Protests in China: चीन के लिए मुसीबत बन गया है तानाशाही कम्युनिस्ट शासन
कोरोना संक्रमण का कारण बनने वाला चीन एक बार फिर कोरोना की चपेट में है। एक ओर जहां दुनिया लॉकडाउन जैसे सख्त उपायों से आगे निकल चुकी है, वहीं चीन का तानाशाही कम्युनिस्ट शासन आज भी सख्त लॉकडाउन को ही जनता पर थोप रही है।
Protests in China: चीन में एक बार फिर कोविड ने पाँव फैलाना शुरु कर दिया है। पिछले कुछ दिनों से वहाँ प्रतिदिन संक्रमण के 40000 से भी अधिक मामले सामने आ रहे हैं। कुल संक्रमितों की संख्या वहाँ 302802 के भी पार पहुँच गई है। चीन में कोरोना के विरुद्ध ज़ीरो टॉलरेंस की नीति लागू होने के कारण प्रभावित क्षेत्रों में कठोर लॉकडाउन लागू कर दिया गया है। इस लॉकडाउन के कारण सरकार के प्रति लोगों का गुस्सा सांतवें आसमान पर है।
लोग लॉकडाउन के कारण लगाए गए कड़े प्रतिबंधों के विरुद्ध सड़कों पर उतर उग्र प्रदर्शन कर रहे हैं। यह प्रदर्शन राजधानी बीजिंग, आर्थिक राजधानी शंघाई, कोविड प्रभावित शहर शिनजियांग, वुहान आदि से लेकर चीन के 10 से भी अधिक शहरों तक फैल चुका है।
गौरतलब है कि शंघाई के उरुमकी में पिछले सप्ताह गुरुवार को एक अपार्टमेंट में आग लग जाने के कारण 10 लोगों की मौत हो गई थी। स्थानीय लोगों का कहना है कि लॉकडाउन के कारण राहत व बचाव के कार्य में देरी की गई, आग लगने के बावजूद जान बचाने के लिए भी लोगों को अपार्टमेंट से निकलने नहीं दिया गया। उन्हें रोके रखा गया। इस घटना ने विरोध-प्रदर्शनों में आग में घी का काम किया। लोग हाथों में तख़्ती लेकर शी जिनपिंग और वहाँ की कम्युनिस्ट सरकार के विरुद्ध खुलेआम नारे लगा रहे हैं।
गत एक वर्ष में लगभग 22 बार चीन के लोग सड़कों पर उतरकर जिनपिंग के विरुद्ध विरोध-प्रदर्शन कर चुके हैं। चीन में ऐसा विरोध-प्रदर्शन पहले कम ही देखा गया है। इससे पूर्व ऐसा विरोध 1989 में बीजिंग के थ्येनआनमन चौक पर देखा गया था, जिसमें विद्यार्थियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।
इस बार विद्यार्थियों समेत चीन की आम जनता भी इस विरोध-प्रदर्शन में सम्मिलित है। जगह-जगह पुलिस-बल की तैनाती कर दी गई है। विरोध-प्रदर्शन की आशंका से विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं को छुट्टी देकर जबरन घर भेजा जा रहा है।
ऐसा प्रतीत होता है कि चीन की जनता कम्युनिस्ट जिनपिंग की तानाशाही से खिन्न एवं क्षुब्ध है। वहाँ के नागरिकों का कहना है कि सरकार बिना सोचे-समझे लॉकडाउन लगा रही है। वह लॉकडाउन के कारण उत्पन्न होने वाली बेरोजगारी, आर्थिक मंदी और दैनंदिन जीवन में उपस्थित होने वाली अन्य कठिनाइयों और समस्याओं के बारे में नहीं सोच रही। लोगों का यह भी कहना है कि सरकार यदि कोविड के विरुद्ध ज़ीरो टॉलरेंस नीति अपनाते हुए संपूर्ण लॉकडाउन का पालन कर रही है तो फिर संक्रमण-दर में वृद्धि क्यों हो रही है?
इसका अभिप्राय है कि सरकार से ही तैयारी, क्रियान्वयन, बचाव के उपाय आदि के स्तर पर कोई चूक हो रही है और उसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। लोग सवाल पूछ रहे हैं कि कोविड से जहाँ अन्य देश उबर आए हैं , वहाँ चीन अब तक क्यों नहीं उबर पा रहा? वहाँ वैक्सीनेशन की रफ़्तार भी धीमी है। उसके वैक्सीन भी उतने प्रभावी एवं असरदायक नहीं हैं। अन्य देशों से वैक्सीन लेना भी वह अपनी शान के ख़िलाफ़ समझता है।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपने सबसे ख़राब दौर का सामना कर रहे हैं। बीजिंग, शेनजियांग, झेनझाऊ, चोंगकिंग, गुआंगडांग, शंघाई, नानजिंग और गुआंगजौ आदि शहरों में प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच हिंसक झड़प की घटनाएँ भी सामने आईं। प्रदर्शनकारी अब लॉकडाउन के कठोर नियमों में ढील देने के साथ-साथ जिनपिंग के इस्तीफ़े की भी माँग कर रहे हैं। वे सोशल मीडिया पर अपने विरोध व प्रदर्शन के वीडियो भी अपलोड कर रहे हैं।
भारत में प्रचलित कहावत ''बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय'' चीनी राष्ट्रपति और वहाँ की कम्युनिस्ट सरकार पर अक्षरशः खरी उतरती है। तमाम सूत्रों से उस पर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि पूरी दुनिया में अपना आर्थिक साम्राज्य फैलाने की महत्त्वाकांक्षा से ग्रसित चीन ही इस वायरस और महामारी का जनक रहा है। आज वह स्वयं इसकी चपेट में है, जबकि पूरी दुनिया इससे लगभग उबर आई है। वहीं जबरदस्ती की तालाबंदी से वहाँ के लोगों की निजी जिंदगियां भी अत्यंत दूभर एवं तनावग्रस्त हो उठी हैं।
आर्थिक मोर्चे पर भी चीनी सरकार लगातार अनेक संकटों से जूझ रही है। वहाँ निवेश के अवसर कम हुए हैं। नए निवेश तो कम आ ही रहे हैं, पुराने निवेशक और कई दिग्गज कंपनियां भी चीन से बाहर जा रही हैं। चीन को पहले से ही दूसरे देश भरोसेमंद साथी नहीं मानते। कोविड के कालखंड में चीन पर यह भरोसा और कमज़ोर हुआ है।
आर्थिक दिवालिएपन के शिकार श्रीलंका के प्रति चीन के व्यवहार व रवैये ने अन्य देशों को उसके प्रति अधिक सजग एवं सचेत कर दिया है। वे चीन के साथ व्यापारिक संबंध जोड़ने, उसे विस्तार आदि देने से पहले सौ बार सोचते हैं। हाल के दिनों में भारत समेत अन्य देशों ने भी बहुत-से चीनी उत्पादों पर प्रतिबंध लगाया है।
दूसरे देशों की चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकारों को अस्थिर करने में भी चीनी सरकार की भूमिका संदिग्ध रही है। इसलिए आज जब चीनी सरकार अंतर्बाह्य मोर्चों पर तमाम चुनौतियों एवं अंतर्विरोधों का सामना कर रही है तो शायद ही कोई और देश उसकी सहायता को आगे आए या विभिन्न मुद्दों पर खुलकर उसका समर्थन करे।
उल्लेखनीय है कि चीन में जो शहर लॉकडाउन में हैं, वे वहाँ की जीडीपी में 60% की हिस्सेदारी करते हैं। लॉकडाउन के खौफ़ का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि नवंबर के प्रारंभ में चीन में आईफोन निर्माता फॉक्सकॉन प्लांट से अनेक कामगार लॉकडाउन की आशंका एवं भय से शहर छोड़कर भाग गए। स्थिति इतनी गंभीर है कि चीन के भविष्य को लेकर चीनी मामलों के विशेषज्ञ भी इन दिनों कोई उत्साहजनक टिप्पणी करने से बच रहे हैं।
सवाल यह है कि चीन से भूल कहाँ हुई? इसका उत्तर ढूँढ़ने के लिए उसे अपने गिरेबान में झाँकना होगा, जिसके लिए वह कतई तैयार नहीं। विचित्र विडंबना है कि दुनिया भर के कम्युनिस्ट, जहाँ अन्य देशों में लोकतंत्र की दुहाई देते रहते हैं, वहीं चीन के तीव्र विकास के लिए वे वहाँ की तानाशाही सरकार की प्रशस्ति करते नहीं थकते! यह तानाशाही हुकूमत ही आज चीन के लिए बड़ी भारी समस्या बन गई है।
लोकतंत्र में जहाँ सभी पक्ष मिल-बैठकर उचित निर्णय लेते हैं, वहीं तानाशाह तेज़ी से निर्णय जरूर करते हैं, पर इसी फेर में वे भारी गलतियाँ भी कर बैठते हैं, जिनका ख़ामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है। पूरी दुनिया को जहाँ आज समझ आ गया है कि कोविड महामारी को रोकने का एकमात्र उपाय लॉकडाउन नहीं, वहीं चीन की तानाशाही सरकार संपूर्ण तालाबंदी को ही एकमेव रामबाण औषधि समझने की हठ पाले बैठी है।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)