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ब्लॉगः अब फ़लस्तीनी क्षेत्र क्यों जा रहे हैं पीएम मोदी?

यह अच्छा अवसर है, ख़ासकर तब जब अमरीका ने फ़लस्तीनियों की नज़र में अपनी विश्वसनीयता खो दी है.

By BBC News हिन्दी
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नरेंद्र मोदी
Getty Images
नरेंद्र मोदी

विदेश नीति से संबंधित मामलों में भारत हमेशा से दुल्हन की सखी यानी दो नंबर वाली भूमिका निभाता आया है. या फिर कहें तो शांति से काम करने वाले की.

इसने सुपर पावर या एक प्रतिष्ठित ग्लोबल ताक़त बनने की महत्वकांक्षा पर जोर दिया है. लेकिन अपनी महत्वकांक्षाओं को पाने के लिए निर्णायक काम और प्रबल नीति बनाने में नाकाम रही है.

2014 में सत्ता में आने के बाद से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया के हर कोने का दौरा कर रहे हैं. इसने निश्चित ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की साख और मजबूत करने का काम किया है.

लेकिन बहुत से लोग मानते हैं कि उनकी विदेश नीति की चाल और विदेश यात्रा की गति एक समान नहीं हैं. लगभग सभी विशेषज्ञ यह मानते हैं कि भारत की विदेश नीति द्विपक्षीय और क्षेत्रीयवाद पर अधिक केंद्रित है.

हमसे पूछिए: भारत-इसराइल संबंधों के बारे में

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भारतः एक संभावित वैश्विक शक्ति

भारत को हाल के दिनों में एक संभावित वैश्विक शक्ति के रूप में देखा जा रहा है-- वो क्षमता जो अपूर्ण रही है. वो पांच सदस्यों वाली संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी क्लब में अपना दावा मजबूत करने की कोशिश करता रहा है.

अमरीका और ब्रिटेन जैसी वैश्विक शक्तियां भी भारत को इस लक्ष्य प्राप्ति में मदद की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन ऐसा लग रहा है कि भारत अब इस दावे से दूर हो गया है.

भारत के पास वैश्विक शक्ति के रूप में ख़ुद को सामने लाने का मौक़ा है. कई विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत को इसराइल और फ़लिस्तीनी प्रशासन के बीच मध्यस्थ के तौर पर अमरीका का स्थान लेने की कोशिश करनी चाहिए.

यह अवसर फ़लस्तीन के अमरीका से बात करने से इनकार की वजह से पैदा हुआ है, जो यरूशलम की भविष्य की स्थिति के मामले में इसराइल के पक्ष में है.

इस मुद्दे पर भारत का नज़रिया बिल्कुल स्पष्ट हैः भारत हमेशा ही 1967 से पहले की सीमाओं के आधार पर दोनों राज्यों के बीच समाधान वकालत करता रहा है. वो यह जानता है कि यरूशलम के मुद्दे पर वो इसराइल का पक्ष नहीं ले सकता है.

फ़लस्तीनियों को भी इसराइल और भारत के बीच गहरे रिश्तों का पता है. उसने इस तथ्य को स्वीकार लिया है कि भारत अपनी रक्षा और सुरक्षा क्षमताओं को बढ़ाने के लिए इसराइल पर बहुत हद तक निर्भर है.

अपने दोनों मध्यपूर्व पड़ोसियों के साथ रिश्ते में पारदर्शी नीति के कारण भारत दोनों ही देशों के साथ अच्छा मित्र बना हुआ है.

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मोदी का रामल्ला जाने के मायने

अब इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के भारत दौरे के कुछ दिनों बाद मोदी यूएई, ओमान और वेस्टबैंक में रामल्ला के तीन अरब देशों के दौरे पर जा रहे हैं.

वो रामल्ला जाने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री होंगे, मोदी इसराइल के दौरे पर जाने वाले भी पहले प्रधानमंत्री बने थे.

विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने कहा कि प्रधानमंत्री के वेस्टबैंक का दौरा दोनों के बीच पुराने संबंधों को और मजबूत बनाने की दिशा में उठाया गया क़दम है.

2015 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की वेस्टबैंक की आधिकारिक यात्रा का ऐतिहासिक रूप से स्वागत किया गया था. लेकिन इस क्षेत्र में मोदी की शुरुआती कोशिश है, जिसने फ़लस्तीनियों के बीच जिज्ञासा पैदा कर दी है.

दो चिरप्रतिद्वंद्वी पड़ोसी मुल्कों के साथ एक साथ अच्छे संबंध बनाए रखने में कामयाबी हासिल करने का श्रेय भारत को जाता है. विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता इसे "इसराइल और फ़लस्तीन दोनों के साथ अलग संबंध स्थापित करना" बताते हैं.

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राइल और फ़लस्तीन में भारत एक समान लोकप्रिय

दोनों देशों के साथ अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के साथ ही भारत इसराइल में उतना ही लोकप्रिय है जितना फ़लस्तीनी क्षेत्र में.

और भारत के लिए दो युद्धरत देशों के बीच एक ईमानदार शांति मध्यस्थ की भूमिका निभाने का यह एक अच्छा अवसर है, ख़ासकर तब जब अमरीका ने फ़लस्तीनियों की नज़र में अपनी विश्वसनीयता खो दी है.

लेकिन क्या भारत इसे मौक़े के तौर पर देख रहा है? इसके पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए इसका जवाब "ना" में है.

लेकिन जेएनयू के पश्चिम एशिया विषय के प्रोफेसर एके रामाकृष्णन का मानना है कि भारत को ऐसा करना चाहिए.

वो कहते हैं, "यह भारत के लिए महत्वपूर्ण अवसर है, कोशिश की जानी चाहिए."

बहुत बड़ी रणनीति बनानी होगी

भारत के पूर्व विदेश सचिव शशांक ने कहा भारत कोशिश कर सकता है, लेकिन उन्हें नहीं लगता कि जहां अमरीका विफल रहा वहां भारत सफल हो पायेगा.

वो कहते हैं, "भारत कोशिश कर सकता है, लेकिन यह आसान नहीं है. यह मुद्दा जटिल और पुराना है. अगर अमरीका इसमें विफल हो गया है तो यह देखना होगा कि भारत इसमें सफल कैसे होगा, लेकिन इसकी कोशिश की जा सकती है."

लेकिन विदेश नीति के अधिकांश विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत को बड़ा सोचते हुए पहले द्विपक्षीयवाद से ऊपर उठने की ज़रूरत है.

इसराइल और फ़लस्तीन के बीच भारत मध्यस्थ बने, यह चाहने वाले रामाकृष्णन सलाह देते हैं कि यहां के विदेश नीति निर्माताओं को शांति स्थापित करने में भूमिका निभाने की सोचने से पहले एक बहुत बड़ी रणनीति बनानी होगी.

तो क्या इसराइल और फ़लस्तीन के बीच अगर भारत शांति प्रक्रिया में मध्यस्थ की भूमिका निभाएगा तो क्या उसमें सफल हो सकेगा?

सब का साथ

शशांक कहते हैं कि भारत को इस किरदार में आने से पहले अन्य बड़ी शक्तियों से परामर्श करना होगा.

वो कहते हैं, "अगर भारत बिना किसी परामर्श के अकेले चलता है तो इसके लिए उसे बहुत ताक़तवर होना पड़ेगा. लेकिन यदि भारत सुरक्षा परिषद के सदस्यों और पश्चिम एशियाई के अन्य देशों की सलाह लेता है तो वह इस भूमिका में आगे बढ़ने के लिए अनुकूल माहौल बना सकता है और फिर भारत की भूमिका को गंभीरता से लिया जाएगा."

बेशक, जब फ़लस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शनिवार को शानदार लंच का मजा ले रहे होंगे तो दो पुराने शत्रुओं के बीच मध्यस्थ की भूमिका की संभावना नहीं तलाश रहे होंगे. लेकिन इस संभावना की चर्चा की जा रही है.

अब अपने आप को वर्ल्ड लीडर के तौर पर आगे लाने की ज़िम्मेदारी खुद भारत पर है. इससे बड़ा मंच नहीं मिलेगा, हालांकि इसराइल-फ़लस्तीनी मुद्दे की ही तरह यह जोखिमों से भरा हुआ है.

BBC Hindi
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English summary
Blog Why are PM Modi going to the Palestinian area now
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