन करके कांग्रेस ने बहुत बड़ी ग़लती की और 2019 में गठबंधन करने का सवाल ही नहीं था, भले ही प्रदेश और केंद्र के कई नेता इसके लिए लॉबीइंग कर रहे थे.
उनके मुताबिक़, "ऐसे नेताओं को लगता था कि गठबंधन से वो ख़ुद विधान सभा और लोकसभा में पहुंच जाएंगे जबकि इसकी वजह से पूरे प्रदेश में संगठन को जो नुक़सान हुआ, उसकी उन लोगों ने परवाह नहीं की. इस बार यदि गठबंधन होता तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं में बहुत रोष पैदा होता, पार्टी को ये पता था और प्रियंका गांधी की नियुक्ति इसी के मद्देनज़र हुई है. कार्यकर्ता तो उत्साहित होगा और इसका असर भी दिखेगा."
पुरानी साख पाने की कोशिश
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी ने साल 2009 में अप्रत्याशित जीत हासिल की थी. इस चुनाव में उसे न सिर्फ़ 21 सीटें हासिल हुई थीं बल्कि मत प्रतिशत भी 18 से ऊपर पहुंच गया था.
लेकिन 2014 में मोदी लहर में पार्टी की स्थिति जो ख़राब हुई तो 2017 के विधान सभा चुनाव तक जारी रही. हालांकि वरिष्ठ पत्रकार सुनीता ऐरन इसके लिए पार्टी की ढुलमुल रणनीति को ही ज़िम्मेदार मानते हैं.
सुनीता ऐरन के मुताबिक़, "2017 में पार्टी ने जिस तरह से प्रचार की शुरुआत की थी और अपने पुराने वोट बैंक को दोबारा हासिल करने की कोशिश की थी, उसकी दिशा काफ़ी हद तक सही दिख रही थी. लेकिन सपा से गठबंधन के बाद ये स्थिति पूरी तरह से उलट गई. इन सब स्थितियों से उबरने के लिए पार्टी को एक ख़ास चेहरे की ज़रूरत थी जिस पर नेताओं को भी भरोसा हो और कार्यकर्ताओं को भी. प्रियंका को लाना इसलिए भी ज़रूरी था क्योंकि पार्टी के किसी अन्य नेता का नेतृत्व सभी स्वीकार कर लें, कांग्रेस के लिए इस समय ये भी बड़ी चुनौती थी."
सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस के न शामिल होने या न शामिल करने का भी आम कांग्रेसियों ने स्वागत किया है.
दरअसल, यूपी में कांग्रेस की सबसे बड़ी ज़रूरत राज्य भर में संगठन को मज़बूत करना है न कि सीटों की संख्या बढ़ाना है.
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कांग्रेस को फ़ायदा
जानकारों के मुताबिक़, 2019 में 2014 वाली मोदी लहर नहीं है और इसका फ़ायदा सपा-बसपा गठबंधन अकेले उठा लेगी, ये ज़रूरी नहीं है. राजनीतिक टिप्पणीकारों के मुताबिक़, इस त्रिकोणीय लड़ाई में गठबंधन की तुलना में कांग्रेस ज़्यादा फ़ायदे में रहेगी, ये तय है.
प्रियंका गांधी को पूर्वी यूपी की कमान सौंपने वाले दिन ही राहुल गांधी बुधवार को दो दिवसीय दौरे पर अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर आए थे. इस दौरान उन्होंने तीनों ज़िलों में कई छोटी-बड़ी सभाएं कीं और कार्यकर्ताओं को ये संदेश देने की कोशिश की कि इसके ज़रिए वो पार्टी को यूपी में खोई ज़मीन वापस दिलाना चाहते हैं.
जहां तक पूर्वी उत्तर प्रदेश का सवाल है तो 2009 में 21 में से 13 सीटें कांग्रेस को पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही मिली थीं और उसके कई नेता मंत्री भी बने थे. रायबरेली, अमेठी और सुल्तानपुर के अलावा फूलपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, चंदौली जैसे कई इलाक़े ऐसे हैं जो लंबे समय तक कांग्रेस नेताओं के गढ़ समझे जाते रहे हैं.
इसके अलावा ये ऐसा इलाक़ा है जहां कांग्रेस पार्टी के सत्ता में रहते कई औद्योगिक इकाइयां और कारख़ाने लगे जो अब या तो बंद हो गए हैं या फिर बंदी के कगार पर हैं. ज़ाहिर है, प्रियंका गांधी के ज़रिए कांग्रेस पार्टी लोगों में ये संदेश देने की कोशिश भी करेगी.