मोदी विरोध की सनक में ‘सम्प्रभुता’ दाव पर
अहमदाबाद। नरेन्द्र मोदी आज भारतीय राजनीति की धुरि हैं। जब से भारतीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी का प्रवेश हुआ और फिर जैसे-जैसे विस्तार हुआ, तब से नरेन्द्र मोदी कोई नाम नहीं रह गया, बल्कि दो धड़ों के बीच की एक धुरि बन गया है। जब भी नरेन्द्र मोदी का नाम उभरता है, तो बात केवल समर्थन और विरोध से ही शुरू होती है।
वैसे तो नरेन्द्र मोदी भारतीय राजनीति में नब्बे के दशक में ही सक्रिय हो गए थे, जब उन्हें संघ ने भाजपा में दाखिल किया था। उसके बाद वे गुजरात की राजनीति में और फिर राष्ट्रीय राजनीति में पार्टी पदाधिकारी के रूप में सक्रिय रहे। संगठन में भी सफलता के झंडे गाड़ने वाले मोदी उस समय भी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने में सफल ही रहे थे, परंतु 2001 में अचानक मोदी गुजरात की राजनीति में लाए गए और 2002 में उनके मुख्यमंत्रित्व काल में हुए गुजरात दंगों के बाद तो मोदी पूरे देश में दो धड़ों के बीच की धुरि बन गए, जहाँ हर कोई उन्हें दंगों के नजरिए से समर्थन देता दिखा, तो विरोध करता भी देखा।
पिछले बारह वर्षों से नरेन्द्र मोदी गुजरात दंगों के नाम पर बने इन दो धड़ों की धुरि बने हुए हैं और राजनीतिक हलकों से लेकर आम जनता तक में नरेन्द्र मोदी के बारे में कोई भी बात शुरू होती है, तो वह विरोध या समर्थन के सवाल से ही शुरू होती है। हालाँकि इन बारह वर्षों में देश की राजनीति में नरेन्द्र मोदी जहाँ एक सनक के रूप में उभरे, तो उनके विरोध और समर्थन को लेकर भी एक दीवानगी छा गई। हर राजनीतिक दल और नेता ने मोदी का अपने-अपने तरीके से मूल्यांकन किया।
जहाँ तक समर्थन का सवाल है, तो नरेन्द्र मोदी आज देश के सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में उभरे हैं और यह साबित करता है कि देश में उनके समर्थकों की लम्बी-चौड़ी फौज है।
दूसरी तरफ 2002 से शुरू हुआ मोदी विरोध का चलन गाहे-ब-गाहे परवान चढ़ता रहा है। यदि नरेन्द्र मोदी पर यह आरोप लगाए गए कि गुजरात दंगों के नाम पर उन्होंने चुनावी फायदा उठाया, तो यह भी उतना ही सत्य है कि गुजरात दंगों के नाम पर नरेन्द्र मोदी का विरोध कर राजनीतिक फायदा उठाने वालों की जमात भी छोटी नहीं है और इस जमात का डंका गुजरात से लेकर पश्चिम बंगाल तक और कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक बजता है।
गुजरात दंगों के नाम पर नरेन्द्र मोदी का विरोध करना लगातार एक फैशन बनता गया है और आज तो हर छुटभैया नेता भी दंगों के नाम पर मोदी को कोसने से बाज नहीं आता। देश के एक हिस्से में हुए दंगों के लिए किसी नेता को जिम्मेदार ठहराना और उसे कोसना शायद उतना गंभीर मुद्दा नहीं है, परंतु दंगों के नाम पर मोदी विरोध की ओछी हरकत उस समय शर्मनाक हो जाती है, जब यह हरकत भारतीय सम्प्रभुता को दाव पर लगा दे।
अब आप सोच रहे होंगे कि मोदी विरोध में भला सम्प्रभुता का क्या लेना-देना? दरअसल मुद्दा मोदी विरोध से उपजा अमरीका वीजा का है। अमरीका ने नरेन्द्र मोदी को वीजा नहीं देने का निर्णय कर रखा है। किसी व्यक्ति को वीजा देना न देना निश्चित रूप से अमरीका की अपनी सम्प्रभुता और एकाधिकार का विषय है, परंतु गुजरात दंगों के नाम पर मोदी को वीजा न देने का अमरीकी निर्णय भारतीय सम्प्रभुता के आलोक में किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। जिस समय मोदी को वीजा देने से अमरीका ने इनकार किया था, उस समय भी कांग्रेस सहित कई गैरभाजपाई दलों ने अधिकृत रूप से अमरीका के इस फैसले की न केवल आलोचना की थी, बल्कि इसे भारत के आंतरिक मामलों में दखल तक करार दिया था।
ताजा मामला सांसदों की उस चिट्ठी को लेकर उठा है, जिसने फिर एक बार मोदी को अमरीकी वीजा मुद्दे को हवा दी है। एक तरफ भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अमरीका में यह घोषणा की कि वे मोदी को अमरीकी वीजा दिलाने के लिए कोशिश करेंगे, तो दूसरी तरफ भारत के करीब पच्चीस सांसदों द्वारा ओबामा को चिट्ठी लिखे जाने का मामला सामने आया। स्पष्ट है कि ये सांसद गुजरात दंगों के नाम पर मोदी के विरोधी हैं, लेकिन मोदी विरोध की इस सनक में वे भूल गए कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार भले ही मोदी को बिहार आने से रोक दें, लेकिन यदि अमरीका हमारे किसी नेता पर किसी राज्य में हुए दंगों, जो हमारा आंतरिक मामला है, को लेकर कोई रोक लगाता है, तो स्पष्ट रूप से यह हमारी सम्प्रभुता पर चोट है।
मामला वास्तव में गंभीर है और सम्प्रभुता से जुड़ा हुआ है। इसीलिए तो वामपंथी नेता सीताराम येचुरी ने तुरंत ही खुद को चिट्ठी लिखने वाली बात से अलग कर लिया, तो दूसरी तरफ यूपीए सरकार में शामिल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के तारिक अनवर ने कहा कि वीजा देने, न देने का फैसला अमेरिका को करना है, लेकिन सांसदों को इस तरह की चिट्ठी नहीं लिखनी चाहिए थी।