स्वामी लक्ष्मणानंद पुण्यतिथि: कन्वर्जन के खिलाफ सक्रिय एक संत का बलिदान
नई दिल्ली, 23 अगस्त: आज वेदांत केसरी स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती का बलिदान दिवस है। 14 साल पहले आज ही के दिन 23 अगस्त को ईसाई मिशनरियों ने षडयंत्र करके निर्दयतापूर्वक उन्हें मार दिया था। ओडिशा के वन प्रधान फूलबनी (कंधमाल) जिले के ग्राम गुरजंग में 1924 में जन्मे स्वामी लक्ष्मणानंद कंधमाल जिले में जनजाति समाज के कल्याण का काम कर रहे थे। उनकी सक्रियता की वजह से मिशनरियों को कन्वर्जन में बाधा आने लगी थी।
स्वामीजी कन्वर्जन के विरोध में मुखर थे। इस वजह से स्वामीजी पर बार बार जानलेवा हमले हुए लेकिन वे डरे नहीं, डटे रहे। 1969 में रूपगांव चर्च के पादरी ने कथित तौर पर कन्वर्ट हुए ईसाइयों की भीड़ के साथ उन पर हमला किया था। 2008 के अंतिम हमले से पहले स्वामीजी पर 8 बार जानलेवा हमला किया जा चुका था।
महानगरों के पत्रकार अक्सर पूछते हैं कि देश में कन्वर्जन विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल वालों के दिमाग के अलावा कहीं जमीन पर दिखता हो तो बताओ? ऐसे सभी पत्रकार मित्रों को स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के संबंध में जानना चाहिए। क्यों वनवासी बंधुओं के बीच उनके कल्याण के लिए सक्रिय एक सन्यासी की हत्या कर दी गई? प्रश्न यह है कि 84 साल के एक बुजुर्ग सन्यासी की हत्या के षडयंत्र के पीछे कौन लोग रहे होंगे? आश्रम को वे लोग क्यों मिटाना चाहते थे? इन सवालों के जवाब में ही कन्वर्जन से जुड़े सभी प्रश्नों का हल है।
स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या से जुड़ी यह बात ध्यान रखने वाली है कि उन पर 8 हमलों के बावजूद प्रशासन द्वारा उन्हें पर्याप्त सुरक्षा प्रदान नहीं की गई थी। एक तरह से उन्हें आश्रम में बिना सुरक्षा दिए मिशनरियों के हाथों मरने के लिए छोड़ दिया गया था। जिस दिन स्वामीजी की हत्या हुई थी, उस दिन उनकी सुरक्षा में लगा अकेला कर्मचारी भी छुट्टी पर चला गया था। उसकी जगह पर किसी दूसरे कर्मचारी को उनकी सुरक्षा में नहीं लगाया गया।
वर्ष
2008
में
केन्द्र
में
मनमोहन
सिंह
की
यूपीए
सरकार
थी।
लक्ष्मणानंद
की
हत्या
के
बाद
पूरे
देश
में
आक्रोश
का
वातावरण
था
लेकिन
सोनिया
गांधी
या
उनकी
पार्टी
के
किसी
नेता
ने
स्वामीजी
की
हत्या
पर
बयान
नहीं
दिया।
पार्टी
की
तरफ
से
मनमोहन
सिंह
और
सोनिया
गांधी
का
बयान
आया
लेकिन
वह
बयान
कंधमाल
के
ईसाइयों
के
पक्ष
में
था।
केंद्रीय
गृह
मंत्री
शिवराज
पाटिल
ने
ईसाई
बस्तियों
और
राहत
शिविरों
का
दौरा
किया
लेकिन
स्वामी
लक्ष्मणानंद
के
आश्रम
जाने
की
आवश्यकता
नहीं
समझी।
यह
उन
दिनों
की
बात
है
जब
सोनिया
गांधी
यूपीए
की
सबसे
ताकतवर
नेता
थीं
और
ओडिशा
में
बीजू
जनता
दल
की
सरकार
थी
और
मुख्यमंत्री
नवीन
पटनायक
थे।
स्वामी
लक्ष्मणानन्द
की
हत्या
के
बाद
केन्द्र
और
राज्य
सरकार
दोनों
ने
कथित
रूप
से
प्रभावित
ईसाई
परिवारों
को
वित्तीय
सहायता
प्रदान
की
जबकि
हिंदुओं
को
ना
पटनायक
सरकार
ने
कोई
मदद
दी
और
ना
सोनिया
गांधी
की
यूपीए
सरकार
ने।
स्वामी लक्ष्मणानन्द के हत्यारों की गिरफ्तारी और उनके द्वारा रखे गए अवैध हथियारों की जांच को लेकर सरकार की तरफ से ढिलाई बरती गई। उनकी हत्या में जनजातीय समाज के बीच काम कर रहे ईसाई एनजीओ की भूमिका संदिग्ध पाई गई थी। स्थानीय लोगों ने उनकी जांच की मांग की लेकिन ईसाई गैर सरकारी संगठनों की भूमिका की जांच नहीं की गई। मामले में हिन्दुओं की ही बड़ी संख्या में गिरफ्तारी हुई। ईसाई संगठनों और चर्चों को लाखों रुपए की सहायता राशि उस दौरान प्रदान की गई जबकि उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचा था।
स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती का जनजाति समाज के उत्थान के लिए किया गया कार्य और फिर उनके खिलाफ ईसाई मिशनरियों का षडयंत्र किसी ओटीटी प्लेटफॉर्म के वेब सीरिज की पटकथा जैसा है। ईसाई उग्रवादियों ने 23 अगस्त 2008 को रात 8 बजे श्री कृष्ण जन्मोत्सव के अवसर पर स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती, भक्तिमयी माता, अमृतानंद बाबा, किशोर बाबा और कन्याश्रम के संरक्षक पुरुबग्रंथी की हत्या कर दी थी। उन्होंने कन्याश्रम में घुसकर इस पूरे हत्याकांड को अंजाम दिया।
स्वामीजी को गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य ने 'विधर्मी कुचक्र विदारण महारथी' उपाधि दी थी। वे जनजातीय समाज को निडर, शिक्षित और आर्थिक रूप से मजबूत बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि स्कूल में आकर जनजातीय बच्चे अच्छी पढ़ाई करें। वे खेतों में नई तकनीक से अच्छी खेती सीखें। उन्होंने जहां अच्छी पढ़ाई के लिए कंधमाल के चकपाद में संस्कृत पढ़ाने के लिए गुरुकुल पद्धति पर आधारित एक विद्यालय, महाविद्यालय और कन्याश्रम प्रारंभ किया, वहीं दूसरी तरफ खेती के लिए कटिंगिया में सब्जी सहकारी समिति भी बनवाई। उनके इन प्रयासों से जनजाति समाज शिक्षित और आर्थिक मोर्चे पर समृद्ध हुआ। उन्होंने बिरुपाक्ष्य, कुमारेश्वर और जोगेश्वर मंदिरों का जीर्णोद्धार भी किया। जनजाति समाज के बीच उन्होंने अनवरत चार दशक तक काम किया।
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उनकी हत्या ना की गई होती तो वे आज भी कंधमाल के अपने आश्रम में जनजाति समाज के विकास के लिए काम कर रहे होते। स्वामीजी ने जनजाति समाज के बीच रहकर जितना कुछ किया, उसका सही सही मूल्यांकन होना अभी शेष है। उनके लिए न्याय की लड़ाई अभी अधूरी है।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)