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Politics After Mulayam Singh Yadav: उत्तर प्रदेश में यदुवंशी राजनीति का भविष्‍य क्या है?

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Politics After Mulayam Singh Yadav: समाजवादी से जातिवादी नेता बनने तक के सियासी सफर में मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश की राजनीति पर गहरी छाप छोड़ी है। मंडल कमीशन और पिछड़ी जातियों के उभार के दौर में मुलायम सिंह यादव तीन दशक तक उत्तर प्रदेश की राजनीति की धुरी बने रहे।

Yadav politics in up after mulayam singh yadav uttar pradesh politics

यादव जाति के सर्वमान्‍य नेता होने से लेकर मुल्‍ला मुलायम बनने तक की यात्रा में जातीय एवं तुष्टिकरण की राजनीति का ऐसा समीकरण तैयार किया, जिसने उन्‍हें एक समय प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की सूची में पहुंचा दिया था।

ऐसे में मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद एक स्‍वभाविक सवाल लोगों के मन में है कि अब यदुवंशी राजनीति का भविष्‍य क्‍या होगा? क्‍या यदुवंशी वोटर उसी शिद्दत से समाजवादी पार्टी का बोझ अपने कंधों पर ढोयेगा, जैसे वह मुलायम के दौर से ढोता चला आ रहा है?

क्‍या अखिलेश यादव यदुवंशी वोटरों को उसी तरह सहेज पायेंगे, जैसे मुलायम ने सहेज रखा था? वह भी तब, जब शिवपाल सिंह यादव समाजवादी पार्टी के समानान्‍तर अपनी राजनीति का आधार तलाशने में जुटे हुए हैं और भाजपा भी नये वोटरों की तलाश में यदुवंशियों की तरफ देख रही है।

अखिलेश के लिए चुनौती पार्टी के भीतर नहीं, बाहर है

अखिलेश यादव के सामने पार्टी के भीतर से कोई चुनौती नहीं है, लेकिन बाहर मुश्किलों की लंबी श्रृंखला है। वह मुलायम के पुत्र हैं, लेकिन उनके जैसा चातुर्य, जमीनी समझ और कार्यकर्ताओं को सहेजे रखने की कला अखिलेश के पास नहीं है।

मुलायम के जाने के बाद क्‍या यादव वोट बैंक अखिलेश पर वैसा ही भरोसा करेगा, जैसा मुलायम सिंह पर करता था? यह सवाल इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्‍योंकि उत्तर प्रदेश में राजनीति नई करवट ले रही है। जातीय राजनीति की दीवार लगातार दरक रही है।

भाजपा जिस तेजी से यादवों में अपनी स्‍वीकार्यता बढ़ा रही है, वह अखिलेश के लिये परेशानी का कारण बन सकता है। आजमगढ़ एवं रामपुर लोकसभा उपचुनाव के रिजल्‍ट जाहिर करते हैं कि भाजपा यदुवंशी वोटरों में बड़ी सेंधमारी करने में सफल रही है।

अखिलेश के नेतृत्‍व में समाजवादी पार्टी एक के बाद एक अपने मजबूत किले हारती जा रही है। राजनीतिक चुनौतियों के बीच अखिलेश को एक बड़ा झटका अखिल भारतीय यादव महासभा में लगा है।

अखिल भारतीय यादव महासभा का छूटा साथ

90 दशक के बाद पहली बार इस महासभा से समाजवादी पार्टी का वर्चस्‍व टूटा है। अगस्‍त में सपा के पूर्व सांसद उदय प्रताप सिंह यादव के इस्‍तीफे के बाद बंगाल के स्‍वप्निल कुमार घोष को महासभा का राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष् एवं जौनपुर से बसपा सांसद श्‍याम सिंह यादव को कार्यकारी अध्‍यक्ष चुना जाना सपा के लिये बड़ा झटका है। सपा एवं यूपी के हाथ से अखिल भारतीय यादव महासभा का नेतृत्‍व छिन जाना अखिलेश के भविष्‍य की राजनीतिक समझ पर सवालिया निशान है।

महासभा के सहारे ही मुलायम ने देश और प्रदेश की सियासत में अपना लोहा मनवाया था। इस किले के ढहने को अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के भविष्‍य की सियासत के साथ जोड़कर देखा जा सकता है। 1924 में स्‍थापित यादव महासभा का मुलायम को राजनीतिक ताकत बनाने में महत्‍पूर्ण योगदान रहा है। बीते कुछ दशकों में इसके अध्‍यक्षों में ज्‍यादातर यूपी और कई तो समाजवादी पार्टी से जुड़े रहे हैं।

यह भी पढ़ें: Mulayam Singh Yadav की कमियों पर भारी पड़ी रिश्ते निभाने की उनकी खूबी

90 के दशक के बाद तो महासभा पर सपा का वर्चस्‍व कायम रहा। चौधरी रामगोपाल, हरमोहन सिंह एवं उदय प्रताप सिंह तीनों सपा से जुड़े रहे और महासभा के लंबे समय तक अध्‍यक्ष रहे। अखिलेश की यादव महासभा की राजनीति में दिलचस्‍पी नहीं दिखती है, जबकि इसके उलट भाजपा यादव महासभा के अध्‍यक्ष रहे हरमोहन सिंह के बहाने एक बड़े वोट बैंक को साधने की कोशिश में जुटी हुई है।

मुलायम के सक्रिय राजनीति से अलग होने के बाद से ही भाजपा की नजर यदुवंशी वोटरों पर है। वह अपने यदुवंशी नेताओं को तेजी से आगे बढ़ा रही है। भाजपा यादव बेल्‍ट मैनपुरी, इटावा, कन्‍नौज, आजमगढ़, एटा में समाजवादी पार्टी के वर्चस्‍व को धीरे-धीरे तोड़ती जा रही है। सुभाष यदुवंश और दिनेश लाल यादव निरहुआ जैसे युवाओं को आगे बढ़ाकर भाजपा अखिलेश के लिये भविष्‍य में चुनौती तैयार कर रही है।

सपा के पूर्व सांसद हरमोहन सिंह की पुण्‍यतिथि पर आयोजित गोष्‍ठी में नरेंद्र मोदी ने जो दिलचस्‍पी दिखायी, उसके नतीजे भविष्‍य में नजर आयेंगे। हरमोहन सिंह यादव अखिल भारतीय यादव महासभा के अध्‍यक्ष रहने के साथ साथ समाजवादी पार्टी से भी लंबे समय तक जुड़े रहे। उनके निधन के बाद अखिलेश यादव उनके परिवार को सहेज पाने में असफल रहे। जबकि मुलायम सिंह छोटे से छोटे कार्यकर्ता को अपने साथ जोड़े रखने के लिये भावनात्‍मक स्‍तर तक चले जाते थे।

यादवों के लिए नियम कानून ताक पर रखते थे नेताजी

मुलायम सिंह यादव ने प्रदेश में यदुवंशियों को ना केवल सामजिक तौर पर मजबूत बनाया बल्कि उन्‍हें आर्थिक ताकत देकर सहेजा भी। डा. शफीउज्‍जमान ने अपनी किताब 'द समाजवादी पार्टी : ए स्‍टडी ऑफ इट्स सोशल बेस आईडियोलॉजी एंड प्रोग्राम' में जून-जुलाई 1994 में पुलिस एवं पीएसी में हुई भर्तियों का जो ब्‍यौरा दिया है, वह साफ बताता है कि सपा की तरफ यदुवंशी वोटरों का रूझान तेजी से क्‍यों बढ़ा? किताब के अनुसार 3181 कर्मियों की भर्ती में 1298 यादव थे। गैर यादव ओबीसी की संख्‍या केवल 64 थी।

यह मात्र एक उदाहरण है। मुलायम ने कई भर्तियों में सीमाओं से परे जाकर यदुवंशियों को वरीयता दी। बीते तीन दशक में उत्तर प्रदेश में खुले इंटर, डिग्री एवं व्‍यवसायिक कॉलेजों की सूची देखी जाये तो प्रबंधन में एक बड़ा हिस्‍सा यदुवंशियों का नजर आयेगा।

मुलायम ने यदुवंशियों को नियमों को दरकिनार कर स्‍कूल-कॉलेज खोलने को प्रोत्‍साहित किया। उन्‍हें जोड़े रखने के लिये आर्थिक लाभ दिया। परस्‍पर भरोसे का रिश्‍ता बनाया। आर्थिक और सामाजिक स्तर पर यदुवंशियों को अन्‍य पिछड़ी जातियों से आगे निकलने में मदद की।

लेकिन अब अखिलेश के समक्ष बड़ी चुनौती है कि तीन दशक में यदुवंशियों का एक बड़ा वर्ग आर्थिक-सामाजिक रूप से इतना मजबूत हो चुका है कि उसके अपने व्यक्तिगत हित जातीय हित से ऊपर हो गये हैं। यह वर्ग अपना हित प्रभावित होने की कीमत पर समाजवादी पार्टी से जुड़ा रहेगा, इसको लेकर संशय है।

यह वर्ग समाजवादी पार्टी की कीमत पर अपने हित को नुकसान पहुंचायेगा ऐसा नहीं लगता। उसे सत्ता का साथ चाहिए और अगर सपा सत्ता से लगातार बाहर रहती है तो वह सत्ता का नया साथी बना लेगा।

बिखरते यदुवंशी और भाजपा की सेंधमारी

सीडीएस के एक सर्वे के अनुसार 2009 में 73 फीसदी यदुवंशी समाजवादी पार्टी के साथ थे, जबकि 2014 में 53 फीसदी रह गये। भाजपा ने 2014 में 27 फीसदी के साथ यदुवंशी वोटरों में बड़ी सेंधमारी की। 2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को सत्ता वापसी की कोशिश के साथ 74 फीसदी यदुवंशियों के वोट मिले तो भाजपा 19 फीसदी के साथ दूसरे नंबर पर रही। नये चुनावों के साथ ये आंकड़े बदलने वाले हैं।

अब जब अखिलेश यादव सत्ता से बाहर हैं तो यदुवंशियों को सहेजे रखना उनके लिए आसान नहीं होने वाला है। वह भी तब जब ग्‍वाल और ढढोर के बीच अंदरूनी खींचतान लगातार बढ़ रही है।

सपा से अलग होकर शिवपाल सिंह यादव भी यदुवंशी लैंड में अपने लिये नई जमीन तलाश रहे हैं। ऐसे में यदुवंशी वोटर मुलायम के दौर की तरह समाजवादी पार्टी की छत के नीचे मजबूती से इकट्ठा रहेगा, संभव नहीं लगता।

आने वाले समय में यदुवंशी वोटरों की सियासत कई रंग दिखाने वाली है, क्‍योंकि अखिलेश मुलायम नहीं हैं। मुलायम सिंह यादव से यदुवंशी भावनात्मक और व्यक्तिगत स्तर पर जुड़ाव महसूस करता था। वह मानता है कि मुलायम ने ही यदुवंशियों को राजनीति के केन्द्र तक पहुंचाया।

अखिलेश के सामने खुद को और समाजवादी पार्टी को बचाये रखने की चुनौती के साथ यदुवंशियों को सत्ताधारी भाजपा की तरफ जाने से रोकना भी है। वक्‍त तय करेगा कि अखिलेश ऐसा करने में कितना सफल रहते हैं, पर यह निश्‍चित है कि सिर से पिता का साया हटने के बाद उनकी आगे की राह बहुत कठिन है।

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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

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English summary
Yadav politics in up after mulayam singh yadav uttar pradesh politics
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