Indus Water Treaty: क्यों भारत ने पाकिस्तान को सिंधु जल समझौते की शर्त बदलने का नोटिस दिया
मोदी सरकार ने फिर से सिंधु जल समझौते पर विचार करने के संकेत दिये हैं। भारत ने पाकिस्तान को 90 दिनों में सरकारी स्तर पर बातचीत करने का मौका दिया है।
Indus Water Treaty: भारत-पाकिस्तान के बीच साल 1960 में हुए सिंधु जल समझौता (Indus Water Treaty) में संशोधन के लिए भारत ने पाकिस्तान को नोटिस जारी किया है। तकरीबन 62 साल के इतिहास में यह पहली बार है जब भारत ने सिंधु जल समझौता (IWT) में संशोधन की मांग की है। भारत संधि को लागू करने के लिए हमेशा से प्रतिबद्ध रहा है, लेकिन पाकिस्तान की मनमानियों की वजह से इस पर असर पड़ रहा है।
यही वजह है कि भारत, पाकिस्तान को वार्ता के लिए टेबल पर लाना चाहता है और IWT में बदलाव चाहता है, लेकिन पाकिस्तान इसे सालों से टाल रहा है। वह इस मामले पर भारत से सीधी बात न करके बार-बार वर्ल्ड बैंक के पास पहुंच जाता है। इसलिए भारत ने पाकिस्तान को नोटिस के जरिए IWT के उल्लंघन को सुधारने के लिए 90 दिनों में इंटर गवर्नमेंट नेगोशिएशन करने का मौका दिया है।
भारत-पाकिस्तान के बीच सिंधु जल समझौता कैसे हुआ
सिंधु नदी के जल को लेकर झगड़ा 1947 भारत के बंटवारे के आसपास ही शुरू हो गया था। तब भारत और पाकिस्तान के इंजीनियरों ने मिलकर भारत से पाकिस्तान की तरफ बहने वाली दो प्रमुख नदियों पर स्टैंडस्टिल समझौता कर लिया। इसके अनुसार पाकिस्तान को लगातार पानी मिलता रहा और यह समझौता 31 मार्च 1948 तक लागू था। हालांकि, पाकिस्तान का आरोप था कि 1 अप्रैल 1948 को समझौता लागू नहीं रहा और भारत ने दो प्रमुख नदियों का पानी रोक दिया। इसके बाद दोनों पक्षों में टकराव हुए क्योंकि कोई भी इस मुद्दे पर वार्ता को तैयार नहीं था। फिर 1951 में 'टेनेसी वैली अथॉरिटी' और 'यू.एस. एटॉमिक एनर्जी कमीशन' दोनों के पूर्व प्रमुख डेविड लिलिएंथल ने एक कोलियर मैग्जीन के लिए लिखे जाने वाले लेखों पर शोध करने के उद्देश्य से इस क्षेत्र का दौरा किया।
इसके बाद सुझाव दिया कि भारत और पाकिस्तान को संभवतः विश्व बैंक से सलाह और वित्त पोषण के साथ सिंधु नदी प्रणाली को संयुक्त रूप से विकसित और प्रशासित करने के लिए एक समझौते की दिशा में काम करना चाहिए। जिससे उस वक्त के विश्व बैंक के अध्यक्ष यूजीन ब्लैक भी सहमत हुए। इसके बाद ब्लैक ने साल 1954 में भारत और पाकिस्तान के प्रमुखों से इस बारे में संपर्क किया। छह साल की बातचीत के बाद, भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तानी राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब खान ने सितंबर 1960 में सिंधु जल समझौता पर हस्ताक्षर किये।
सिंधु जल समझौते की प्रमुख बातें
इस समझौते के तहत सिंधु नदी की सहायक नदियों को पूर्वी और पश्चिमी नदियों में बांटा गया। सतलज, ब्यास और रावी नदियों को पूर्वी नदी बताया गया, जबकि झेलम, चेनाब और सिंधु को पश्चिमी नदी बताया गया। पूर्वी नदियों का पानी भारत बिना रोक-टोक के इस्तेमाल कर सकता है। इन पर पूरा अधिकार भारत का है। वहीं पश्चिमी नदियों का पानी पाकिस्तान के लिए होगा लेकिन समझौते के अंतर्गत इन नदियों के पानी का कुछ सीमित इस्तेमाल का अधिकार भारत को भी दिया गया। जिसके तहत भारत को बिजली उत्पादन, कृषि के लिए सीमित पानी का इस्तेमाल, और साइट इंस्पेक्शन जैसे मामलों में छूट दी गयी।
इस समझौते के तहत एक स्थायी सिंधु आयोग की स्थापना की गयी। इसमें दोनों देशों के कमिशनर के समय-समय पर मिलने का प्रस्ताव था। दरअसल, हर बैठक में दोनों देश अपनी परेशानी को एक-दूसरे से साझा कर सकते थे। साथ ही दोनों में से कोई देश किसी परियोजना पर काम करता है और दूसरे को उससे आपत्ति है तो पहला देश उसका जवाब देगा। अगर आयोग समस्या का हल नहीं ढूंढ़ पता तो सरकारों को मुद्दा सुलझाना होगा। इसके अलावा समझौते में विवादों का हल ढूंढने के लिए तटस्थ विशेषज्ञ की मदद लेने या कोर्ट ऑफ आरबिट्रेशन में जाकर मामले को सुलझाने के बारे में कहा गया है।
संधि से भारत को नुकसान
भारत ने कभी भी संधि को किसी तरह से तोड़ने का प्रयास नहीं किया है। जबकि भारत के एक वर्ग का मानना रहा है कि इस समझौते से भारत को आर्थिक नुकसान हो रहा है। दरअसल, इन नदियों का पानी भारत से होकर ही पाकिस्तान में जाता है। भारत ऊंचाई पर है और वह चाहे तो इस पानी से अपने देश में बांध या अन्य निर्माण कर करोड़ों लोगों को फायदा दे सकता है। बता दें कि जम्मू कश्मीर सरकार ने संधि पर पुनर्विचार के लिए विधानसभा में 2003 में एक प्रस्ताव भी पारित किया था।
वर्ल्ड बैंक की वर्तमान भूमिका
ANI की रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान के बार-बार कहने पर हाल ही में वर्ल्ड बैंक ने न्यूट्रल एक्सपर्ट (तटस्थ विशेषज्ञ) और कोर्ट ऑफ आरबिट्रेशन प्रोसेस (CoA) की कार्रवाई शुरू की है। जबकि सिंधु जल समझौता के किसी भी प्रावधान के तहत ये दोनों कार्रवाई एक साथ नहीं हो सकती।
फिलहाल विवाद क्या है
साल 1988 में भारत ने झेलम नदी की एक सहायक नदी पर किशनगंगा जलविद्युत परियोजना की योजना बनाना शुरू किया। इसी को देखते हुए पाकिस्तान ने भी नीलम नदी पर जलविद्युत संयंत्र नीलम झेलम परियोजना (एनजेपी) बनाने की योजना बनाई। मतलब भारत द्वारा किशनगंगा परियोजना पर अपना सर्वे शुरू करने के एक साल बाद, पाकिस्तान ने 1989 में अपनी परियोजना के डिजाइन को मंजूरी दी।
नीलम झेलम परियोजना का निर्माण 2007 में शुरू हुआ और 2018 में पूरी हुई। वहीं भारत ने अपने निर्माण के लिए साल 2004 में सुरंगों पर काम शुरू किया, जबकि बांध का निर्माण 2007 में शुरू कर दिया। तभी से पाकिस्तान ने हल्ला करना शुरू कर दिया था। पाकिस्तान का कहना है कि 330 मेगावाट के किशनगंगा परियोजना से भारत पानी को रोक देगा। अगर ऐसा नहीं भी हुआ तो पाकिस्तान में पहुंचने वाला पानी का पूरा प्रवाह इस परियोजना के कारण नीलम झेलम परियोजना तक बहाव को सीमित कर देगा।
अतः पाकिस्तान कई सालों से भारत की किशनगंगा और रतले हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट (HEPs) को लेकर आपत्ति जता रहा है। वह कई बार वर्ल्ड बैंक के पास भी शिकायत कर चुका है। अब पाकिस्तान चाहता है कि कोर्ट ऑफ आरबिट्रेशन (CoA) इन आपत्तियों पर फैसला करे।
गौर करने वाली बात है कि पाकिस्तान की यह हरकत सिंधु जल समझौता के आर्टिकल IX के खिलाफ है। भारत ने इस मुद्दे को अलग से एक न्यूट्रल एक्सपर्ट के पास भेजने की मांग की थी। तब वर्ल्ड बैंक ने कहा कि एक ही मुद्दे पर समानांतर कार्रवाई कानूनी रूप से अस्थिर स्थिति पैदा कर सकती है। इससे सिंधु जल समझौता खतरे में पड़ सकता है, लेकिन अब वर्ल्ड बैंक ने इस मुद्दे पर कार्रवाई करने का फैसला लिया है।
भारत सरकार का वर्तमान रुख क्या है?
साल 2016 में जम्मू के उरी में भारतीय सेना के बेस पर आतंकी हमले के बाद भारत ने सिंधु जल समझौते पर अपना रूख साफ किया था। तब पीएम मोदी की अध्यक्षता वाली सिंधु जल समझौते की समीक्षा बैठक के दौरान अधिकारियों से कहा था कि खून और पानी साथ नहीं बह सकते हैं। अब मोदी सरकार ने फिर से सिंधु जल समझौते पर विचार करने के संकेत दिये हैं।
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