India China Relations: क्या मोदी ने चीन के मामले में इंदिरा गांधी की गलतियों से सबक लिया है?
आज आर्थिक रूप से चीन दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है जबकि भारत पांचवी। जब दोनों देश 1987 तक आर्थिक विकास के लगभग बराबर स्तर पर थे तो फिर ऐसा क्या हुआ कि चीन तेजी से आगे बढ़ता गया जबकि भारत पिछड़ता चला गया?
India China Relations: चीन और भारत के व्यापार में 2022 के शुरुआती 9 महीनों में जब 12 बिलियन डॉलर का अंतर नजर आया तो कई सरकारी एजेंसियां सतर्क हो गईं। कई शिपमेंट ऐसे पकड़े गए, जिनमें चीन से आने वाले माल की दर पहले से काफी कम पाई गई। ताजा खबर ये है कि वित्त मंत्रालय के रेवेन्यू डिपार्टमेंट ने चीन से आने वाले शिपमेंट की रिस्क प्रोफाइलिंग बढ़ा दी है।
चीन से जुड़ी दूसरी ताजा खबर ये है कि भारत अब इलेक्ट्रिक गाड़ियों में लगने वाली लिथियम बैटरीज के रॉ मेटीरियल के लिए चीन पर अपनी निर्भरता कम करने में जुट गया है। चीन की तथाकथित घुसपैठ को लेकर कांग्रेस का लगातार हमलावर रुख मोटे तौर पर सीमा तक ही सीमित रहता है, लेकिन इसी हफ्ते की ये दो खबरें बता रही हैं कि मोदी सरकार कई और मोर्चों पर भी सजग है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मोदी ने चीन के मामले में इंदिरा गांधी से सबक लिया है?
कभी फुर्सत में पूर्व प्रधानमंत्री और तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह का 1991 का वो ऐतिहासिक बजट भाषण पढ़िए, जिसमें अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोल दिए गए थे। उसमें जिस प्रधानमंत्री ने देश पर करीब 17 साल शासन किया, पाकिस्तान के दो टुकड़े किए, पहले परमाणु परीक्षण किए, इस ऐतिहासिक मौके पर उन इंदिरा गांधी की आर्थिक नीतियों का जिक्र ना करना अनायास ही नहीं था।
इंदिरा गांधी के नाम का जिक्र इस भाषण में दो बार हुआ है। एक बार मनमोहन सिंह ने गांधी परिवार को खुश करने के लिए लिया, दूसरी बार उनका जिक्र रस्मी तौर पर पंडित नेहरू व राजीव गांधी के साथ धन्यवाद देने के लिए किया। उन्होंने कहा, "पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का धन्यवाद जिन्होंने एक विकेन्द्रित औद्योगिक विकास किया।"
वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों से इंदिरा गांधी के दौर को आप कुछ ज्यादा अच्छी तरह समझ सकेंगे। 19 जनवरी 1966 को इंदिरा गांधी ने पहली बार भारत के प्रधानमंत्री का पद संभाला, तो उस साल भारत की नोमिनल जीडीपी (जो करंट प्राइस में आंकी जाती है) 45.87 बिलियन डॉलर रह गई, जो उससे पहले के साल से पूरे 14 बिलियन डॉलर यानी करीब 28 प्रतिशत कम हो गई थी। इसी साल चीन जो 1965 में 70 बिलियन डॉलर पर था, 76 बिलियन डॉलर पार कर गया। इंदिरा के पहले कार्यकाल में ही यानी 1977 तक ये फासला बढ़कर 53 बिलियन डॉलर से ऊपर हो गया। भारत की नॉमिनल जीडीपी जहां 121.49 डॉलर थी वहीं चीन की नोमिनल जीडीपी 174.94 बिलियन डॉलर हो गई।
इंदिरा गांधी जब सत्ता से बाहर थीं तो यह अंतर कम हुआ और जब वे 1980 में सत्ता में लौटी तब ये फासला घटकर केवल 5 बिलियन डॉलर का रह गया था और 1981 में सिर्फ 2 बिलियन डॉलर का। यानी 1981 तक भारत और चीन का आर्थिक विकास लगभग बराबर हो गया था जो अगले कुछ सालों तक बना रहा। लेकिन 1987 के बाद उलटी गिनती शुरू हो गई। अब चीन ने इतने दिनों से आधारभूत ढांचा निर्माण की जो क्रांति की थी, निजी कम्पनियों को आगे बढ़ाया था, बाहर के बाजार के लिए अपने दरवाजे खोले थे, तमाम नियमों को शिथिल किया था, जो स्पेशल इकोनोमिक जोन तैयार किए थे, उनके परिणाम सामने आने लगे थे।
1991 में जब तक भारत अपने बाजार खोलता, ये फासला तेजी से बढ़कर 113 बिलियन डॉलर और वाजपेयी की सरकार आने से पहले दोगुना और मोदी सरकार आने से पहले पांच गुने से भी अधिक हो गया। 2013 में भारत की नोमिनल जीडीपी 1856.72 बिलियन डॉलर थी, और चीन की 9570.41 बिलियन डॉलर।
क्योंकि जिस दौर में इंदिरा गांधी शासन कर रही थीं, उद्योगों पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगाए जा रहे थे, इस दौर को आप नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगड़िया की फोर्ब्स मार्शल कम्पनी के नौशाद फोर्ब्स के साथ एक पोडकास्ट बातचीत में समझ सकते हैं। फोर्ब्स मार्शल भारतीय जड़ों वाली एक मल्टीनेशनल इंजीनियरिंग कम्पनी है, जिसके 18 देशों में ऑफिस हैं। उन्होंने बताया कि उनके पिता ने पीएच इलेक्ट्रोड्स भारत में बनाने के लिए एक स्विस कम्पनी से समझौता किया था। उनको पूरे पांच साल तक अनुमति पाने के लिए संघर्ष करना पड़ा क्योंकि चंडीगढ़ की सीएसआर लैब ने कह दिया था कि जब हमारे पास पीएच इलेक्ट्रोड्स बनाने की तकनीक है, तो आप स्विस कम्पनी के पास क्यों जा रहे हो?
लेकिन जब नौशाद के पिता लैब में गए तो उन्हें बताया गया कि हमारे पास कुछ नहीं है, लेकिन कुछ आइडियाज है, जिन पर हम काम कर सकते हैं। नौशाद के पिता ने कहा तो आप मना कर दो कि आपके पास तकनीक नहीं है, लेकिन लैब ने कहा कि ऐसा कह देंगे तो हमें मिलने वाला बजट हम खो देंगे। ऐसे पांच साल बर्बाद हुए और वो संयुक्त उपक्रम भी शुरू नहीं हो पाया। ये अकेला उदाहरण समझाने के लिए पर्याप्त है कि इंदिरा गांधी के नेतृत्व में सरकार उस दौर में क्या कर रही थीं और चीन क्या कर रहा था।
जिस वक्त इंदिरा सरकार में ये सब हो रहा था, उन दिनों चीन दक्षिणी हिस्से में पर्ल नदी के डेल्टा रीजन में आईटी, इलेक्ट्रॉनिक्स, टेक्सटाइल्स और टॉयज का इंडस्ट्रियल क्लस्टर व पूर्वी हिस्से में यांग्यट्ज नदी डेल्टा रीजन में ऑटोमोबाइल, केमिकल व इलेक्ट्रॉनिक्स का हब तैयार करने में जुटा था।
शुरूआत के पचास सालों में भारत का इन्फ्रास्ट्रक्चर निवेश जीडीपी का 3 प्रतिशत था, जो 6.5 प्रतिशत होना चाहिए था, वहीं चीन ने इस दौरान 9 प्रतिशत निवेश इन्फ्रास्ट्रक्चर में किया यानी भारत से तीन गुना। चीन ने दशकों पहले ही तीन बातों पर और फोकस किया, जिन पर भारत में अब मोदी सरकार में जाकर फोकस हो रहा है। सोलर एनर्जी पर ध्यान देना, इलेक्ट्रिक गाड़ियों के उत्पादन पर जोर देकर तेल की जरुरत कम करना और तीसरे पेयजल को लेकर सख्ती।
माओ के बाद नए नेताओं ने 1978 में चीन का बाजार भी खोल दिया था। तब इंदिरा गांधी ने 1982 में जाकर सीमेंट उद्योग पर से प्रतिबंध हटाए, रातों-रात सीमेंट की काला बाजारी खत्म हो गई और वास्तविक कीमतें भी गिर गईं। उसके बाद 1983 में ऑटोमोबाइल्स और कन्ज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स में भी उन्होंने विदेशी निवेश को मंजूरी दी, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। फिर वो पंजाब की समस्या में उलझ गईं और वही साल उनका आखिरी साबित हुआ। लेकिन आने वाली पीढ़ियां उनकी इस लेटलतीफी का खामियाजा अभी तक भुगत रही हैं।
मोदी सरकार ने ना तो इंदिरा गांधी की तरह रुख लिया है कि चीन से कोई समझौता नहीं करेंगे, और ना ही सोनिया-राहुल की तरह कि उनकी पार्टी से ही समझौता करके उनकी गोद में बैठ जाएंगे। बल्कि व्यापार भी चल रहा है तो रिस्क प्रोफाइलिंग और शिपमेंट्स पर रेड आदि की सतर्कता के साथ। जरूरत हो तो सैकड़ों चीनी एप्स पर पाबंदी भी लगा दी गयी। बॉर्डर इन्फ्रास्ट्रक्चर भी मजबूत हो चला है और देश का इन्फ्रास्ट्रक्चर भी मजबूत हो रहा है।
मोदी की चीन नीति देखकर इतना कहा जा सकता है कि मोदी ने चीन के साथ दोस्ताना बढ़ाया है तो अपने हितों से समझौता भी नहीं किया है। आर्थिक स्तर पर चीन को टक्कर देने के लिए मोदी सरकार इन्फास्ट्रक्चर में भारी पूंजी निवेश कर रही है जिसका लाभ भविष्य में जरूर दिखेगा।
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