Bihar Polls 2020: 'लालू-राबड़ी राज' में जहां नरसंहार हुए, वहां बदल चुकी हैं मतदाताओं की प्राथमिकताएं
नई दिल्ली- बिहार में लालू-राबड़ी का शासनकाल कई सामूहिक नरसंहारों के लिए भी कुख्यात रहा है। हालांकि, इस तरह के सामूहिक नरसंहार की शुरआत उनसे काफी पहले कांग्रेस के जमाने में ही हो चुकी थी। 70 के दशक का बेलछी कांड आज भी रोंगटे खड़े कर देता है। यह वही नरसंहार था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हाथी पर सवार होकर बेलछी पहुंचीं थी। बिहार में 20वीं सदी के आखिर में तत्कालीन मध्य बिहार के इलाकों में पटना-गया-जहानाबाद-नालंदा और भोजपुर का इलाका ऐसी सामूहिक हत्याओं के लिए पूरे देश में बदनाम हो गया था। उस वक्त जाति आधारित हथियारबंद निजी सेनाओं का ऐसा कहर था कि उनके सामने सिस्टम भी लाचार नजर आता था। इन्हीं सामूहिक नरसंहारों में 90 के दशक के आखिर की दो वारदातों ने पूरे देश को थर्रा दिया था। लक्ष्मणपुर बाथे और सेनारी सामूहिक नरसंहार। दो दशक बाद उस खौफ के दौर से गुजरे लोग आज की सियासी परिस्थितियों को लेकर क्या सोच रहे हैं, इसका विश्लेषण भी किया जाना जरूरी है। इस इलाके में बुधवार को वोटिंग होनी है।
1 दिसंबर, 1997 को लक्ष्मणपुर बाथे गांव में 58 दलितों का सामूहिक नरसंहार कर दिया गया था। तब बहुत ही ज्यादा सक्रिय रही भुमिहार-राजपूतों की निजी सेना रणवीर सेना पर नरसंहार का आरोप लगा था। लेकिन, 23 साल बाद गांव के लोग उस खौफनाक मंजर को भुलाकर जिंदगी में कदम आगे बढ़ा चुके हैं। ईटी से बातचीत में 50 साल के स्थानीय निवासी सुरेंद्र राजवंशी कहते हैं कि उन्होंने अपने क्षेत्र में हमेशा ही शांति चाही है। वो कहते हैं, 'सभी आरोपी पटना हाई कोर्ट से बरी कर दिए गए हैं। फिर भी, हमने कभी भी उसको मुद्दा नहीं बनाया।' उस काली रात सुरेंद्र ने अपने परिवार के तीन सदस्यों को खो दिया था। उनकी मां, पत्नी और बहन दबंगों की गोलियों की शिकार हो गई थीं। उनके पिता इस केस में एक गवाह थे। घटना के बाद सुरेंद्र को सरकारी नौकरी मिल चुकी है और वह दूसरी शादी करके अपना जीवन आराम से गुजार रहे हैं।
सुरेंद्र अकेले नहीं हैं। पीड़ित परिवारों के ज्यादातर एक व्यस्क सदस्यों को सरकारी नौकरी मिल चुकी है और इंदिरा आवास योजना के तहत घर बनाने के लिए 20,000 रुपये भी दिए गए हैं। गांव अब अरवल और पड़ोस के परासी और कलेर थानों से सीधे पक्की सड़कों से जुड़ चुका है। जदयू-भाजपा सरकार सड़क और बिजली के क्षेत्र में कायाकल्प करने का दावा करती है तो इस गांव में भी बाकियों की तरह अधिकतर समय अब बिजली रहती है। अलबत्ता, निजी वजहों से सुरेंद्र की चुनावी प्राथमिकता इस बार बदल चुकी है। उन्होंने कहा है, 'पिछली बार हमने मोदी जी को वोट दिया था। 2015 में नीतीश को वोट दिया। लेकिन, इस बार हम सीपीआई (माले) को वोट देंगे, क्योंकि हम बदलाव चाहते हैं।' राजवंशी समुदाय अनुसूचित जाति में शामिल है और बिहार में यह नीतीश कुमार की सोच से बने महादलित समुदाय का हिस्सा है। जहां तक बदलाव की बात है तो उसके पक्ष में सुरेंद्र अकेले नहीं हैं। लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार पीड़ित कई लोग इसी तरह की इच्छा जता रहे हैं। यह गांव अरवल विधानसभा सीट में है, जहां इस बार बीजेपी और सीपीआई (माले) के उम्मीदवारों के बीच सीधी टक्कर नजर आ रही है।
लेकिन, पड़ोस के कामता गांव के लोगों का नजरिया हटकर है। इस गांव में भुमिहारों (सवर्ण) की आबादी ज्यादा है। यहां के 26 साल के युवा मनोज कुमार साफ कहते हैं कि 'हम नीतीश कुमार से खुश नहीं हैं।' लेकिन, भाजपा के लिए उनका समर्थन भरपूर है। वो कहते हैं, 'बीजेपी का मुख्यमंत्री बनाने के लिए और उससे भी ज्यादा सीपीआई (माले) को हराने के लिए यहां हम बीजेपी को वोट देंगे।'
लक्ष्मणपुर बाथे से 35 किलोमीटर दूर सेनारी गांव में चुनाव को लेकर कोई दुविधा नजर नहीं आ रही है। बाथे की तरह सेनारी गांव का सीना भी नरसंहार से छलनी किया जा चुका है। 18 मार्च, 1999 की रात सेनारी गांव में खतरनाक नक्सली संगठन माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) के हथियारबंद हमलावरों ने एक साथ 34 लोगों का सामूहिक नरसंहार कर दिया था। इस कांड में मारे गए सभी लोग भुमिहार (सवर्ण) थे। सेनारी नरसंहार के ज्यादातर पीड़ित परिवार आज गांव से पलायन कर चुके हैं और उनके घरों के दरवाजों पर ताले लटके पड़े हैं। यह गांव कुर्था विधानसभा क्षेत्र के अंदर आता है। जो लोग गांव में बच गए हैं, उनके मन में आज भी उन जख्मों के घाव बाकी हैं। 50 साल के रविंद्र कुमार कहते हैं, 'नई पीढ़ी उसके बारे में ज्यादा नहीं सोचती, लेकिन हमारे दिमाग में अभी भी वह मौजूद है।'(तस्वीर-सांकेतिक)
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