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मोदी, दंगे और भारतीयता : अमर्त्य का ‘कुतर्क’!

By Kanhaiya
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अहमदाबाद। नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने कल नरेन्द्र मोदी को लेकर कुछ कहा। हालाँकि एक अर्थशास्त्री के रूप में अमर्त्य की हर बात का वजन होता है और अर्थजगत में उसे खास ध्यान में लिया जाता है और ऐसे में जबकि उनका बयान यदि नरेन्द्र मोदी को लेकर हो, तो प्रत्यक्ष रूप से अर्थजगत के अलावा राजनीतिक हलकों में उसे गंभीरता से लिया ही जाएगा।

परंतु सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नोबल पुरस्कार विजेता होने के अलावा एक प्रखर अर्थशास्त्री के रूप में अमर्त्य सेन ने वही मुद्दा उठाया, जो नरेन्द्र मोदी के साथ चोली-दामन की तरह जुड़ा रहा है। एक तरह से देखा जाए, तो अमर्त्य ने कोई नई बात नहीं कही, क्योंकि मोदी और दंगे दो ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें लेकर भारतीय राजनीति में पिछले बारह वर्षों से घमासान चल रहा है और यह घमासान स्वयं ही अमर्त्य हो चुका है।

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यह पहला मौका नहीं है कि मोदी और गुजरात में 2002 में हुए साम्प्रदायिक दंगों का मुद्दा उठाया गया हो। अमर्त्य सेन से पहले भी कई लोग यह मुद्दा उठा चुके हैं और आगे भी उठाते रहेंगे, परंतु ऐसे बयान देने वालों की लम्बी कतार में अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्री भी लग जाएँ, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहलाएगा।

अमर्त्य सेन ने कल कहा था कि वे नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। सेन यदि इतना ही कहते, तो कोई आपत्ति नहीं थी। पहली बात तो यह है कि वे एक नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हैं और यदि वे मोदी तथा उनसे जुड़े दंगों के साथ भारतीय नागरिकता को कसौटी पर रखें, तो मामला और गंभीर बन जाता है। उन्होंने कहा कि एक भारतीय नागरिक के रूप में वे मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार नहीं सकते। इस प्रकार अमर्त्य सेन ने अपने बयान में भारतीय नागरिक के रूप में जो उल्लेख किया, वह सबसे बड़ा आपत्तिजनक मुद्दा है।

मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकारने या न स्वीकारने की बात एक व्यक्ति के रूप में या एक अर्थशास्त्री के रूप में सबके लिए अपनी इच्छा और अभिप्राय का विषय है, परंतु इस मुद्दे को समग्रतः भारतीय नागरिकता के साथ जोड़ कर देखना और वह भी अमर्त्य सेन जैसे महानुभाव द्वारा इस मुद्दे को भारतीय नागरिकता के साथ जोड़ कर देखना न केवल आपत्तिजनक है, बल्कि इसमें कहीं न कहीं कुतर्क का भी आभास होता है।

दंगों का इस देश में लम्बा इतिहास रहा है। भारतीय स्वतंत्रता से पहले और बाद में भी देश में दंगे होते ही रहे हैं। ऐसा नहीं है कि 2002 में गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगे पहले और आखिरी थे। 2002 से पहले भी देश में अनेक दंगे हुए और उसके बाद भी (गुजरात को छोड़ कर) देश के अनेक हिस्सों में दंगे होते ही रहे हैं। दंगों में मोदी का हाथ होने या न होने का पूरा मुद्दा अलग चर्चा का विषय है, परंतु अमर्त्य सेन ने जिस प्रकार भारतीय नागरिक के रूप में मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में नहीं स्वीकारने की बात कही, उससे तो यही बात उभर कर सामने आती है, जैसे अमर्त्य सेन मोदी को वीजा न देने वाले अमरीका या फिर मोदी को कट्टरवादी नेता मानने वाले पाकिस्तान की भाषा में बात कर रहे हों।

अमर्त्य सेन एक अर्थशास्त्री हैं और उनके द्वारा प्रधानमंत्री पद को लेकर किसी भी प्रकार का विचार व्यक्त किया जाना स्वागतयोग्य है, परंतु उनसे इस स्तर के मुद्दे को उठाने की उम्मीद नहीं की जा सकती। वे एक अर्थशास्त्री हैं और उन्होंने यदि किसी आर्थिक मुद्दे पर मोदी के नाम के प्रति विरोध जताया होता, तो वह ज्यादा तर्कसंगत कहलाता।

अमर्त्य सेन यदि यह मानते हों कि एक भारतीय नागरिक के रूप में मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में नहीं स्वीकारा जा सकता, तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश में आज सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में उभरे मोदी को पसंद करने वाले लाखों लोग भी उसी भारत के नागरिक हैं, जिसके नागरिक के रूप में मोदी को प्रधानमंत्री स्वीकारने में अमर्त्य सेन को संकोच का अनुभव हो रहा है।

अमर्त्य का बयान इसलिए भी बचकाना लगता है, क्योंकि एक भारतीय नागरिक के रूप में यदि वे मोदी को पीएम नहीं स्वीकार सकते, तो इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि सेन ने स्वयं एक अर्थशास्त्री होने के बावजूद भारत में लोकतांत्रिक ढंग से चुन कर मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पद पर पहुँचने की प्रक्रिया को व्यक्तिगत अभिप्राय से जोड़ने की कोशिश की है। सेन शायद ये भूल जाते हैं कि मोदी इस समय भी लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए मुख्यमंत्री हैं और जिस राज्य के वे मुख्यमंत्री हैं, वहाँ भी मुस्लिम हैं और वो भी सुरक्षित ही हैं।

जहाँ तक मोदी का सवाल है, तो एक आम कार्यकर्ता से लेकर भाजपा में शीर्ष पर पहुँचने की उनकी यात्रा को राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक रूप से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उनमें कोई तो ऐसी बात होगी, जिससे समग्र भाजपा आज नतमस्तक है। मोदी के साथ न कोई राजनीतिक विरासत है और न ही कोई दलगत समर्थन। वे अपने सार्थ्य से ही एक आम कार्यकर्ता से मुख्यमंत्री पद पर पहुँचे और आज भाजपा की चुनाव अभियान समिति के मुखिया बने हैं।

जहाँ तक साम्प्रदायिक दंगों का सवाल है, तो गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों का सबसे ज्यादा दंश झेला है, तो वह गुजरात ने झेला है और गुजरात ने कभी इस मुद्दे पर मोदी का रास्ता नहीं रोका। चलो मान लिया जाए कि 2002 में साम्प्रदायिक दंगों के चलते हुए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कारण मोदी चुनाव जीत गए, परंतु 207 और 2012 में भी मोदी की जीत को एक उत्तम निरीक्षक को तटस्थ दृष्टिकोण से देखना चाहिए। हर बार और हर मुद्दे को साम्रदायिक दंगों और साम्प्रदायिकता-धर्मनिरपेक्षता के चश्मे से देखने की आदत तो आज आम भारतीय राजनेता और राजनीति का फैशन बन चुका है। अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्री से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती। अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्री भी यदि दंगों के नाम पर मोदी का विरोध करें, तो यह तर्क नहीं, बल्कि कुतर्क की श्रेणी में ही आ सकता है।

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English summary
Nobel prize winner amartya sen said yesterday that he don't want Narendra Modi as his Prime Minister, but as a economist, Amartya's statement is sophistry. It could be accpeteble If Amartya criticise Modi on any economical issue.
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