जिन्ना ने आडवाणी को कही का नहीं छोड़ा
लखनऊ। अब जबकि यह लगभग तय है कि मोदी ही भाजपा के अगले सेनापति है तो आडवाणी को जिन्ना की याद आई होगी। आपने एक कहावत सुनी होगी चौबे जी बनने चले थे छब्बे दूबे ही रह गए। यह कहावत भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी पर सटीक बैठती है। नरेंद्र मोदी जो आज है वो छवि कभी आडवाणी की भी थी। गठबंधन की राजनीति और पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए आडवाणी ने बड़ी कुर्बानी देते हुए अटल को पीएम के लिए आगे कर दिया।
इतिहास याद कीजिए तो आडवाणी अटल से ज्यादा पार्टी के प्रति जिम्मेदार रहे। १९८९ में जब रथ यात्रा लेकर आडवाणी निकले हुए थे, तब भाजपा में यह तय नहीं हो पा रहा था कि यदि आडवाणी को गिरफ्तार किया गया तो भाजपा क्या करेगी। अटल के साथ एक बड़ा ग्रुप इस बात का हिमायती था कि यदि गिरफ्तारी होती भी है तो हम वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस न लेकर सरकार पर दबाव बनाएंगे। लेकिन यह आडवाणी ही थे जिन्होंने समझा कि समर्थन वापस लेकर वह अगले चुनाव में वहां पहुंच जाएंगे जहां भाजपा ने कल्पना भी नहीं की थी और वहीं हुआ आडवाणी ने अपनी क्षमता से भाजपा को वहां पहुंचा दिया जहां उस समय तक केवल कांग्रेस पहुंच सकी थी, सरकार बनाने के लिए सहयोगियों की जरुरत थी आडवाणी की कट्टर हिंदू नेता की छवि अन्य पार्टियों को स्वीकार नहीं थी।
लेकिन भाजपा के अंदर आडवाणी की ही लहर थी अटल के प्रति संघ का नजरिया भी ठीक नहीं था या यूं कहे कि संघ अटल को पीएम के रुप में नहीं देखना चाहता था लेकिन यह आडवाणी ही थे जिन्होंने पुरानी मित्रता ही नहीं निभाई बल्कि संघ को भी अटल के नाम पर सहमत किया यहां तक दलील दी कि बाकी सब देखने के लिए वह मौजूद है ही। तब तक पार्टी आडवाणी के पीछे ही चलती थी अटल मात्र पार्टी का एक नरम चेहरा ही माने जाते थे, लेकिन जब अप्रैल २००४ के चुनाव में राजनीति से पीछे हट गए तो आडवाणी को लगा कि वह जब तक अटल की तरह उदार छवि के सांचे में नहीं ढलेंगे साथी पार्टियां उन्हें पीएम नहीं बनने देंगी यही सोचकर आडवाणी जो कभी वास्तव में जिन्ना के प्रशंसक रहे थे, ने जिन्ना की मजार पर जाकर उनकी शान में कसीदे पढ़ दिए भाजपा में मानो भूचाल आ गया, कार्यकर्ताओं को भी लगा कि यह क्या हो गया शायद आडवाणी सफाई दे।
लेकिन
आडवाणी
ने
सबकुछ
सोचसमझकर
किया
था
आडवाणी
अपनी
बात
पर
अटल
रहे
लेकिन
यही
आडवाणी
ने
गलती
कर
दी,
जिन्ना
को
ने
केवल
भाजपा
बल्कि
ऐसे
वोटर
जो
भाजपा
को
वोट
न
देकर
कांग्रेस
और
अन्य
पार्टियों
को
वोट
देते
है,
भी
नहीं
पसंद
करते
है
या
यूं
कहे
उन्हें
विभाजन
का
जिम्मेदार
मानते
है,
ने
भी
आडवाणी
से
किनारा
कर
लिया
यानी
आडवाणी
किसी
वोटर
के
चहेते
नेता
नहीं
रह
गए।
आडवाणी
की
गिरी
इसी
साख
की
राख
से
नरेद्र
मोदी
की
राजनीति
का
जन्म
हुआ,
यदि
आज
नरेंद्र
मोदी
की
छवि
को
१९८९
में
रथ
पर
सवार
आडवाणी
की
छवि
से
तुलना
करें
तो
हमें
कोई
फर्क
नहीं
दिखाई
पड़ेगा।
दोनों छवियां ही भाजपा के वोटरों की पसंद और अपने को धर्मनिरपेक्ष बताने वाली पार्टियों की नापसंद है। मोदी के नाम से जैसे आज नीतीश जैसे नेता चिढ़ते है उस समय आडवाणी के नाम से लालू और मुलायम चिढ़ते थे। चंद्रबाबू नायडू समर्थन पर तभी राजी हुए जब अटल को पीएम के लिए आगे बढ़ाया गया। इसलिए नरेंद्र मोदी कुछ नहीं १९८९ के वहीं आडवाणी है जो भाजपा के कार्यकर्ताओं में जोश बढ़ देते थे लेकिन जिन्ना की तारीफ करके उन्होंने अपनी उग्र हिंदूवादी छवि को तो तोड़ डाला था लेकिन वह अटल न बन सके इस तरह वह न अटल रह गए और न उग्र हिंदू नेता। नरेद्र मोदी ने आडवाणी की इसी गलती को समझा। वह उग्र हिंदू नेता तो बने लेकिन उन्होनें इस छवि को कभी तोडऩे की कोशिश नहीं की।
याद कीजिए गांधीनगर में जब एक मुस्लिम धार्मिक नेता ने उन्हें बड़े अपनेपन मुसलमानों के लिए पवित्र मानी जाने वानी टोपी को पहनाने की चेष्टा की तो उन्होंने उसे लेकर अपने पास रख लिया। उन्होंने अपने कट्टर हिंदू वोटरों को नाराज नहीं किया। क्योंकि वह जानते थे कि अभी तो उन्हें सिर्फ भाजपा में जंग जीतने पर ध्यान लगाना है। इसके बाद ही वह राष्ट्रीय राजनीति में अपनी उदार छवि के बारे में सोचेंगे। लालकृष्ण आडवाणी अपने जीवन में यही भूल कर गए कि उन्होंने यह नहीं सोचा कि यदि वह उदार छवि के बनने की चेष्टा करेंगे तो पार्टी में कोई आडवाणी भी बन सकता है। आडवाणी ने जिन्ना की जैसे ही तारीफ की नरेंद्र मोदी ने तुरंत ही आडवाणी बनने की ठान ली और वह उसमें सफल भी रहे।