झारखंड की हार से भाजपा ले सकती है ये सबक, वरना दिल्ली में भी उठाना पड़ सकता है खामियाजा
नई दिल्ली- झारखंड में बीजेपी पांच साल से सत्ता में थी और एंटी इंकंबेंसी फैक्टर के चलते उसका सत्ता की दौड़ में पिछड़ना आमतौर पर बहुत बड़ी बात नहीं थी। लेकिन, जिस तरह से पार्टी ने महज 6 महीने के भीतर 17% से ज्यादा वोट गंवा दिए हैं, वह पार्टी के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत है। लोकनीति और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने जो राज्य में चुनाव के बाद सर्वेक्षण किए हैं, उससे यह बात तो सामने आई है कि हार के पीछे कई स्थानीय फैक्टर ने काम किया है, लेकिन अगर इसकी व्यापक वजहों पर नजर डालें तो आने वाले दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए भी पार्टी के मैनेजरों के कान खड़े हो सकते हैं। खासकर झारखंड विधानसभा चुनाव का ऐसा परिमाण उस वक्त आया है जब नागरिकता संशोधन कानून, एनआरसी और एनपीआर को लेकर केंद्र सरकार को पूरे देश में भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। क्योंकि, झारखंड में चुनाव बाद के सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आई है कि भाजपा की लोकप्रियता तो घटी ही है, मोदी फैक्टर भी उतना असरदार साबित नहीं हो रहा है।
रघुवर दास सरकार के खिलाफ नाराजगी
सर्वे में जब लोगों से बीजेपी की रघुवर दास सरकार के प्रदर्शन से संतुष्टि या असंतुष्टि को लेकर सवाल किया तो जो आंकड़े सामने आए उससे साफि जाहिर है कि सिर्फ 6 महीने में ही वह कितनी अलोकप्रिय हो गई थी। मसलन, 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान झारखंड में यदि 100 में से 10 लोग राज्य सरकार से पूरी तरह असंतुष्ट थे तो 2019 के विधानसभा चुनाव के दौरान उनकी तादाद 24% तक पहुंच चुकी थी। अगर थोड़े-बहुत असंतुष्टों को भी मिलाकर देखें तो 55% लोग रघुवर सरकार से असंतुष्ट नजर आए। अगर इसकी तुलना 2014 के विधानसभा चुनाव के समय से करें तो उस समय सिर्फ 20% लोग ही सोरेन सरकार से पूरी तरह असंतुष्ट थे। अगर पूरी तरह असंतुष्ट और कुछ हद तक असंतुष्टों का आंकड़ा देखें तो तब सिर्फ 34% वोटर ही सोरेन सरकार से असंतुष्ट नजर आए थे। वहीं जब पसंदीदा मुख्यमंत्री का सवाल आया तो 21% लोगों ने हेमंत सोरेन, 14% लोगों ने रघुवर दास, 10% लोगों ने अर्जुन मुंडा और 5% लोगों ने बीजेपी के किसी दूसरे नेता अपनी पसंद बताया। यानि, बीजेपी के सीएम उम्मीदवार की लोकप्रियता में तेजी से गिरावट देखी गई है।
किस बात से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए वोटर
झारखंड मुक्ति मोर्चा गठबंधन को वोट देने वाले मतदाताओं में से 50% ने पार्टी, 32% ने उम्मीदवार, 12% ने मुख्यमंत्री उम्मीदवार और 1% ने नरेंद्र मोदी फैक्टर को नजर में रखकर वोट डाले हैं। जबकि, भाजपा के मतदाताओं से बात करने पर पता चला है कि उनमें से भी 50% ने पार्टी के नाम पर वोटिंग की है। लेकिन, सिर्फ 18% बीजेपी के वोटरों ने उम्मीदवारों को देखकर वोटिंग की और सिर्फ 9% ने ही रघुवर दास के नाम पर वोट डाले। अलबत्ता, भाजपा के 21% वोटरों ने नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट जरूर डाले हैं।
नागरिकता संशोधन कानून का कितना असर
नागरिकता संशोधन कानून का झारखंड के चुनाव परिणाम पर कितना असर पड़ा, इस संबंध में स्पष्ट तौर पर कुछ कहना मुश्किल है। क्योंकि, जब सीएबी पर चर्चा शुरू हुई और यह कानून बना तब तक प्रदेश में 3 दौर के चुनाव हो चुके थे। चौथे-पांचवें दौर का चुनाव ही नागरिकता संशोधन कानून बनने के बाद हुए। चौथे दौर में भाजपा ने 15 में से 8 सीटें जीती हैं, जबकि 2014 में इनमें से 11 सीटों पर उसने कब्जा किया था। वहीं पांचवें चरण की 16 में से बीजेपी ने सिर्फ 3 सीटें ही जीती हैं। 2014 के चुनाव में भाजपा को इनमें से 5 सीटों पर कामयाबी मिली थी। यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि लोगों को जब उन्हें प्रभावित करने वाली बातों का जिक्र करने के लिए कहा गया, तो इक्के-दुक्के लोगों ने ही सीएए या एनआरसी का जिक्र किया। तथ्य ये भी है कि बीजेपी के बड़े नेताओं ने अपनी रैलियों में सीएए को जोर-शोर से उठाया था और पीएम मोदी ने इसे 1,000 प्रतिशत सही ठहराया था।
गुजरात से शुरू हुआ ट्रेंड झारखंड में भी बरकरार
लोकनीति और सीएसडीएस के चुनाव के बाद के सर्वे से यह बात भी सामने आती है कि विधानसभा चुनावों में 2017 के दिसंबर से जो ट्रेंड गुजरात से शुरू हुआ, वह लगातार बरकरार है। मसलन, प्रदेशों में स्थानीय मुद्दे, राष्ट्रीय मुद्दों और खासकर राष्ट्रीय नेतृत्व पर ज्यादा भारी पड़ते दिखाई दे रहे हैं। विशेष रूप से बीजेपी इससे ज्यादा प्रभावित नजर आ रही है। सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि राज्यों के चुनावों में लोकसभा चुनाव की तुलना में वोटरों की पसंद पूरी तरह से अलग नजर आ रहे हैं। इसलिए, बीजेपी को अगले साल की शुरुआत में दिल्ली और फिर आगे चलकर बिहार विधानसभा चुनावों के लिए अपनी रणनीति में बदलाव की जरूरत पड़ सकती है।
वोटरों पर आर्थिक मुद्दे सबसे ज्यादा हावी रहे
चुनाव बाद हुए सर्वेक्षण में 43% से ज्यादा वोटरों ने आर्थिक मुद्दों से प्रभावित होकर वोट डाले हैं। इनमें से 18% के लिए बेरोजगारी, 16% के लिए बढ़ती कीमतें, 10% के लिए विकास और गवर्नेंस, 10% के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य और 9% के लिए भ्रष्टाचार अहम मुद्दा रहा। जबकि, करीब 1% ने हिंदुत्व और करीब 1% ने ही एनआरसी और सीएए जैसे मुद्दों से प्रभावित होकर वोट डाले हैं।
लोकसभा चुनाव में मिले 5 में से 2 वोट इस बार नहीं मिले
इस सर्वे का दावा है कि लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी को मिले हर 5 में से 2 वोट इस चुनाव में दूसरे दलों के पास चले गए। जबकि, लोकसभा में दूसरे दलों को गए वोटों में से बहुत कम वोट विधानसभा में उसके पास आए हैं। मसलन, झामुमो गठबंधन को लोकसभा में जितने वोट मिले उसके 73% इस बार भी उसी के पास रहे हैं, जबकि सिर्फ 3% बीजेपी उम्मीदवारों और 24% दूसरे उम्मीदवारों के खाते में गए हैं। लेकिन, बीजेपी को लोकसभा के दौरान मिले वोटों में से इस चुनाव में 58% ही उसके साथ बरकरार रहे हैं और 17% जेएमएम गठबंधन के साथ चले गए हैं और बाकी 25% वोट दूसरे दलों के पास चले गए हैं।
मोदी फैक्टर का भी कम हुआ असर
सर्वे दावा करता है कि राज्यों में न सिर्फ बीजेपी की लोकप्रियता घटी है, बल्कि मोदी फैक्टर का प्रभाव भी कम हुआ है। इस सर्वे में केंद्र सरकार के कार्यों से संतुष्टि या असंतुष्टि को लेकर भी सवाल पूछे गए हैं। इस सवाल का जवाब भाजपा के लिए सबसे ज्यादा निराशाजनक साबित हो सकता है। मसलन, मोदी सरकार से 2014 के विधानसभा चुनाव में जो 31% लोग पूरी तरह संतुष्ट थे, 2019 के लोकसभा चुनाव में उनकी संख्या घटकर 24% पहुंच गई थी और पिछले विधानसभा चुनाव में यह आंकड़ा और घटकर सिर्फ 15% रह गया है। इसी तरह 2014 में 49% मतदाता मोदी सरकार के कामकाज से कुछ हद तक संतुष्ट थे, जिनकी संख्या 2019 के लोकसभा चुनाव में बढ़कर 52% पहुंच चुकी थी, लेकिन महज 6 महीने में ही यह घटकर महज 32% हो चुकी है। वहीं, 2014 में केवल 6% लोग मोदी सरकार से पूरी तरह असंतुष्ट नजर आए थे, इस साल लोकसभा चुनाव के दौरान उनकी संख्या बढ़कर 8% हो चुकी थी और इस बार के विधानसभा में वे बढ़कर 15% हो चुके हैं। लेकिन, मोदी सरकार से कुछ हद तो असंतुष्टों का यह आंकड़ा और भी ज्यादा है, जो 2014 में 10%, 2019 लोकसभा के दौरान 15% और इस बार के विधानसभा में बढ़कर 32% हो चुका है।
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