इंडिया गेट से: विभाजन की विभीषिका का सच साहित्यकारों की नजर में
कांग्रेस को इस बात पर सख्त एतराज है कि मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी ने "विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस" क्यों मनाया। महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्याओं को राजनीतिक चारे के तौर पर इस्तेमाल करते रहने वाली कांग्रेस ने कहा है कि पीएम मोदी का असली इरादा वर्तमान राजनीतिक लड़ाई के लिए विभाजन की दर्दनाक घटनाओं को 'चारे' के रूप में इस्तेमाल करना है।
कांग्रेस ने अपने आधिकारिक बयान में विभाजन की जिम्मेदारी मुस्लिम लीग और अंग्रेजों पर डालने की बजाय वीर सावरकर पर डाल कर खुद बच निकलने का प्रयास किया है। कांग्रेस विभाजन की विभीषिका से हमेशा मुहं चुराती रही है। जबकि विभाजन की असली जिम्मेदार कांग्रेस खुद थी।
विभाजन की विभीषिका ने लाखों घरों को बर्बाद कर दिया था। विभाजन का फैसला तो बाद में हुआ लेकिन हिन्दुओं की हत्याएं तो विभाजन से एक साल पहले 1946 में शुरू हो चुकीं थीं। 16 अगस्त 1946 को जब मुस्लिम लीग और उस समय के बंगाल के मुख्यमंत्री सोहराबर्दी के उकसाने पर कलकत्ता, बंगाल और बिहार के सीमावर्ती क्षेत्रों में मुसलमानों ने हिन्दुओं का कत्ल-ए-आम शुरू कर दिया था। 72 घंटों के भीतर बीस हजार से अधिक हिन्दू मारे गए थे, तीस हजार से ज्यादा गंभीर रूप से जख्मी हुए और कई लाख हिन्दू बेघर हो गए थे। और यह सब गांधी, नेहरू की नाक के नीचे अविभाजित भारत में हुआ था।
लेकिन कांग्रेस अपने काले इतिहास पर सफेदी पोतना चाहती है, जो संचार क्रान्ति के युग में कतई संभव नहीं है। जैसा कि नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से कहा कि लूटने वाले को धन लौटाना पड़ेगा, तो कांग्रेस की पुरानी गलतियों का हिसाब मांगने के दिन भी अब आ चुके हैं। इसलिए देश को विभाजन की विभीषिका की याद दिलाना भी जरूरी था।
विभाजन की विभीषिका के स्मृति दिवस ने उन कई मशहूर लेखकों की याद ताज़ा कर दी है, जिन्होंने सदी की सब से बड़ी विभीषिका को अपनी धारदार कलम से उकेरा है। सब से पहले सत्तर के दशक में प्रकाशित भीष्म साहनी के उपन्यास "तमस" की याद ताजा हो गई है। भीष्म साहनी कम्युनिस्ट थे, उन्होंने अपने इस उपन्यास को हिन्दू मुस्लिम नजरिए से नहीं, बल्कि मानवता के नजरिए से लिखा है। लेकिन उपन्यास के कुछ अंश सच को उजागर करते हैं।
राजकमल प्रकाशन से 2016 में पुनः छपी तमस के पेज 126 पर भीष्म साहनी लिखते हैं- "इसीलिए तो सिख औरतें अपने आप को बचाने के लिए गुरुद्वारे में शरण लेती हैं लेकिन जब देखती हैं कि अब उनकी जान और उनकी इज्जत नहीं बच पाएगी तो वे उस कुएं की तरफ बढ़ना शुरू कर देती हैं जहां वे मिलकर कपड़े धोया करती थी, बातें करती थी। किसी को ध्यान नहीं आया कि वह कहां जा रही हैं, क्यों जा रही हैं छुटकी। चांदनी में कुएं पर जैसे अप्सराएं उतरती आ रही हैं। सबसे पहले जसबीर कौर कुएं में कूद गई।
उसने कोई नारा नहीं लगाया किसी को पुकारा नहीं। केवल वाहे गुरु कहा और कूद गई। उसके कूदते ही कुएं की जगत पर कितनी ही महिलाएं चढ़ आई। हरि सिंह की पत्नी पहले जगत के ऊपर जाकर खड़ी हुई फिर उसने अपने 4 साल के बेटे को खींचकर ऊपर चढ़ा लिया फिर एक साथ ही उसे हाथ से खींचती हुई नीचे कूद गई। देव सिंह की घरवाली अपने दूध पीते बच्चे को छाती से लगाए ही कूद गई। प्रेम सिंह की पत्नी खुद तो कूद गई पर उसका बच्चा पीछे खड़ा रह गया ,उसे ज्ञान सिंह की पत्नी ने मां के पास धकेल कर पहुंचा दिया, देखते ही देखते गांव की दसों औरतें अपने बच्चों को लेकर कुएं में कूद गई।"
भीष्म साहनी के इस वाकये की पुष्टि पाकिस्तानी लेखिका यास्मीन खान भी करती हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक "भारत और पाकिस्तान का उदय" के पेज 156-157 पर लिखा है: "विभाजन की कहानी का सबसे कलंकित अध्याय है, स्त्रियों के साथ हुई यौन पाशविकता का घिनौना कृत्य। मौखिक इतिहास के सहारे भारत-पाकिस्तान के विभाजन पर विस्तृत काम करने वाली पाकिस्तानी लेखिका यास्मीन खान लिखती है:- "1947 की सभी भयानक कार्रवाइयों में बलात्कार की शिकार हुई महिलाओं के अनुभव के बारे में लिखना बहुत कठिन है।
यह टूटे जिस्म और टूटी हुई जिंदगियों का इतिहास है। बलात्कार को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया था। महिलाओं की सुरक्षा से या दबाव में की गई आत्महत्या या रिश्तेदारों की गोली मारकर जहर देकर या पानी में डूबकर प्राण त्यागने की घटनाएं आम हो गई। बलात्कार जैसी घटना के बाद लोग अपमानजनक जिंदगी के बदले मौत को प्राथमिकता देने लगे।"
इसी बात को आगे बढाते हुए उर्वशी बुटालिया ने अपनी पुस्तक " खामोशी के उस पार " के पेज 15 पर लिखा है-"वैसे जब भी कभी दंगा फसाद होता है तो सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला वर्ग महिला वर्ग होता है, क्योंकि वह पुरुषों की अपेक्षा बहुत संवेदनशील होता है और पूरे समाज की इज्जत का जिम्मा उसके ही सर पर मढ़ दिया जाता है। उस समय अपनी जान की परवाह किये बिना अपनी इज्जत को बचाना लक्ष्य बन जाता है। हमेशा की तरह यहाँ भी यौन पाशविकता हुई थी। समझा जाता है कि करीब 75000 महिलाओं का उनके अपने धर्मों से भिन्न धर्मों के पुरुषों द्वारा अपहरण और बलात्कार किया गया।"
अशोक भल्ला ने अपनी पुस्तक "मेमोरी, हिस्ट्री एंड फिक्शन: रिप्रेजेंटेशन आफ द पार्टिशन में लिखा- "बलवाई लोगों के आने से पहले सभी स्त्रियां कुए पर चढ़कर अपनी जान दे देती हैं क्योंकि उन्हें आशंका है कि दंगाई लोग उन्हें मारेंगे ही, लेकिन उनसे पहले उनकी इज्जत के साथ खिलवाड़ करेंगे, घिनौना कृत्य करेंगे। प्रख्यात उपन्यासकार यशपाल का उपन्यास 'झूठा सच' भी विभाजन की त्रासदी का लेखा-जोखा पेश करता है। इसको दो खंडो में प्रकाशित किया गया है। इसका पहला खंड 'वतन और देश' 1958 में और दूसरा खंड 'देश का भविष्य' 1960 में प्रकाशित हुआ था।
यह महज संयोग नहीं है कि साहित्य में विभाजन से पूर्व के पंजाब का ऐसा चित्र खींचा गया है कि वह तथाकथित गंगा जमुनी तहजीब की धज्जियां उडाता है। कांग्रेस चाहती है कि धर्म और इज्जत बचाने के लिए इन क्रूरताओं का उस से हिसाब न माँगा जाए। जो उनके नेताओं के सत्ता हथियाने के लालच में अविभाजित भारत के हिन्दू और सिख औरतों, बच्चों और बूढों पर की गयीं।
रामचन्द्र गुहा तो नेहरूवादी हैं। वह अपनी पुस्तक "इंडिया आफ्टर गांधी" में लिखते हैं: "पंजाब में हिंदू और मुसलमान साथ मिलकर रहा करते थे। 1947 से पहले धार्मिक आधार पर समुदायों के बीच किसी बड़ी झड़प की जानकारी नहीं मिलती थीं। पंजाब में बसे हिंदू मूलत: व्यापारी या महाजन थे जिनका वहाँ के खेतिहर वर्ग से घनिष्ठ संबंध था। यह लोग आखिरी वक्त तक पश्चिमी पंजाब से पूरब की ओर आने के इच्छुक नहीं थे। आखिरी समय तक उनको कहीं न कहीं यह उम्मीद थी कि विभाजन टल जाएगा। बंगाल के हिंदुओं के विपरीत पंजाब के सिख विभाजन का अर्थ और उसका यथार्थ बहुत देर से समझ पाए।"
लेकिन यह देरी किसकी वजह से हुई? मुसलमान तो पूरी तरह जानता था कि उसे धर्म के आधार पर पाकिस्तान चाहिए। कांग्रेस ने क्यों पंजाब के हिन्दुओं और सिखों को अंतिम समय तक गुमराह किए रखा। कांग्रेस ने विभाजन स्वीकार करते हुए आबादी की शान्तिपूर्ण अदला बदली की गारंटी क्यों नहीं ली? बल्कि महात्मा गांधी ने तो पाकिस्तान से लुट पिट कर जान बचा कर दिल्ली पहुंचने वाले हिन्दुओं और सिखों को यहाँ तक कह दिया था कि वे वहीं पर मुसलमानों के हाथों मर क्यों नहीं गए।
भीष्म साहनी के उपन्यास तमस का एक और किस्सा रोंगटे खड़े कर देने वाला है, जिसे उन्होंने पेज 120-121 में लिखा है। वह लिखते हैं: "इक़बाल सिंह जो कि अपनी जान बचा कर भागा था, वह मुस्लिमों द्वारा पकड़ा जाता है तथा मुस्लिमों के द्वारा उसके साथ अमानवीय बर्ताव किए जाते हैं। वे लोग उसको पकड़ कर पहले तो मारते हैं, फिर गाली गलौज करते हैं, उसका धर्म परिवर्तन करते हैं। उसके नाम को बदलकर इकबाल अहमद रख देते हैं और कहते हैं कि अब तुम हमारी जमात में आ गए हो। अब हम तुम्हारी शादी भी अपनी जमात में करेंगे और अब तुमको हमसे डरने की जरूरत नहीं है।" इकबाल सिंह के साथ किए गए अमानवीय कृत्य की भाषा इस कदर है कि पाठ को पढ़कर पाठक के मन में एक अजीब सी खीझ और नफरत पैदा होने लगती है कुछ उदाहरण इस तरह है-
"बोल कलमा पड़ेगा कि नहीं?" 'रमजान ने कहा।
वह अभी भी बड़ा सा पत्थर हाथ में उठाए हुए था।
"मुंह से बोल ... नहीं तो देख लिया पत्थर अभी तेरी खोपड़ी पर पड़ेगा।"
"इसकी सलवार उतार दो इसे नंगा गांव में ले चलो। यह हमसे बहुत छिपता था।"
और उसने आगे बढ़कर इकबाल सिंह की सलवार में हाथ डाल दिया। कुछ लोग हंसने लगे।
बाएं हाथ से इकबाल सिंह का मुंह खोला और दाएं हाथ में पकड़ा हुआ मांस का बड़ा सा टुकड़ा ,जिसमें टप टप खून की बूंदे गिर रही थी, इकबाल सिंह के मुंह में डाल दिया। इकबाल सिंह की आंखें बाहर आ गई उसकी सांस रुक रही थी।"
विभाजन की विभीषिका में पंजाब के हिन्दुओं और सिखों ने बहुत कुछ झेला था। असंख्य लाशें भर कर रेलगाड़ियाँ लाहौर से आईं थीं। कांग्रेस चाहती हैं भारतवासी विभाजन की विभीषिका भूल जाएं, लेकिन करोड़ों भारतीयों के मानस पर विभाजन की दर्दनाक विभीषिका की जो अनगिनत यादें अंकित हैं, उन्हें भुलाना आसान नहीं।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)