Analysis: गुजरात-हिमाचल में हार के बाद दोराहे पर खड़े राहुल गांधी, जाएंगे किधर?
नई दिल्ली। मोदी-शाह की जोड़ी के हाथों लगातार हार रही कांग्रेस को लंबे समय बाद गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों में उम्मीद की किरण दिखाई दे रही है। पीएम नरेंद्र मोदी के गढ़ के तौर पहचाने वाले गुजरात में बीजेपी को 100 सीटों से कम पर रोकना कांग्रेस के लिए बड़ी बात है। इस बात को कांग्रेस के धुर विरोधी भी स्वीकार कर रहे हैं, लेकिन एक कड़वा सच यह भी है कि कांग्रेस की हार का सिलसिला टूटा नहीं है। पिछले चुनावों की तुलना में फर्क सिर्फ इतना है कांग्रेस को सब्र करने लायक कुछ हाथ लगा है। लेकिन क्या इस सब्र से कांग्रेस की गाड़ी पटरी पर लौट आएगी? तो जवाब है- नहीं, बिल्कुल नहीं, क्योंकि राजनीति का लक्ष्य सत्ता है, संपूर्ण सत्ता, यही अंतिम सत्य है। कांग्रेस को चाहिए कि वह संपूर्ण सत्ता की ओर बढ़े, क्योंकि अभी वह ऐसा करती नहीं दिख रही है। अच्छी बात यह है कि अब उसके पास राहुल गांधी के रूप में युवा नेतृत्व है। जहां तक राहुल गांधी का सवाल है तो अब उनके सामने दो ही रास्ते बचे हैं। देखना यह है कि दोराहे की इस दुविधा वह कितना जल्दी निकल पाते हैं।
राहुल गांधी की सबसे बड़ी चुनौती
यह बात सच है कि राहुल गांधी को गुजरात में पार्टी के प्रदर्शन से काफी बल मिला है। लेकिन जमीनी हकीकत यह भी है कि नरेंद्र मोदी की तरह राहुल गांधी अभी तक वो ब्रैंड नहीं बन पाए हैं, जो अपने दम पर चुनावी नैया को पार लगा दे। तो उनके पास क्या विकल्प हैं? जवाब है- सिर्फ दो। पहला विकल्प- मात्र चार राज्यों तक सिमटी कांग्रेस में जान फूंकने के लिए राहुल गांधी को चाहिए कि वह हर राज्य में काबिल, ईमानदार और जनाधार वाले स्थानीय छत्रपों की पहचान करें और उन्हें राज्य स्तर पर काम करने की छूट दें।
हालांकि, इंदिरा गांधी और उनके बाद आई गांधी परिवार की पीढ़ी में ऐसा काम किसी ने नहीं किया। लेकिन राहुल गांधी को ये करना होगा, क्यों? तो जवाब ये है कि राहुल गांधी करीब डेढ़ दशक के अपने राजनीतिक करियर में ब्रैंड नहीं बन पाए, जबकि उनकी दादी इंदिरा गांधी, पिता राजीव गांधी पार्टी के सबसे बड़े स्टार थे। ये वो नेता थे, जिनके फेस पर चुनाव लड़े गए थे। ऐसे में स्थानीय छत्रपों की जरूरत इनको नहीं पड़ी, या यूं कहें कि इन्होंने स्थानीय छत्रपों को पनपने ही नहीं दिया।
क्षेत्रीय छत्रपों पर करना होगा भरोसा
ऐसे में राहुल गांधी के लिए सबसे अच्छा उदाहरण हैं उनकी मां सोनिया गांधी, जिन्होंने हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा, पंजाब में अमरिंदर सिंह, राजस्थान में अशोक गहलोत, आंध्र प्रदेश में वाई एस राजशेखर रेड्डी पर भरोसा किया। यह कहना तो गलत होगा कि इन स्थानीय छत्रपों को सोनिया गांधी ने बनाया, लेकिन सोनिया गांधी ने लोकल लीडर्स की पहले से मौजूद कतार में से लोगों को चुना और उनके नाम मैदान में उतरे। यूं तो हिमाचल प्रदेश में वीरभद्र सिंह भी बड़े स्थानीय नेता हैं, लेकिन कांग्रेस में अब ज्यादातर स्थानीय छत्रप अब चुक चुके हैं और नई लीडरशिप बनाने का सुनहरा अवसर राहुल गांधी के पास है। अब देखना होगा कि कैसे और कितने कम समय में स्थानीय छत्रपों का नामकरण संस्कार कर पाते हैं...या नहीं?
राहुल गांधी के पास मौजूद दूसरा विकल्प
राहुल गांधी के पास पहला विकल्प कांग्रेस को मजबूत बनाकर चुनावी रणनीति के साथ मैदान उतरने का है, जिसके बारे में हमने ऊपर इतनी सारी बातें कीं। लेकिन दूसरा विकल्प भी उनके पास है। दूसरे विकल्प की बात इसलिए करनी पड़ी रही है, क्योंकि कांग्रेस ज्यादा बदलाव में यकीन नहीं रखती है। राहुल गांधी को ही ले लीजिए, उपाध्यक्ष बनने के बाद से ही उनके जल्द अध्यक्ष बनने की चर्चा शुरू हो गई थी, लेकिन करते-करते चार साल लग गए।
अगर राहुल राज में भी इसी रफ्तार से फैसले लिए गए, तो उनके पास दूसरा विकल्प यही है कि वह नरेंद्र मोदी की गलतियों का इंतजार करें और जब जनता उनसे ऊब जाएगी, खुद ब खुद कांग्रेस के हाथ को चुन लेगी, लेकिन दूसरा बड़ा टाइम टेकिंग होगा? जनता कब ऊबेगी, ये किसे पता? मौजूदा दौर में तो मोदी ब्रैंड कांग्रेस मुक्त भारत की ओर तेजी से बढ़ रहा है। भविष्य के गर्भ में क्या है, ये तो भविष्य ही बताएगा
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