"असहिष्णुता" थकी-हारी सेकुलर राजनीति का मासूम चेहरा
साहित्य समाज का दर्पण होता है। साहित्यकार समाज को आईना बताता और सचेत करता है। ‘‘कबीरा आप ठगाईये और न ठगिये कोय.. आप ठगे सुख उपजे और ठगे दुःख होय'' विष्व साहित्य के महाकाव्य तुलसीदास कृत रामायण की नीति साहित्य के रूप में पहचान करने वाले विदेशी आलोचक डाॅ. ग्रियर्सन थे। उन्होनें कहा था कि यह अध्यात्म और नैतिकता की तुला है। तुलसीदार ने ही लिखा ‘‘धीरज धर्म मित्र अरू नारी, आपातकाल परखिये चारी'' यही भारत की परंपरा और संस्कृति रही।
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आज जिसे असहिष्णुता कहकर हारे-थके घबराये सियासदां आत्ममुग्ध हो रहे है। उन्हें न देश की पुरातन परंपरा से सरोकार है और न ही राष्ट्रीय अस्मिता का गुमान है। बहुत पीछे जाने से तत्काल पोंगापंथी बता दिया जाता है। लेकिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को ही देखें कि तमाम हिंसात्मक गतिविधियों और गौ-हत्याएं होने की घटनाओं के बाद भी उन्होनें सत्य और अहिंसा की वकालत की। भारत में जो नीति कहती है उस पर अमल होता है। ऐसा राष्ट्र विष्व में कदाचित दूसरा नहीं है, जिसने अभ्यागत से जोखिम की आषंका को दरगुजर करके स्वागत किया।
हिन्दुस्तान में मुगल, अंग्रेज, इसाई, पारसी जो भी आये सभी ने भारत को अपना आश्रय स्थल बनाया। शानदार मस्जिदें, चर्च, गिरिजाघर इसकी मिसाल है। भारतीय अस्मिता को आहत करके अपना वर्चस्व दिखाने की गरज से मंदिरों को क्षत-विक्षत किया गया उसे भी मुल्क के निवासियों ने बर्दाष्त किया। ऐसे में हिन्दुस्थान के निवासियों की सहनषीलता पर दोषारोपण करके असहिष्णुता का जाप करना वास्तव में सियासत का विद्रूप चेहरा ही नजर आता है।
हिन्दू न असहिष्णु था और न हो सकता है
इस प्रसंग में द्वारका शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद महाराज ने भी हाल में जो कहा वह बहुत ही सामयिक है। स्वामी जी ने कहा कि हिन्दू न असहिष्णु था और न हो सकता है, उसकी अस्मिता तभी आहत होती है जब धार्मिक स्थलों पर चोट पहुंचायी जाती है। इस दृष्टि से हिन्दू कौम के साथ सबसे बड़ी विवषता यह भी है कि दूसरे समुदाय के पुर्नवास के लिए दुनिया के सम आस्था वाले तमाम देश है। लेकिन भूतल पर हिन्दुओं के लिए भारत के सिवाय कौन दूसरा ठौर है। फिर भी वे अपने मुल्क में असहिष्णुता का आरोप झेलने को विवष है।
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सेकुलरवादियों को चेताते हुए अपने एक निर्णय में कहा था कि- हिन्दुत्व कोई मजहब नहीं है, यह जीवनषैली है। लेकिन आज सेकुलरवादी हिन्दू होना ही अपराध मान बैठे है और हिन्दुत्व के विरोध को धर्म निरपेक्षता का प्रमाण पत्र समझने लगे है। सर्वाेच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीष ने देश के सेकुलरवादियों को सामयिक संदेश दिया है कि असहिष्णुता यर्थाथ का सियासी मुद्दा है। भारत में न्यायपालिका सर्वोच्च है।
संविधान के शासन में कोई वलात आस्था लादी नहीं जा सकती। कानून की रूह में सब समान है। सबके लिए कानून न्याय सुनिश्चित करनें के लिए मौजूद है। यही भावना पाकिस्तान के मशहूर गायक अदनान सामी ने पिछले दिनों एक जलसे में व्यक्त करते हुए कहा था कि यदि भारत में असहिष्णुता होती तो वे स्वंय भारत में नागरिकता लेने के लिए ऐड़ी-चोटी का पसीना नहीं बहाते। ऐसे में लगता है कि असहिष्णुता का आरोप लगाने वाले स्वंय अपराध बोध से ग्रसित होकर जबरिया अपनी असहिष्णुता से माहौल गरमाने का प्रयास करनें में जुटे है।
क्या किया साहित्यकारों ने
जिन साहित्यकारों ने लोकसभा चुनाव 2014 में भारतीय जनता पार्टी और विशेष रूप से नरेन्द्र मोदी के विरोध में झंडा ऊंचा किया था, उन्होनें तो बिहार चुनाव के दरम्यान साहित्य अकादमी द्वारा प्रदत्त सम्मान लौटाने का एक लंबा सिलसिला चलाया, कि मतदान के दिनों तक ऐसा लगता रहा कि वास्तव में वे आतंकवाद से पीड़ित है और सताये गये है। लेकिन उनके अवसाद का कारण यही था कि नयनतारा सहगल सहित सभी साहित्यकारों को तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने नवाजा था।
सम्मानित किये जाने के बाद उनके कृतित्व और व्यक्तित्व की चर्चा अखबारों में और समाज में तभी हुई जब उनके इस्तीफे सुर्खियों में आये और उन्हें अखबारों की सुर्खियां बनना नसीब हुआ। यह जाहिर करता है कि असहिष्णुता का नाटक एक प्रायोजित राजनीतिक कसरत है, जिसका प्रयोजन मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जनादेश से निर्वाचित एनडीए सरकार की राह में रोढ़ा उत्पन्न करना था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के क्रांतिकारी नेतृत्व में देश में बने सकारात्मक माहौल पर परदा डालकर विकास के बढ़ते चरणों में बेड़ियां डालना रहा है।
वे आगे आये जिन्हें जनता ने ठुकराया
असहिष्णुता के आरोप पर गौर करें तो हमें समझ में आता है कि हरे-थके सियासतदां जनता की अदालत में ठुकराये जाने के बाद एक प्रायोजित अभियान में जुटकर मोदी के डन को अनडन में बदलने के षड़यंत्र में लग गये है। इससे वे भारत से शत्रुता रखने वाले मुल्कों को औजार और अवसर प्रदान करके अपनी राष्ट्रघाती कोषिष से देश को क्षति ही पहुंचा रहे है। असहिष्णुता न तो कोई राष्ट्रीय मुद्दा है और न ही उसे इस तरह प्रचारित करनें का कोई आधार है।
महज देश के विकास चक्र की गति को अवरूद्ध करने, देश की बढ़ती साख, सम्मान को चोट पहुंचानें का कारण ही बन रहा है। दरअसल मौजूदा दौर में सबसे अधिक असहिष्णुता का दंभ यदि किसी ने भुगता है तो वह देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी है, जिन्होनें 12 वर्षों तक अफवाहों के साये में गुजारे। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तो उन्हें मौत का सौदागर जैसे नफरत वाले शब्द से विभूषित करनें में परहेज नहीं किया।
इस दौर में अपने नैतिक साहस से नरेन्द्र मोदी ने निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च अदालत में किसी भी असहिष्णुता की गतिविधि में अपनी निर्लिप्तता साबित की। उन पर इल्जाम लगाने के लिए एनजीओ तैनात किये गये जिन्होनें सालों साल झूठ का पुलिंदा मीडिया और अदालत में सौंपकर राई का पहाड़ बनानें में कसर नहीं छोड़ी। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित तक को जेल का दरवाजा देखना पड़ा। लेकिन अंत में इशरत जहां फिदायीन का मोहरा साबित हुई।
दहशतगर्दों की टोली
यह भी प्रमाणित हुआ कि दहशतगर्द की टोली तैनात की गयी। पुलिस ने जब अपना काम किया तो पुलिस और राजनैतिक नेतृत्व को निषाने पर लेकर अपमानित और बदनाम करनें में कसर नहीं छोड़ी गई। ऐसा लगता है कि कुंठित महत्वाकांक्षा हिलोरें ले रही है और असहिष्णुता की भावना पैदा करके असहिष्णुता का कारोबार करने वालों के पाप छिपाने के लिए जनमत जुटानें की कुत्सित मानसिकता उजागर कर रहे है।
देश की संसद भी इस मानसिकता का शिकार बन रही है। वर्ष 2012 में देश के कानून विद् डाॅ. सुब्रमण्यम स्वामी ने नेषनल हेराल्ड की एक संपत्ति हड़पे जाने का आपराधिक प्रकरण न्यायालय में दायर किया जिसमें देश के प्रथम परिवार को न्यायालय में तलब किया गया। इसका दोश भी एनडीए सरकार पर मढ़ते हुए बताया गया कि देश के प्रथम परिवार के प्रति बदले की भावना से कार्यवाही की जा रही है।
2012 को याद कीजिये
यह जानकर हैरत होती है कि 2012 में डाॅ. सुब्रमण्यम स्वामी का न तो भाजपा से कोई रिष्ता था और न ही मोदी सरकार अस्तित्व में आयी थी। अमेठी में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का मामला यूपीए सरकार ने ही निरस्त कर दिया था, इस उद्योग की निरस्ती का कारण गैस मंत्रालय का इंकार था।
राहुल जी समाधान करने में विफल रहे, लेकिन एनडीए सरकार बनने के बाद उद्योग न लगने का आरोप भी मोदी सरकार पर मढ़ दिया गया। वास्तव में असहिष्णुता जताने वाले ही अपनी विफलताएं जगजाहिर कर रहे है। देश की जनता भलीं-भांति समझने लगी है कि कौन और क्या असहिष्णुता बढ़ा रहा है? असहिष्णुता का प्रचार करने के बजाय आज जरूरत है भारत की विविधता में भावनात्मक एकता का गीत गाने की। सरकारें तो आती-जाती रहेगी। राष्ट्र सर्वोपरि और राष्ट्रहित शाष्वत है। सांस्कृतिक राष्ट्रीय एकता समय की आवष्यकता है।