GM Crops: क्या होती हैं जीएम फसलें? इनसे भारतीय कृषि को फायदा होगा या नुकसान?
GM Crops: Genetically Modified (जीएम) फसलें वे फसलें होती है जिन्हें जेनेटिक इंजिनियरिंग के जरिए किसी भी जीव या पौधों के जीन को दूसरे पौधों में डालकर विकसित किया जाता है। इसको हम इस तरह भी समझ सकते है कि बीजों के जीन्स में बदलाव करके उनमें मनचाही विशेषता पैदा करने हेतु प्राकृतिक बीजों को मोडिफाई कर नई फसल (जीएम फसल) की प्रजाति तैयार की जाती है।
इन्हें हाईब्रिड फसल भी कहा जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जीएम फसलों के उत्पादन में अन्य प्रजाति के जीन को आरोपित किया जाता है। जैसे- बीटी कपास को कपास के पौधे में विषैले कीड़े के जीन को जोड़कर बनाया गया है।
ये फसलें बहुत कुछ प्राकृतिक फसलों की तरह ही दिखती है, लेकिन उनसे बहुत भिन्न होती है। अभी हाल ही में जीईएसी (जैनेटिक इंजीनियरिंग अप्रैजल कमेटी - भारत में जीएम फसलों के वाणिज्यिक उपयोग की अनुमति देने वाली समिति) ने जीएम सरसों की सिफारिशों को अपनी अनुमति प्रदान की है।
जीएम फसलों में सबसे पहला प्रयोग वर्ष 1982 में तंबाकू के पौधे में किया गया था। 1986 में फ्रांस तथा अमेरिका में पहली बार जीएम फसलों का फील्ड ट्रायल किया गया था। वर्ष 1996 से 2015 के बीच दुनिया में जीएम फसलों की खेती में इजाफा हुआ है। भारत में अभी तक सिर्फ बीटी कपास (वर्ष 2002 में) का ही उत्पादन होता है। अन्य फसलें अभी विवादित ही है। जैसे, जीएम सरसों, बीटी बैंगन आदि। 1994 में अमरीका में टमाटर (फ्लेवर सेवर टमाटर) पहला जीएम उत्पाद था, जिसे मानव उपभोग के लिए जारी किया गया था।
दुनिया के 28 देशों में किसी न किसी स्तर पर जीएम फसलें (सोयाबीन, मक्का, कपास, सरसों का हिस्सा 99 प्रतिशत, बाकी 1 प्रतिशत में आलू, पपीता, बैंगन जैसी फसलें) उगाई जा रही हैं। जीएम फसलों की अधिक पैदावार केवल 6 देशों (अमेरिका, ब्राज़ील, कनाडा, चीन, भारत और अर्जेंटीना) में ही हो रही है। दुनिया में लगभग 18 करोड़ हेक्टेयर में जीएम खेती होती है, जिसका 92 प्रतिशत हिस्सा (16.56 करोड़ हेक्टेयर) उपरोक्त 6 देशों की कृषि भूमि ही है। विश्व की 77 प्रतिशत जीएम फसलों की खेती सिर्फ अमेरिका, ब्राजील और अर्जेण्टीना में की जाती है। भारत में भी बीटी कपास उगाने की ही अनुमति है।
जीएम फसलों के संबंध में दो मत है। एक, जो जीएम के पक्ष में है। इनका मानना है कि जीएम से किसानों की उपज में वृद्वि होगी तथा खाद्य आपूर्ति में भी सहायक है। दूसरे पक्ष (स्वदेशी जागरण मंच व अन्य किसान संगठन) का मानना है कि जीएम फसलें पर्यावरण के लिए तो खतरनाक हैं ही, साथ ही साथ किसानों के हित में भी नहीं है। आइये दोनों पहलूओं पर विचार करते हैं।
जीएम फसलों के फायदे :
जीएम समर्थकों को मानना है कि -
● जीएम फसलों के बीजों में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग कर मनचाहा बदलाव किया जा सकता है।
● जीएम पौधे कीटों, सूखे जैसी पर्यावरण परिस्थिति और बीमारियों के प्रति अधिक प्रतिरोधी होते हैं।
● इनमें कीटनाशक व उर्वरक की मात्रा ज्यादा डालने की आवश्यकता नहीं होती।
● जीएम के माध्यम से फसलों की उत्पादन व पोषक क्षमता को बढ़ाया जा सकता है।
● इससे कम भूमि में अधिक उत्पादन हो सकता है।
जीएम फसलों के नुकसान
● जीएम फसलों से प्राकृतिक खेती में संक्रमण का खतरा रहता है तथा प्राकृतिक खेती के विलुप्त होने की भी संभावना है। जिससे जैव-विविधता खत्म होने के संयोग बढ़ जाते हैं।
● यह पर्यावरण व स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
● जीएम फसलों का सबसे बड़ा नकारात्मक पक्ष है कि इनके बीज फसलों से प्राप्त नहीं किए जा सकते। अन्य फसलों की तरह इनको खेत में उपजी फसलों से नहीं बनाया जा सकता। इनके बीजों को हर बार कंपनियों से ही खरीदना पड़ता है। जिससे किसानों की लागत बढ़ती है।
● जीएम फसलों से विदेशी बीज निर्माता कंपनियों को काफी फायदा होता है। देश में बीटी कपास के 90 प्रतिशत से भी अधिक बीज मोसैंटो (अमेरिकी कम्पनी) से खरीदे जा रहे हैं, जिससे राजस्व का नुक्सान होता है।
● जीएमओ एंटीबायोटिक प्रतिरोध बढ़ा सकते हैं।
● जीएम फसलों से मिट्टी विषैली होती है तथा भू-जल स्तर गिरता है।
● अमरीका के कृषि विभाग का मानना है कि जीएम मक्का एवं जीएम सोयाबीन की पैदावार परम्परागत फसल की तुलना में कम है।
संयुक्त राष्ट्र अमरीका के कृषि विभाग (यूएसडीए) के अनुसार, ''वर्ष 2013 में विश्वभर में इतना खाद्यान्न उत्पादन हुआ कि उससे 13 अरब लोगों के लिए खाद्य आपूर्ति की जा सकती है।'' स्पष्ट हो जाता है कि आज भी विश्व में अन्न संकट की स्थिति नहीं है, केवल अन्न वितरण और उपभोग की संपूर्ण व्यवस्था में सुधार लाने की आवश्यकता है।
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