क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

कोरोना: प्रवासी मज़दूर वापस घर आकर भी कितने ख़ुश हैं?

झारखंड वापस लौट चुके मज़दूरों के क्या हैं हालात. क्या अब मिलेगा अपने ही राज्य में काम?

By रवि प्रकाश
Google Oneindia News
कोरोना: प्रवासी मज़दूर वापस घर आकर भी कितने ख़ुश हैं?

पप्पू सिंह आठ साल से तमिलनाडु में थे. कोयंबटूर की एक टेक्सटाइल कंपनी में काम करते हुए उनकी नज़रें संध्या से मिलीं, तो पहली नज़र में प्यार हो गया.

चार साल पहले दोनों ने शादी भी रचा ली. सोचा कि अब वहीं पर एक छोटा-सा घर ले लेंगे. रोज़गार चलता रहेगा. बाल-बच्चे शहर के स्कूल में पढ़ेंगे, तो उन्हें मज़दूरी नहीं करनी पड़ेगी.

जिंदगी ठीक चल भी रही थी. तभी कोरोना आया. उनके सपनों के महल के दरवाज़े पर धड़ाम की आवाज़ हुई. उनका हसीन सपना टूट गया.

अब वे अपनी तमिल पत्नी के साथ ताराटीकर आ गए हैं.

यह झारखंड के अति पिछड़े संताल परगना इलाक़े के पत्थरगामा प्रखंड का एक गांव है.

गोड्डा ज़िले के इस गांव के अधिकतर लोग अंगिका बोलते हैं. तमिल बोलने वाली उनकी पत्नी संध्या अब अंगिका बोलने की प्रैक्टिस कर रही हैं. वे तमिनलाडु के तिरची गांव की रहने वाली हैं.

कोरोना: प्रवासी मज़दूर वापस घर आकर भी कितने ख़ुश हैं?

संध्या ने बीबीसी से कहा, "लॉकडाउन हुआ, तो काफी दिक़्क़त से अपने ससुराल आए. यहां न तो खेतीबाड़ी है और न कोई रोज़गार. आगे क्या होगा, इसका कोई पता नहीं. बहुत दिक़्क़त हो गई है."

हालांकि, पप्पू सिंह को इत्मीनान है कि गांव में उन्हें दाल-चावल की दिक़्क़त नहीं होगी. कहीं न कहीं से खाने का इंतज़ाम हो जाएगा. फिर भी उन्हें पिछली कई रातों से अच्छी नींद नहीं आई है. उनकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया है. चिंता यह कि अब पैसे कहां से लाएँगे. कहाँ काम करेंगे.

काम नहीं मिला, तो वापस जाएँगे

उन्होंने बीबीसी से कहा, "सोच रहा हूं कि खेती-गृहस्थी करुं लेकिन उतना खेत नहीं है. किसी दूसरे के खेत में काम करना होगा. रहने के लिए घर भी नहीं है. पिताजी का छोटा-सा एक घर है. उसमें पूरा परिवार रहता है. हमारे लिए अब कोई अलग कमरा नहीं है. मेरा दिमाग ख़ाली हो गया है. सोच नहीं पा रहे कि आगे क्या करेंगे. कैसे ज़िंदा रहेंगे. लॉकडाउन नहीं होता, तो वहीं (तमिलनाडु) रहते. काम बंद होने के कारण हमको घर लौटना पड़ा. अब यहां काम नहीं मिला, तो फिर वापस चले जाएंगे. लेकिन, कोरोना ख़त्म होने के बाद. क्योंकि, जान बचाकर वहां से भागे थे. अब जान गंवाकर थोड़े जाएंगे."

उनके भाई रमेश सिंह भी ऐसे ही लौटकर गांव आ गए हैं. उनकी सोच थोड़ी अलग है. कहते हैं कि सरकार हमको यहीं काम दे देगी तो क्यों जाएंगे. दो पैसा कम कमाएंगे लेकिन गांव में ही रहेंगे. पत्थरगामा प्रखंड के ही गांव बंदनवार के झबली यादव भी परेशान हैं. वे दिल्ली में काम करते थे. लॉकडाउन हुआ, तो किसी तरह घर आए.

कोरोना: प्रवासी मज़दूर वापस घर आकर भी कितने ख़ुश हैं?

उन्होंने बीबीसी से कहा, "पिता की मृत्यु के बाद घर चलाने का बोझ हमारे कंधे पर आ गया था. कहिए कि होश संभालते ही मज़दूरी करने लग गए थे. पंद्रह कट्ठा बपौती ज़मीन तो है लेकिन उससे क्या होगा. हम हमेशा से लेबरी (मज़दूरी) ही करते रहे. कभी दिल्ली, तो कभी मुंबई. बहुत पहले जब गांव में रहते थे, तब भी मज़दूरी ही का आसरा था."

ट्रक वाले ने 3200 रु लिया

झबली यादव ने कहा, "बीमारी और लॉकडाउन की वजह से दिल्ली मे काम -धंधा ठप हो गया. तो वहां कैसे रहते. क्या कमाते, क्या खाते. और कोरोना का भी तो डर लग रहा था. तब गांव में रहने वाली मेरी घरवाली (पत्नी) ने कर्ज़ लेकर 6000 रुपया भेजा. तब जाकर आ सके हैं. 3200 रुपया ट्रक का भाड़ा देना पड़ा. 84 लोग एक ट्रक से भागलपुर पहुंचे. फिर 90 किलोमीटर पैदल चलकर घर पहुंचे. बहुत कष्ट झेले. यहाँ मेरा राशन कार्ड है. चावल मिलता है. थोड़ी-बहुत खेती भी हो, तो खाने की कमी नहीं होगी."

उन्होंने यह भी कहा, "एक बात कहें साहब. मज़दूरी में बहुत ताक़त है. इसी के भरोसे दो बेटा को कॉलेज में पढ़ा रहे हैं. बड़ा बेटा अमरेंद्र बीए में और छोटा बीरेंद्र इंटर में पढ़ रहा है. बेटी अर्चना की शादी कर दिए हैं. सब मज़दूरी के भरोसे ही किए. सब ठीक होगा तो फिर जाना ही पड़ेगा. यहां क्या करेंगे. काम करना ही पड़ेगा. जहां मिले. किस्मत में तो लेबरी ही लिखा है."

कोरोना: प्रवासी मज़दूर वापस घर आकर भी कितने ख़ुश हैं?

सबकी एक-सी कहानी

यह कहानी सिर्फ पप्पू सिंह, रमेश या झबली यादव की ही नहीं है. लॉकडाउन के दौरान झारखंड के क़रीब छह लाख लोग (सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़) अलग-अलग राज्यों में फंस गए.

इनमें से कइयों के घरवालों ने उन्हें वापस बुलाने के लिए बैल बेचे. किसी ने ज़मीन गिरवी रखी, तो किसी ने गहने रखकर उधार लिया. अब इनके परिजन गाँव वापस आ गए हैं.

हालांकि, सबकी क़िस्मत एक जैसी नहीं होती.

गढ़वा के विशाल बेदिया और पप्पू बेदिया ने चेन्नई से गढ़वा तक का क़रीब 1500 किलोमीटर का रास्ता पैदल चलकर तय किया. उन्हें 21 दिन लगे लेकिन वे लगातार चलते रहे. इस दौरान कितनी रातें भूखे गुज़ारीं. कभी किसी ने कुछ खाने को दे दिया, तो खा भी लिया.

वे कहते हैं, "कान पकड़ते हैं. आधी रोटी खाएंगे लेकिन बाहर काम पर नहीं जाएंगे."

कोरोना: प्रवासी मज़दूर वापस घर आकर भी कितने ख़ुश हैं?

सरकार की योजनाएँ

इस बीच झारखंड सरकार ने प्रवासी मज़दूरों के रोज़गार के लिए 20 हज़ार करोड़ की तीन योजनाओं की घोषणा की है. मुख्यमंत्री ने कहा कि हमारी चिंता मज़दूरों की घर वापसी, उनकी स्वास्थ्य जाँच और फिर उन्हें रोज़गार देने की है. हम वैसे सभी लोगों को रोज़गार देंगे, जो झारखंड मे ही रहना चाहते हैं.

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा, "हमारी सरकार ने ग्रामीण विकास विभाग के तहत 25 करोड़ मानव दिवस के सृजन का लक्ष्य रखा है. हमलोग बिरसा हरित ग्राम योजना, नीलांबर-पीतांबर जल समृद्धि योजना और वीर शहीद पोटो-हो खेल विकास योजना पर काम कर रहे हैं. इसके तहत मज़दूरों के रोज़गार का प्रबंध किया जा रहा है. मनरेगा की पहले से चल रही योजना में भी हमने मज़दूरी दर बढ़ाने के साथ ही रोज़गार गारंटी के दिन भी बढ़ाने का अनुरोध प्रधानमंत्री से किया है."

वरिष्ठ पत्रकार डा विष्णु रागढिया मानते हैं कि सरकार ने अपने स्तर से बेहतर कोशिश की है. अगर लोगों को गांव में ही रोज़गार मिल जाए तो कोई क्यों बाहर जाएगा. अब प्रशासनिक मशीनरी को इसे अच्छी तरह लागू कराना होगा, ताकि इन योजनाओं का लाभ गाँव के लोगों को मिले.

कोरोना: प्रवासी मज़दूर वापस घर आकर भी कितने ख़ुश हैं?

गाँवों में नहीं पहुंच रही योजनाएँ

हालांकि, सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि मुख्यमंत्री की घोषणा के बावजूद सुदूर गाँवों में इन योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है या बहुत कम मिल रहा है.

लातेहार ज़िले के सामाजिक कार्यकर्ता पचाठी सिंह ने बीबीसी से कहा कि ज़िला स्तर पर तो लोगों को लाभ मिल जाता है लेकिन गांवों में ये योजनाएं उसी रूप में नहीं पहुंच पाती हैं.

कोरोना: प्रवासी मज़दूर वापस घर आकर भी कितने ख़ुश हैं?

पचाठी सिंह ने बीबीसी से कहा, "प्रवासी मज़दूर गांव लौटने लगे हैं. सरकार इन्हें रोज़गार देना चाहती है तो उसे पंचायत और गांव के लेवल पर आकर काम करना होगा. अभी यह नहीं हो पा रहा है. प्रखंड से लेकर पंचायत तक व्यवस्थाएँ चरमरा गई हैं. इस कारण इक्का-दुक्का को छोड़कर मनेरगा का काम नहीं दिखता है. जबकि इस महामारी के दौर मे लोगों को गाँव में ही काम की ज़रूरत है."

BBC Hindi
Comments
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
English summary
Coronavirus: How happy are the migrant workers coming back home?
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X